आज रामकृष्ण परमहंस की जयंती है
आज रामकृष्ण परमहंस की जयंती है। उनका जन्म फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को हुआ था। इस वर्ष यह तिथि आज 15 मार्च को है। रामकृष्ण परमहंस मां काली के उपासक और स्वामी विवेकानंद के गुरु थे। उनकी जयंती के अवसर पर रामकृष्ण परमहंस जी से जानते हैं कर्मयोग के बारे में। कर्मयोग यानी कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ योग। अनासक्त होकर किए जाने पर प्राणायाम, ध्यान-धारणादि अष्टांग योग या राजयोग भी कर्मयोग ही है। संसारी लोग अगर अनासक्त होकर ईश्वर पर भक्ति रखकर उन्हें फल (परिणाम) समर्पण करते हुए संसार के कर्म करें तो वह भी कर्मयोग है। फिर ईश्वर को फल समर्पण करते हुए पूजा, जप आदि करना भी कर्मयोग ही है। ईश्वर लाभ ही कर्मयोग का उद्देश्य है। सत्वगुणी व्यक्ति का कर्म स्वभावत: छूट जाता है, प्रयत्न करने पर भी वह कर्म नहीं कर पाता। जैसे, गृहस्थी में बहू के गर्भवती हो जाने पर सास धीरे-धीरे उसके कामकाज घटाती जाती है और जब उसके बच्चा पैदा हो जाता है, तब तो उसे केवल बच्चे की देखभाल के सिवा और कोई काम नहीं रह जाता।
धर्म/संस्कृति देस :
स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक महान संत, विचारक और समाज सुधारक थे। उनका जन्म 18 फरवरी 1836 को पश्चिम बंगाल के कामारपुकुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम खुदीराम और मां का नाम चंद्रमणि देवी था। कहते हैं कि रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं का अनुभव हुआ था। उनके पिता खुदीराम ने एक सपने में देखा कि भगवान गदाधर ने उन्हें कहा की वे स्वयं उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक अतुलनीय आध्यात्मिक संत थे, जिनकी शिक्षाओं ने दुनिया भर में कई लोगों को प्रभावित किया और आज तक ऐसा कर रहे हैं, जो हमारे समकालीन मानव संस्कृति में चिह्नित उनके ईश्वर-केंद्रित जीवन के प्रभावों के रूप में अधिक से अधिक विशिष्ट हैं। स्वामी जी ने स्वयं सभी विभिन्न धर्मों का पालन किया और जीवन भर देवी काली, ईसा मसीह और अल्लाह की पूजा की। उन्होंने ऐसा अनुभव करने और सिखाने के लिए किया कि सभी धर्म सर्वशक्तिमान की एक सामान्य, सर्वोच्च शक्ति की ओर अग्रसर हों!
