पितृपक्ष और नवरात्र की महालया

पितृपक्ष और नवरात्र की संधिकाल को महालया कहा जाता है इस समय मां दुर्गा के घर आगमन के लिए पूजा की जाती है और पितरों को जल देकर प्रार्थना और नमन करते हैं कि आपअपनेलोकमेंप्रसन्नरहें और अपने परिवारजन पर हमेशा कृपा दृष्टि बनाए रखें| महालया अमावस्या की सुबह को पितर पृथ्वीलोक से विदाई लेते हैं और शाम के समय मां दुर्गा अपनी योगनियां और पुत्र गणेश,कार्तिकेय के साथ पृथ्वी पर पधारती हैं अर्थात महालया के दिन पितृपक्ष समाप्त होता है और इसी दिन से देवीपक्ष की शुरुआत हो जाती है| मान्यता है कि पृथ्वीलोक देवी पार्वती का मायका है और नवरात्रि के नौ दिनों में पृथ्वी पर रहते हुए लोगों की कठिनाइयों को दूर करती हैं |इसलिए इस दिन से माँ की आराधना विशेष रूप से की जाती है।

श्राद्ध पक्ष ‘मृतकों’ का न हो कर जीवन के प्रति, अमरता के प्रति, अक्षुण्ण प्रवाह के प्रति समर्पण का सायास आयोजन है । जन्मदिन मनाने से भी आगे जा कर उन पूर्वजों को अमरत्व प्रदान करना है जिनके कारण हमारा अस्तित्त्व इस धरा पर है। एक बहुत ही प्राचीन भारतीय विचार है, मनुष्य अपने जीवनकाल में तीन जन्म लेता है, पहला माँ के गर्भ से, दूसरा शिक्षा प्राप्ति हेतु गुरु के निकट जाने पर जिसे कि अलङ्कारिक रूप में कहा गया कि श्रीगणेश के समय वह शिष्य को अपने गर्भ में तीन दिन रखता है एवं तीसरा जो कि सबसे गहन है, तब होता है जब शरीर मरती है ।

अश्वनी कुमार तिवारी, डेमोक्रेटिक फ्रंट, बिहार,  03 अक्टूबर:

इस विचार के आलोक में श्राद्धपक्ष को देखें, श्रद्धा आयोजन का महत्त्व समझ में आ जायेगा।

‘श्रद्धा’ शब्द ‘श्रत्’ या ‘श्रद्’ शब्द से ‘अङ्’ प्रत्यय होने पर बनता है, जिसका अर्थ है- ‘आस्तिक बुद्धि। ‘सत्य धीयते यस्याम् सा श्रद्धा’ अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है वह श्रद्धा है । श्राद्ध श्रद्धा से ही व्युत्पन्न है। संस्कृत श्रत् रोमन मूल के अंग्रेजी शब्द Heart के मूल में है जिसमें निष्ठा एवं श्रद्धा का शालग्राम निहित है, कहते हैं न by heart !  

मनुष्य एक स्मृतिजीवी प्राणी है। स्मृतियों को ले कर जाने कितनी कलाकृतियाँ, साहित्य, गीत, समर्पण आदि नित्य सृजित किये जाते रहे हैं, जायेंगे । शरीर ‘शॄ-ईरन्’ के मूल में शॄ है, हिंसा से जुड़ा, क्षरण से जुड़ा। युवा होता पिण्ड विस्तार लेता है, देह (दिह्-घञ्) कहलाता है, वृद्धि करता है। एक निश्चित समय के पश्चात वह छीजने लगता है, शरीर हो जाता है।   एक दिन शरीर नहीं रहती , स्मृतियाँ रह जाती हैं ।

देखें तो स्मृति (स्मृ-क्तिन्) मरण के शाश्वत सत्य के बीच अमरता का बीज है जिसे मनुष्य विविध आयोजनों से सायास बनाये रखता है । सनातन प्रज्ञा सुकर्मों पर केंद्रित है क्यों कि उनसे स्मृति का शुभ्र पक्ष बढ़ता है । ‘मृत व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं कहते’ इस कथन के पीछे एक सूक्ष्म मनोविज्ञान है कि हम मृत की स्मृति में कभी उसकी बुराइयाँ नहीं दुहराते । ‘सत्य शिवम् सुन्‍दरम्’ की अवधारणा के नेपथ्य में एक स्वस्थ, सुन्दर, चिरजीवी समाज का स्वप्न है जिसकी स्मृतियों में शुभ्रता का साम्राज्य रहे ।

