सुशील पंडित, डेमोक्रेटिक फ्रंट, यमुनानगर, 06 जनवरी :
भारत में जातिवाद केवल एक सामाजिक संरचना का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह समाज के मानसिक ढांचे को भी प्रभावित करता है। जाति की पहचान भारतीय समाज में एक गहरी और जटिल मानसिक समस्या बन चुकी है। इस मानसिकता को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम यह जानें कि लोग जाति को क्यों मानते हैं और क्यों इसका पालन करते हैं। एक मुख्य कारण यह है कि जाति का अस्तित्व एक प्रकार के ” असामाजिक समझौते” से जुड़ा हुआ है, जो समाज में शक्ति और नियंत्रण की संरचनाओं को स्थापित करता है। इस समझौते के तहत समाज में असमानता और भेदभाव का माहौल उत्पन्न होता है, जिसे हम आज भी महसूस करते हैं।
यही कारण है कि भारत में जातिवाद एक सामाजिक- आर्थिक- राजनीतिक मुद्दा बन गया है, जो लोगों को विभिन्न श्रेणियों में बांटता है। यह सिर्फ एक सामाजिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक मानसिक ढांचा है, जो लोगों को एक विशेष पहचान और स्थान देने का काम करता है। अमेरिका की महान विद्वान इसाबेल विल्करसन ने जातिवाद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “नस्लवाद हमारी त्वचा में झलकता है, जबकि जातिवाद हमारी हड्डियों में समाया हुआ है।” यह विचार इस बात को दर्शाता है कि जातिवाद समाज में गहरे और स्थायी रूप से समाया हुआ है। जाति और नस्ल केवल भावनाओं का मामला नहीं हैं; ये शक्ति और सत्ता के मुद्दे हैं। भारत और अमेरिका जैसे देशों में, सामाजिक पदानुक्रम और भेदभाव ने निचले वर्गों को दबा कर रखा है। भारत में यह स्थिति दलितों के साथ है, जबकि अमेरिका में यह अफ्रीकी अमेरिकियों के साथ है। इन दोनों देशों में उच्च जातियों और नस्लों ने निचले वर्गों को दबाने के लिए आतंक और बल का इस्तेमाल किया है। जातिवाद को समझने के लिए जीन-जैक्स रूसो के सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत का संदर्भ लिया जा सकता है। रूसो के अनुसार, प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार और स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। लेकिन, जातिवाद एक ऐसा अनुबंध नहीं है, जो समानता और स्वतंत्रता का पालन करता हो। इसके बजाय, यह एक सामाजिक संरचना है, जो कुछ समूहों को विशेषाधिकार देती है और दूसरों को नीचा दिखाती है। जातिवाद का यह अनुबंध किसी भी तरह से न्यायपूर्ण नहीं है, क्योंकि यह हमेशा एक वर्ग को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन बना देता है। समकालीन भारत में जाति की मानसिकता को लेकर गहरी भ्रांति है। जाति को अक्सर व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के आधार पर देखा जाता है, जैसे कि यदि कोई मांसाहारी है तो वह दलित होगा। दूसरी ओर, दलितों के मन में विभिन्न प्रकार के विचार हैं, और वे अपनी समस्याओं के लिए अक्सर ब्राह्मणों को जिम्मेदार मानते हैं। यह मानसिकता समाज में असमानताओं को और बढ़ाती है, जो जातिवाद को बनाए रखती है।
जाति व्यक्तिगत पसंद और नापसंद की मानसिकता को प्रभावित करती है। इसलिय जातिवाद को एक मानसिक और सामाजिक बीमारी के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसे सामूहिक रूप से समाप्त किया जाना चाहिए। यह समस्या केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि एक सामूहिक समस्या है, जिसे हर वर्ग और समुदाय को मिलकर सुलझाना होगा। इसके लिए हमें यह समझना होगा कि जातिवाद केवल भेदभाव का मामला नहीं है, बल्कि यह मानसिक शोषण और असमानता का रूप है। यह समाज के भीतर व्यक्ति के आत्मसम्मान, मानसिक स्थिति और सामाजिक भूमिका को प्रभावित करता है।
हमें इस नई सोच को फैलाने की आवश्यकता है कि जातिवाद केवल एक सामाजिक मुद्दा नहीं, बल्कि यह एक मानसिक समस्या भी है, जिसे हम सभी को मिलकर हल करना होगा। हमें अपने समाज में एक नई मानसिकता विकसित करनी होगी, जिसमें जाति के आधार पर भेदभाव की कोई जगह न हो। केवल तभी हम एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं।