पहले मन को बदलो, फिर वेश को बदला जाता है : मुनिश्री पृथ्वीराज
हिसार/पवन सैनी
मुनिश्री पृथ्वीराज ने कहा है कि दीक्षा का अर्थ है आध्यात्म के प्रति अपना पूर्ण समर्पण। दीक्षित व्यक्ति सत्य का पूर्ण उपासक होता है, व्यक्ति के भीतर और बाहर की भेद रेखा मिट जाती है। दीक्षा आत्मबल का जीता जागता उदाहरण है। दीक्षा का संबंध अवस्था से नहीं वैराग्य से है। जागने की प्रक्रिया है। जैन दीक्षा में तेरापंथ दीक्षा अलग है। वहां पर अहंकार, ममकार का विसर्जन करना होता है। तेरापंथ में आचार्य एक होते हैं। दूसरा मुनि कोई शिष्य नहीं बना सकता, अनुशासन, मयार्दा, संगठन, एक आचार्य की आज्ञा में चलना व भगवान महाबीर ने आचारंग सूत्र में कहा है कि दीक्षा प्रज्ञावान की होनी चाहिए। अपने मन को काबू में रखने का नाम दीक्षा है।
मुनिश्री ने कहा कि दीक्षा एक ऐसा संस्कार है जो आदमी को योग्यता का विकास कराती है, संस्कार एक जन्म से नहीं, अपितु जन्म जन्मांतर से विकसित होता है। इसलिए कुछ लोग बचपन से ही विरक्त होते जाते हैं, कुछ लोग पूरे जीवन के अंतिम क्षणों तक भी वैराग्य से अछूते रह जाते हैं। जिस व्यक्ति का देह अभिमान नहीं छूटता है वह संन्यास लेने के बाद भी संन्यासी नहीं बन सकता। पहले मन को बदलो, फिर वेश को बदला जाता है, पहले वेश बदल दिया वह खतरा हो जाएगा और वह साधना नहीं कर सकता। व्यक्ति पदार्थ में सुख मानकर बैठा है, सच्चाई है कि पदार्थ में सुख नहीं है। भोग में सुख नहीं है इसलिए वह दुख पा रहा है, दुखी हो रहा है। सुख को बाहर खोज रहा है जबकि सुख भीतर में है। मुनि जिज्ञासु ने कहा कि वैराग्य का जन्म न सुनने से, न पहनने से न देखने से होता है जब चरित्र मोहनीय का क्षयोपशम होता है तब साधुत्व की भावना जागृत होती है।
आज जिंदल हाउस में दीक्षासी विपुल जैन का मंगल भावना समारोह का आयोजन किया गया जिसका शुभारंभ महिला मंडल ने मंगलाचरण द्वारा किया। सभा प्रधान संजय जैन, सुरेंद्र जैन, जे.के. जैन, राजेंद्र अग्रवाल, देवराज, गौरव जैन, उपासिका मधु जैन, सुमन जैन ने मंगल भावना प्रकट की। इस अवसर पर भाई बहनों ने मुमुक्षी के दीक्षा के उपलक्ष्य में त्याग किया। मुमुक्षी के पिता नरेश जैन, भाई विशाल जैन, राजेंद्र अग्रवाल, नत्थूराम जैन, लीलूराम जैन, विनोद जैन, अशोक जैन, अटल बिहारी, विजया जैन, रवि जैन, सारिका जैन, रमेश जैन सहित समाज के अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।