Tuesday, December 24

रघुनंदन पराशर, डेमोक्रेटिक फ्रंट, जैतो, 12 जनवरी

डा. साध्वी श्री सुयशा जी महाराज ने कहा कि एक विख्यात मूर्तिकार ने अपने बेटे को भी मूर्तिकला सिखाई। उसका पुत्र इस कला में जल्दी ही पारंगत हो गया, क्योंकि वह भी अपने पिता के समान ही परिश्रमी और कल्पनाशील था। जल्दी ही वह सुन्दर मूर्तियां बनाने लगा। फिर भी मूर्तिकार अपने पुत्र द्वारा बनाई गई मूर्तियों में कोई न कोई नुक्स जरूर निकाला करता था। वह कभी भी खुलकर अपने पुत्र की प्रशंसा नहीं करता, बल्कि कई बार तो झिड़क भी देता था। कई सालों तक यही सिलसिला चला। मूर्तिकार का बेटा अपने पिता जैसी ही सुन्दर मूर्तियां बनाने लगा। सब उसकी प्रशंसा करते, और उसकी मूर्तियों की मांग दिन पर दिन बढ़ने लगी, फिर भी उसके पिता के रवैये में कोई तब्दीली नहीं आई।इससे उसका पुत्र चिंतित रहता था,हालांकि उसकी लगन में कोई कमी नही आई। एक दिन उसे एक युक्ति सूझी। उसने एक आकर्षक मूर्ती बनाई और अपने एक मित्र के जरिए उसे अपने पिता के पास भिजवाया।उसके पिता ने सोचा कि यह मूर्ति उसके मित्र की बनाई हुई है। उसने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। तभी वहाँ छिपकर बैठा उसका पुत्र निकल आया और गर्व से बोला, ‘यह मूर्ति असल में मैंने बनाई है आखिरकार मैंने वैसी मूर्ति बना ही दी, जिसमें आप कोई खोट नहीं निकाल सके।’ मूर्तिकार ने कहा, ‘बेटा एक बात गांठ बांध लो। अभिमान व्यक्ति की उन्नति के सारे रास्ते बंद कर देताहै।आज तक मैंने तुम्हारी प्रशंसा नही की, हर समय तुम्हारी मूर्तियों में कमियां निकालता रहा,इसी लिए तुम इतनी अच्छी मूर्तियां बनाते रहे। अगर मैं तुम्हें कह देता कि तुमने अच्छी मूर्तियां बनाई हैं तो शायद तुम अगली मूर्ति बनाने में पहले से ज्यादा सचेत नहीं रहते, क्योंकि तुम्हें लगता कि तुम पूर्णता को प्राप्त कर चुके हो, जबकि कला के क्षेत्र में पूर्णता की कोई स्थिति ही नही होती है। मैं स्वयं अपने को पूर्ण नहीं मानता। लेकिन आज जो तुमने नाटक किया उससे तुम्हारा ही नुक्सान होगा। यह सुनते ही पुत्र लज्जित हो गया। और उसने अपने पिता से क्षमा मांगी।