यकीनन ‘वीर’ ही थे सावरकर
राजनाथ सिंह द्वारा दिया गया बयान कि वीर सावरकर ने मोहनदास करमचंद गांधी के कहने पर माफी मांगी थी अथवा माफी के लिए अंग्रेज़ हुकूमत को पत्र लिखा था। इस बात ने देश भर में अनर्गल राजनैतिक बहस छिड़ गईहाई।टीवी चैनल हों या प्रबुद्ध समाचार पत्र सभी इस बहस को दिखा एसएनए अथवा पढ़ा रहे हैं। जब हम उस काल खंड को दहते हैं तो हैरान होते हैं कि जहां सावरकर को दिन में 10 किलो तेल निकालना होता था और उन्हें यह त पता नहीं था कि दो कोठरी छोड़ कर उनका भाई कैद काट रहा है वह पत्र लिख पाये। कोल्हू में बैल कि जगह जुतना और फिर विमर्श पत्र लिखना क्या ही अचंभा है। अब कॉंग्रेस सावरकर को लेकर इतनी दुविधाग्रस्त क्यों है? रत्नगिरी में रहते हुए सावरर दलित बस्तियों में जाने का, सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और सवर्ण एवं दलित दोनों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय लिया था। जिससे सभी एक स्थान पर साथ साथ पूजा कर सके और दोनों के मध्य दूरियों को दूर किया जा सके। यह भी एक कारण हैं कि कांग्रेस सावरकर की विरोधी बन कर खड़ी हो रही है, वरना 90 के दशक तक तो ऐसा देखने में नहीं आता था। उससे पहले भारत सरकार जब की कांग्रेस सत्तासीन थी ने सावरकर पर डाक टिकट भी जारी किया था। सत्ता के लाले पड़ने पर कॉंग्रेस हमेशा से झूठ सच की राजनीति करती आई है, इस मामले में भी यही हुआ।
राज वशिष्ठ, चंडीगढ़:
मेरे मन में प्रश्न उठता है कि, क्या मोहनदास गांधी कभी पर्यटन के लिए भी कालापानी गए थे? यदि नहीं गए थे तो वीर सावरकर ने गांधी से विमर्श कब किया? साथ ही एक बात और उठती है कि वीर सावरकर को क्या ही अनुमति थी कि वह पत्र व्यवहार कर सकें? क्या हमारी अथवा नयी पीढ़ी को पता भी है कि सावरकर को काला पानी कि सज़ा क्यों हुई थी? क्या उनके उस अपराध के पश्चात भी अंग्रेज़ सरकार उन्हें कागज कलाम पदाने कि हिम्मत जुटा पाती?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजना कोई पुआल में सुई ढूँढने जैसा नहीं है। बस थोड़े से प्रयास की आवश्यकता है।
सबसे पहले पहली बात की सावरकर को सज़ा क्यों हुई?
सावरकर को सज़ा देने की पृष्ठ भूमि अंग्रेज़ सरकार बहुत पहले ही से तय कर चुकी थी। सावरकर की 1901 में प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध का गौरव प्राप्त करती अत्यंत विचारोतेजक पुस्तक ‘1857 का सावतंत्र्य समर’। इस पुस्तक के प्रकाशन की संभावना मात्र से अंग्रेज़ हुकूमत थर्रा गयी थी। फिर भी इस प्स्त्का का गुप्त प्रकाशन एम वितरण हुआ। अंग्रेजों ने कड़ी मशक्कत के बाद इस पुस्तक को नष्ट करने में कोई कोर कसर न छोड़ी।
वीर सावरकर को लंदन में रहते हुए दो हत्याओं का आरोपी बनाया गया। पहली, 1 जुलाई 1909 को मदन लाल ढींगरा द्वारा कर्नल विलियम हट वायली की हत्या जिसका अंग्रेजों ने सूत्रधार वीर दामोदर सावरकर को ठहराया। दूसरी 1910 में हुई नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें साल 1910 में इंग्लैंड में गिरफ्तार किया गया। 8 अप्रैल,1911 को काला पानी की सजा सुनाई गई और सैल्यूलर जेल (काला पानी) पोर्ट ब्लेयर भेज दिया गया। मुक़द्दमा अंग्रेजों द्वारा अङ्ग्रेज़ी अदालत में चलाया गया और बाकी प्रबुद्ध विचाराओं की भांति इन्हे भी काले पानी की सज़ा सुना दी गयी। इन्हें 25 – 25 वर्ष की दो कारावासों का दंड दिया गया था जिसका अर्थ है की वह अपने आगामी जीवन के 50 वर्ष काला पानी में कोल्हू अथवा अंग्रेज़ मुलाजिमों की बग्घी में जुते रहते।
अब दूसरे प्रश्न पर, क्या मोहन दस करमचंद गांधी कभी अंडेमान राजनैतिक पर्यटन के लिए भी गए थे, तो उत्तर है ‘नहीं’। फिर गांधी – सावरकर कहाँ मिले?