हमारे बीच साक्षात सदेह रह कर गये पितर यहीं महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। वे देवताओं की भाँति दुर्लभ नहीं, कभी सहज सुलभ रहे होते हैं । देवस्तोत्रों की तुलना में महान कर्म करने वाले पूर्वजों की स्मृतियों के माध्यम से हम वरेण्य व्यवहार के निकट अधिक सरलता से पहुँच सकते हैं । इस कारण ही पितरों को देवतुल्य माना गया है। संसार की समस्त प्राचीन सभ्यताओं में पितरों के प्रति श्रद्धा का भाव अभिव्यक्त हुआ है । सनातन में प्रत्येक वर्ष का एक पक्ष पितरों के श्राद्ध हेतु निश्चित है, आश्विन(पूर्णिमान्‍त) माह का यह कृष्ण पक्ष वही है। पूर्णिमा तिथि वाले एक दिन पूर्व की भाद्रपद पूर्णिमा को भी सम्मिलित कर लेते हैं।

देखें तो स्मृतियों को जीना मरण या नश्वरता के विरुद्ध जीवन अभियान है। वैदिक संहिताओं से ले कर आख्यानों तक, पुराणों तक अमरत्व की इच्छा, साधना, व्यवस्थायें विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई हैं । देवताओं के समान्‍तर पितरों का अस्तित्त्व वृत्तीय सममिति में बना ही रहता है मानों ‘यिन यान’ हो ।

दिन देव, रात पितर; शुक्ल देव, कृष्ण पितर; उत्तरायण देव, दक्षिणायन पितर; देवयान पितृयान … सन्‍तुलित श्रद्धा के बहुआयामी विवरण विविध स्रोतों में मिलते हैं। भक्तिपूरित देव आराधना में कर्मकाण्ड पीछे छूट जाते हैं तो पितरों हेतु यहाँ तक कहा गया है कि कुछ न मिले, मन्‍त्र न पता हों तो श्रद्धा के साथ जलाञ्जलि ही पर्याप्त है।

#पितृपक्ष और #नवरात्र की संधिकाल को महालया कहा जाता है इस समय मां दुर्गा के घर आगमन के लिए पूजा की जाती है और पितरों को जल देकर प्रार्थना और नमन करते हैं कि आपअपनेलोकमेंप्रसन्नरहें और अपने परिवारजन पर हमेशा कृपा दृष्टि बनाए रखें| महालया अमावस्या की सुबह को पितर पृथ्वीलोक से विदाई लेते हैं और शाम के समय मां दुर्गा अपनी योगनियां और पुत्र गणेश,कार्तिकेय के साथ पृथ्वी पर पधारती हैं अर्थात महालया के दिन पितृपक्ष समाप्त होता है और इसी दिन से देवीपक्ष की शुरुआत हो जाती है| मान्यता है कि पृथ्वीलोक देवी पार्वती का मायका है और नवरात्रि के नौ दिनों में पृथ्वी पर रहते हुए लोगों की कठिनाइयों को दूर करती हैं |इसलिए इस दिन से माँ की आराधना विशेष रूप से की जाती है।

#महालया- नवरात्र को दुर्गा पूजा के नाम से भी जाना जाता है। इसकी शुरुआत महालया से होती है । महालया नवरात्र या दुर्गा पूजा से एक पहले दिन को होता है। इसमें मां दुर्गा की पूजा की जाती है और उनसे प्रार्थना की जाती है की वो धरती पर आए और अपने भक्तों को आशीर्वाद दें।

* महालया त्योहार ज्यादातर बंगालियों द्वारा मनाया जाता है। इसमें मां दुर्गा को उनके भक्तों की महिसासुर से रक्षा करने के लिए बुलाया जाता है। ये अमावस्या की काली रात को मनाया जाता है और भक्त मां से धरती पर आने की प्रार्थना करते हैं।महालया के दिन मां की मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार, मां दुर्गा की आंखों को बनाते हैं जिसे चक्षुदान भी कहते हैं ।

* महालया के अगले दिन से मां दुर्गा के नौ दिनों की पूजा के लिए कलश स्थापना की जाती है इसके साथ ही देवी के नौ रूपों की पूजा के साथ नवरात्रि की पूजा शुरू हो जाती है।