तुलसीदासजी ने क्यों लिखा, ढोल गंवार शूद्र पशु नारी
तुलसीदासजी रामायण में लिखते हैं कि “ढोल गंवार शूद्र पसु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी…।” इस कथन को लेकर बहुत से लोगों ने तुलसीदासजी पर शुद्रों और नारियों के प्रति भेदभाव और असम्मान की भावना रखने का आरोप लगाया। कहा कि वे तो शुद्रों और नारियों को डांटने- फटकराने और प्रताडि़त करने का पक्ष लेते हैं। पर वास्तव में देखें तो तुलसीदास जी नहीं बल्कि इस चौपाई का अपने हिसाब से मतलब निकालने वाले लोग गलत है। दरअसल ताडऩा का अर्थ किसी को देखते रहना, सीख, शिक्षा या संरक्षण देने के अर्थ में भी लिया जाता है। और संतों की व्याख्या के अनुसार तुलसीदास जी यहां यही कहना चाहते हैं कि ढोल, गंवार, शुद्र और नारी को शिक्षा व सीख देने के साथ उनके कार्यों को देखते रहना चाहिए। वरना दोष उनका नहीं, बल्कि उनके संरक्षकों का होगा। जैसे शादी के बाद यदि बहु कोई गलत काम करती है तो उलाहना आज भी उसकी मां को ही दिया जाता है कि उसने अच्छी सीख नहीं दी। इसी तरह ढोल ठीक नहीं बजेगा तो दोष ढोल वादक का होगा। गवांर गवांरुपन दिखाए तो दोष उसके शिक्षक का होगा और शुद्र यानी सेवक सलीका नहीं रखे और पशु भी ठीक नहीं है तो दोष उनके मालिकों का ही माना जाएगा कि उनकी सीख में कोई कमी है। इसलिए तुलसीदासजी की चौपाई का अर्थ यही निकालना चाहिए कि वे ढोल, गवांर, सेवक, पशु व नारी को शिक्षा और संरक्षण पाने का अधिकारी मानते हैं। ना कि प्रताडऩा का।
पीयूष पयोधी, डेमोक्रेटिक फ्रंट, बिहार :
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी
मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि “कोटि विध बध लागहिं जाहू/ आएँ सरन तजउ नहि ताहू” – “जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता” जैसे कथनों के आधार पर अब तक किसी ने तुलसी को ब्राह्मण विरोधी क्यों नही बताया?
किसी ने जैसे उस एक कथन को शास्त्र से निकालना चाहा, वैसे इस एक कथन को क्यों नहीं निकलवाना चाहा।
पहला कथन तो समुद्र जैसे जड़ पात्र के द्वारा तुलसी ने कहलवाया है–“इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।” वह भी ऐसे जड़ के जो गहरी आत्म-ग्लानि में ग्रस्त है।
पर ‘कोटि बिप्र बध’ वाला उद्गार साक्षात ‘प्रभु’ के मुखारविंद से कहते हुए बतलाया है।
संवेदना का यह कौन सा ध्रुवांत है जिसके तहत एक का ‘ताड़न’ भी सहन योग्य नहीं दूसरे का ‘वध’ भी आपत्ति के लायक नहीं लगता।
संवेदना की यह कौन-सी सरहद है जहां ‘एक’ और ‘कोटि’ का भी फर्क समाप्त हो जाता है।
कोटि बिप्र बध तो एक तरह का जेनोसाइड हुआ!
यदि वह एक कोटि( श्रेणी) है तो यह कोटि भी कोटि है। संख्या नहीं, वर्ग। संवेदना के ये कौन से कोष्ठक हैं? करुणा के ये कौन से कारागार हैं?
क्या इनकी पूर्ति यह कहकर हो सकती है कि अन्यत्र ‘द्विज-पद-प्रेम’ की बात कहकर इसका परिहार किया है? तो यह परिहार गुह निषाद केवट शबरी आदि से क्यों नहीं संभव हुआ?