गांधी सावरकर पहली बार इंग्लैंड में मिले थे, अक्तूबर 1906 में मिले थे। यह एक बहुत ही संक्षिप्त सी मुलाक़ात थी। दूसरी मुलाक़ात 24 अक्तूबर 1909 को इंडिया हाउस लंदन में हुई। तब तक वीर सावरर किसी भी आक्षेप को नहीं झेल रहे थे। अब यह प्रश्न कहाँ से उठा की गांधी ने सावरकर को दया याचिका डालने की सलाह कब और कहाँ दी?
इस बाबत विक्रम संपत ने अपनी किताब ‘Echoes from a Forgotten Past, 1883-1924’ में लिखा है कि विनायक दामोदर सावरकर के छोटे भाई नारायण दामोदर सावरकर ने 1920 में एक चौंकाने वाला कदम उठाया। उन्होंने अपने भाई के धुर विरोधी विचारधारा वाले मोहनदास करमचंद गांधी को खत लिखा। छह खतों में से यह पहला खत लिखा गया था 18 जनवरी, 1920 को। इसमें उन्होंने सरकारी माफी की योजना के तहत अपने दोनों बड़े भाइयों को जेल से रिहा करवाने के संबंध में मदद व सलाह मांगी थी।
नारायण सावरकर ने अपने पत्र में लिखा था कि कल (17 जनवरी) मुझे भारत सरकार द्वारा जानकारी मिली कि सावरकार बंधुओं को उन लोगों में शामिल नहीं किया गया है, जिन्हें रिहा किया जा रहा है। ऐसे में अब साफ हो चुका है कि भारत सरकार उन्हें रिहा नहीं करेगी। अपने पत्र में उन्होंने महात्मा गांधी से सुझाव मांगा था कि ऐसी परिस्थितियों में आगे क्या किया जा सकता है। इस चिट्ठी का जिक्र, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी के 19वें वॉल्यूम के पेज नंबर 384 पर किया गया है।
नारायण सावरकर की इस चिट्ठी का जवाब महात्मा गांधी ने 25 जनवरी 1920 को दिया था, जिसमें उन्होंने सलाह दी थी कि राहत प्रदान करने की एक याचिका तैयार करें, जिसमें तथ्यों के जरिए साफ करें कि आपके भाई द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह से राजनीतिक था। उन्होंने अपने जवाब में यह भी लिखा कि वह अपने तरीके से इस मामले में आगे बढ़ रहे हैं। गांधी द्वारा दिए गए इस जवाब का उल्लेख कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी के 19वें संस्करण में भी देखा जा सकता है।
अंग्रेजों से माफी मांगने का। इस मामले पर गांधी ने सावरकर को ‘चतुर’ बताते हुए कहा था कि ‘उन्होंने (सावरकर ने) स्थिति का लाभ उठाते हुए क्षमादान की मांग की थी, जो उस दौरान देश के अधिकांश क्रांतिकारियों और राजनीतिक कैदियों को मिल भी गई थी। सावरकर जेल के बाहर रहकर देश की आजादी के लिए जो कर सकते थे वो जेल के अंदर रहकर नहीं कर पाते।’
गांधी जी के इस कथन से इतना तो साफ है कि सावरकर अंग्रेजों के सामने झुके नहीं थे, बल्कि आगे की लड़ाई के लिए चतुराई दिखाई थी। खैर, बात करते हैं सावरकर से जुड़े तमाम पहलुओं की जो उनपर राय बनाने से पहले जानना जरूरी है।