रामकृष्ण परमहंस का जीवन
रामकृष्ण परमहंस का जन्म पश्चिमी बंगाल के हुगली ज़िले में कामारपुकुर नामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फ़रवरी, सन् 1836 ई. में हुआ था । बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। गदाधर के पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय निष्ठावान ग़रीब ब्राह्मण थे। उनका सुंदर स्वरूप, ईश्वरप्रदत्त संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएँ, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, और सबके ऊपर उनकी अपने माता-पिता के प्रति अगाध भक्ति इन सबने उन्हें पूरे गाँव का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। 12 साल की उम्र तक वो स्कूल गए लेकिन शिक्षा व्यवस्था की कमियों के चलते उन्होंने जाना बंद कर दिया
उन्हें पुराण, रामायण, महाभारत और भगवत पुराण का अच्छा ज्ञान था। उनका कहना था कि सभी इंसानों के भीतर भगवान है लेकिन हर इंसान भगवान नहीं है, इसलिए उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ता है। रामकृष्ण परमहंस ने अपना ज्यादातर जीवन एक परम भक्त की तरह बिताया। वह काली के भक्त थे। उनके लिए काली कोई देवी नहीं थीं, वह एक जीवित हकीकत थी। कोलकाता के पास दक्षिणेश्वर स्थित काली माता के मंदिर में रामकुमार ने उन्हें पुरोहित का दायित्व सौंपा, रामकृष्ण इसमें नहीं रम पाए। कालांतर में बड़े भाई भी चल बसे। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। वे श्रीरामकृष्ण मंदिर की पूजा- अर्चना करने लगे। रामकृष्ण के मन में ईश्वर को देखने का यह विचार आया तो वे ईश्वर को खोजने लगे और उसके लिए तड़पने लगे। उसकी खोज में मंदिर को छोड़कर पास के एक जंगल में जाकर रहने लगे। ईश्वर-दर्शन की बेचैनी और अधीरता बढ़ने लगी थी और उनका व्यवहार असामान्य होने लगा था। उन्हें लगने लगा था कि यदि धर्म और ईश्वर जैसी कोई चीज है, तो उसे मनुष्य की अनुभूति पर भी खरा उतरना चाहिए। उन्हें लगा कि ईश्वर यदि है तो उसे वे अपनी आंखों से देखकर रहेंगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यान मग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गए। लोग उन्हें पागल समझने लगे। चंद्रमणी देवी ने बेटे की अवस्था से चिंतित होकर उनका विवाह शारदा देवी से कर दिया। इसके पश्चात उन्होंने तोतापरी महाराज से संन्यास ग्रहण किया। तब उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस पड़ा।
रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद थे। रामकृष्ण महान योगी, उच्च कोटि के साधक व विचारक थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डॉक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया, तब भी वे मुस्कराते रहते थे। उपचार से रोकने पर भी विवेकानंद उनका इलाज कराते रहे।
अंत में वह दु:खद दिन आ गया। 18 अगस्त 1886 में मात्र पचास वर्ष की आयु में सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनंदघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्वस्वरूप में लीन हो गए।
श्रीरामकृष्ण परमहंस का प्रभाव
50 वर्षों के छोटे जीवन काल के दौरान, स्वामीजी ने एक गहरा आध्यात्मिक प्रभाव डाला और लोगों को धर्मनिरपेक्षता की ओर प्रोत्साहित किया। उन्होंने सिखाया कि सर्वशक्तिमान की एक सर्वोच्च शक्ति है चाहे वह हिंदुओं का भगवान हो या मुसलमानों का अल्लाह, या ईसाइयों का यीशु या सिखों का गुरुजी। वह पूर्ण सत्ता एक और केवल एक ही रहती है, केवल नाम ही धर्म से अलग होता है।
श्रीरामकृष्ण परमहंस जयंती उत्सव
श्री रामकृष्ण परमहंस की जयंती भारत में विशेष रूप से रामकृष्ण मिशन के सभी मुख्यालयों में बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाई जाती है। इस महान गुरु का जन्मदिन धार्मिक त्योहार के रूप में माना जाता है और पूरे देश में मनाया जाता है। विभिन्न धर्मों से संबंधित बड़ी संख्या में लोग इस नायाब संत और एक पवित्र पवित्र व्यक्ति को श्रद्धांजलि देने के लिए एक साथ जुटते हैं, जिनकी शिक्षा लोगों के दिल में रहती है। श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्मदिन भारत में एक और प्रसिद्ध धार्मिक त्योहार है, जो रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय बेलूर मठ में हर साल मार्च के शुरू में मनाया जाता है। यह त्यौहार न केवल हिंदुओं, बल्कि अन्य धर्मों और गैर-भारतीयों के लोगों का भी ध्यान आकर्षित करता है और लाखों लोग महान संत को श्रद्धांजलि देने के लिए वहां जुटते हैं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस जयंती:
स्वामी रामकृष्ण परमहंस जयंती हर साल फाल्गुन शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन मनाई जाती है। 2022 में, स्वामी जी की जयंती मार्च 04 (शुक्रवार) को है।