क्या तुलसी को यह आशंका रामचरितमानस समय लिखते समय बहुत पहले से नहीं थी?कि ‘पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास’- इस रचना को सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट सब हंसी उड़ावेंगे।
संवेदना का स्वस्तिक एक गतिमय स्वस्तिक है। उसकी गति चक्रानुगमन करती है और वही विष्णु का सुदर्शन चक्र हो जाता है।
यदि ईश्वर की करुणा जातिभेद करती होती तो ईश्वर भी करुणा का कोटा निर्धारित कर रहा होता। ‘कोटि’ से कोटे तक पहुंचने में वक्त कितना लगता है।
लेकिन तुलसी वर्ग-भेद का लक्ष्य लेकर नहीं चल रहे। उनके रामराज में जो बात सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य है, वह है ‘सब’ शब्द का उपयोग। ‘सब नर करहिं परस्पर प्रीती।’ ‘सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा।’ सब निर्दंभ धर्मरत पुनी/नर अरु नारि चतुर सब गुनी’ / सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी/सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।’ यदि तुलसी की निष्पत्ति किसी पूंजीवादी, किसी वर्ग-वैषम्यवादी, किसी सर्वहारा की तानाशाही वाले समाज की होती तो वे ‘सब’ की यह रट नहीं लगा रहे होते। वे ‘सब उदार सब पर उपकारी’ भी नहीं कह रहे होते।
विप्रों ने इस करोड़ों विप्रों के वध वाली पंक्ति पर आक्षेप नहीं किया तो इसलिए कि उन्हें किसी महाकाव्य को कैसे पढ़ा जाता है, इसका पता था और है।
जिन्हें यह कला नहीं मालूम और पढ़ाई लिखाई की गहराई से जिनका दूर दूर तक वास्ता नहीं, उनकी ही व्यभिचारिणी बुद्धि के तमाशे चलते रहे हैं।
कुछ लोगों ने इस पंक्ति की व्याख्या यों की है कि वह व्याख्या नहीं, सफ़ाई अधिक लगती है। ज़रूरत टीका की है लेकिन दिए स्पष्टीकरण जा रहे हैं। मसलन एक बंधु यह कहते हैं कि तुलसी के समय हिंदी में अंग्रेज़ी का हाइफन नहीं होता था।
इस कारण तुलसी के जिन शब्दों को 5 वर्ग समझा जाता है- ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी वे वस्तुतः तीन वर्ग हैं : एक ढोल, दूसरा गंवार-शूद्र और तीसरा पशु-नारी ये तीनों प्रताड़ना, दंड, पिटाई के योग्य हैं। हर शूद्र पिटाई के लायक नहीं है। पहले एक विशेषण उसे क्वालिफाई करता है हर नारी भी पिटाई के लायक नहीं है। पहले एक विशेषण उसे भी क्वालिफाई करता है। गंवार-शूद्र और पशु-नारी पृथक- पृथक संज्ञाएं नहीं हैं। उनके बीच विशेषण- विशेष्य संबंध है।
यह व्याख्या इन पंक्तियों की कर्कशता को कम करने की और उन्हें सहय बनाने की कोशिश है। एक तरह की नैरोकास्टिंग। लेकिन यह उचित नहीं है, औचित्यीकृत है।
एक पल को इसे मान भी लिया जाए कि बात गंवार-शूद्र के बारे में कही जा रही है तो उससे समाधान जितना नहीं होता, सवाल उतने ज्यादा उठते हैं। प्रतिप्रश्न ये है कि यदि गंवार शूद्र ताड़ना के काबिल हैं तो गंवार ब्राह्मण क्यों नहीं? मनु तो अपमान को ब्राह्मण का पथ्य कहते थे। स्मृतियों में तो यहाँ तक कहा गया कि अर्चित और पूजित ब्राह्मण दुही जाती हुई गाय के समान खिन्न हो जाता है। गंवार ब्राह्मण को तो शास्त्रों में पंक्तिदूषक ब्राह्मण या अपांक्तेय ब्राह्मण के रूप में वर्णित किया गया है। वेदव्यास ने महाभारत के वनपर्व में ‘चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शूद्रादतिरिच्यते’ क्यों कहा था? देवी भागवत में ‘यस्त्वाचार विहीनोऽत्र वर्तते द्विजसत्तमः’ को बहिष्कार योग्य क्यों कहा गया? गंवार-शूद्र ही क्यों, गंवार वैश्य और गंवार- क्षत्रिय को भी ताड़ना मिलनी चाहिए। बात तो आचरण की है।
वाल्मीकि ने यही तो कहा था : ‘कुलीनमकुलीन वा वीरं पुरुषमानिनम् / चारित्र्यमेव व्याख्याति शुचि वा यदि वाशुचिम‘– मनुष्य का चरित्र ही यह बतलाता है कि वह कुलीन है या अकुलीन, वीर है या कायर, अथवा पवित्र है या अपवित्र तो गंवार शूद्र को किसी विशेष ताड़ना का हिस्सा बनाना कवि तुलसीदास का अभिप्रेत नहीं हो सकता था।
यही बात पशु-नारी के संदर्भ में है। क्या तुलसी उत्तरपूर्वी कंबोडिया के जंगलों में अभी जनवरी 2007 में पाई गई उस स्त्री के बारे में बात कर रहे थे जो 6 साल की उम्र में जंगलों में खो गई, 19 साल जंगलों में जानवरों के बीच रही और जब पुलिस ने उसे बरामद किया तो वह पूर्णतः जानवरों जैसी हरकतें कर रही थी ? क्या वे ‘वाइल्ड वोल्फ वूमन’ (जंगली भेड़िया – स्त्रियों) के बारे में प्रतिक्रिया दे रहे थे ? क्या तुलसी अरस्तू की तरह स्त्री को ‘आत्म विहीन’ प्राणी मान रहे थे ? क्या नारी की ‘एनीमलिटी’ पुरुष के पशुत्व से विशेष बदतर है ? तुलसी पशु-पुरुष को प्रताड़ना योग्य क्यों नहीं मानते ? क्या तुलसी ‘पशु-नारी’ के रूप में किन्हीं ‘गुरिल्ला नारियों’ को ताड़ना योग्य बता रहे थे?
स्त्रीवादी लेखिका एलिजाबेथ स्पेलमेन ने ‘सोमाटोफोबिया’ नामक एक मानसिक व्याधि की चर्चा की है जिसमें स्त्री को पशु से समीकृत किया जाता है। क्या तुलसी इस सोमाटोफोबिया के शिकार थे? क्या ‘पशु- नारी’ शब्द अपने आप में ही पशु और मनुष्य के बीच में किसी द्वैत के होने का परिचायक नहीं है? शैव दर्शन में पशुपति की संकल्पना ‘पशु’ की व्याख्या किस तरह से करती है ? क्या अंग्रेजी में स्त्रियों को ‘कैटी’ (Catty ), श्रू (Shrew), काउ (cow), बिच (bitch), डम बन्नी (Dumb bunny), ओल्ड क्रौ (old crow), विक्सन (vixen) कहने वाले अभिधान इसी ‘ पशु-नारी’ के बारे में हैं? जोरू के गुलाम के लिए अंग्रेजी में जो ‘हेन्पेक्ड’ शब्द चलता है वह स्त्री को ‘मुर्गी’ मानता है। ये तो नकारात्मक अर्थों वाले शब्द हैं लेकिन ‘फॉक्सी’ जैसे स्त्री-विश्लेषण भी स्त्री की पशु-पहचान को ही उभारते हैं।
तो तुलसीदास किसी सैक्सुअल हैरासमेंट के समर्थक थे? क्या तुलसीदास भारत में पशु और मनुष्य के बीच सांस्कृतिक रिश्तेदारी से अनभिज्ञ थे? पशु नारी हमेशा ही नकारात्मक हो, यह भी कैसे मान लिया जाए? मेरी वेब का उपन्यास ‘गोन टू अर्थ’ (1917) पढ़िए जिसमें उसने हेज़ेल नामक एक ऐसे स्त्री पात्र की रचना की है जिसमें जंगली निर्दोषिता और ऊर्जस्विता है, जो अपने आसपास के सामाजिक विश्व को जैसे ‘बिलांग’ ही नहीं करती, क्या वह ‘पशु-नारी’ ताड़ना योग्य लगती है ? हेज़ेल पशुओं की मूक वेदना को समझती है और एक छोटी लोमड़ी को बचाने की कोशिश में प्राण भी दे देती है। क्या तुलसी जैसा संवेदनशील कवि ऐसी प्रकृत सहज नारी की प्रताड़ना के बारे में कभी सोच भी सकेगा? जब ‘बैटमैन’, स्पाइडर मैन, एनीमल मैन आदि के रूप में आधुनिक कॉमिक हीरो लोकप्रिय हो रहे हैं तो पशु-नारी में ऐसी क्या कमी है कि आधुनिक व्याख्याकार उसे प्रताड़नीय समझ रहे हैं ?
क्रमशः….
(सहयोग : अश्विनी कुमार तिवारी)