Wednesday, December 25

साल में 12 संक्रांति होती है, जिसमें सूर्य अलग-अलग राशि, नक्षत्र पर विराज होता है. इन सभी संक्रांति में दान-दक्षिणा, स्नान, पुन्य का बहुत महत्व रहता है. मिथुना संक्रांति उनमें से ही एक है. मिथुना संक्रांति से सौर मंडल में बहुत बड़ा बदलाव आता है, मतलब इसके बाद से वर्षा ऋतु शुरू हो जाती है. इस दिन सूर्य वृषभ राशी से निकलकर मिथुन राशी में प्रवेश करता है. जिससे सभी राशियों में नक्षत्र की दिशा बदल जाती है. ज्योतिषों के अनुसार सूर्य में आये इस बदलाव को बहुत बड़ा माना जाता है, इसलिए इस दिन पूजन अर्चन का विशेष महत्व है. देश के विभिन्न क्षेत्र में इसे अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है, साथ ही इसे अलग नाम से पुकारते है.

धर्म/संस्कृति डेस्क, डेमोक्रेटिकफ्रंट॰ कॉम :

‘पुरनूर’ कोरेल,भुवनेश्वर (ओडिशा), 14 जून:

 राजा पर्व, नारीत्व का जश्न मनाने वाला 3 दिवसीय त्योहार सोमवार से पूरे ओडिशा में मनाया जा रहा है. माना जाता है, जैसे औरतों को हर महीने मासिक धर्म होता है, जो उनके शरीर के विकास का प्रतीक है, वैसे ही धरती माँ या भूदेवी , उन्हें शुरुवात के तीन दिनों में मासिक धर्म हुआ, जो धरती के विकास का प्रतीक है. इस पर्व में ये तीन दिन यही माना जाता है कि भूदेवी को मासिक धर्म हो रहे है. चौथे दिन भूदेवी को स्नान कराया गया, इस दिन को वासुमती गढ़ुआ कहते है. पिसने वाले पत्थर जिसे सिल बट्टा कहते है, भूदेवी का रूप माना जाता है. इस पर्व में धरती की पूजा की जाती है, ताकि अच्छी फसल मिले. विष्णु के अवतार जगतनाथ भगवान् की पत्नी भूदेवी की चांदी की प्रतिमा आज भी उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर में विराजमान है.

मिथुना संक्रांति में भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है. उनसे आने वाले जीवन में शांति की उपासना करते है. पर्व के चार दिन शुरू होने के पहले वाले दिन को सजबजा दिन कहते है, इस दिन घर की औरतें आने वाले चार दिनों के पर्व की तैयारी करती है. सिल बट्टे को अच्छे से साफ करके रख दिया जाता है. मसाला पहले से पीस लेती है, क्यूंकि आने वाले चार दिन सिल बट्टे का प्रयोग नहीं किया जाता है.

चार दिनों के इस पर्व में शुरू के तीन दिन औरतें एक जगह इकठ्ठा होकर मौज मस्ती किया करती है. नाच, गाना, कई तरह के खेल होते है. बरगत के पेड़ में झूले लगाये जाते है, सभी इसमें झूलकर गीत गाती है. इस पर्व में अविवाहित भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती है. वे ट्रेडिशनल साडी पहनती है, मेहँदी आलता लगाती है. अविवाहित अच्छे वर की चाह में ये पर्व मनाती है. कहते है जैसे धरती बारिश के लिए अपने आप को तैयार करती है, उसी तरह अविवाहित भी अपने आप को तैयार करती है, और सुखमय जीवन के लिए प्रार्थना करती है.

स्त्रियाँ शुरू के तीन दिन औरतें बिना पका हुआ खाना खाती है, नमक नहीं लेती, साथ ही ये तीन दिन वे चप्पल भी नहीं पहनती है. ये तीन दिन औरतें न कुछ काट-छिल सकती है, न धरती पर किसी तरह की खुदाई की जाती है. पहले दिन भोर के पहले उठ कर, चन्दन हल्दी का लेप लगाकर, सर धोकर नहाया जाता है, बाकि के दो दिन इस पर्व में नहीं नहाते है. चौथे दिन की पूजा की विधि इस प्रकार है –

  • सिल बट्टे में हल्दी, चन्दन, फूलों को पीस कर पेस्ट बनाया जाता है, जिसे सभी औरतें सुबह उठकर अपने शरीर में लगाकर नहाती है.
  • पीसने वाले पत्थर (सिल बट्टे) की भूदेवी मानी जाती है.
  • उन्हें दूध, पानी से स्नान कराया जाता है.
  • उन्हें चन्दन, सिन्दूर, फूल व हल्दी से सजाया जाता है.
  • इनकी पूजा करने के बाद, इस कपड़े के दान का विशेष महत्व है.
  • सभी मौसमी फलों का चढ़ावा भूदेवी को चढ़ाते है, व उसके बाद पंडितों और गरीबों को दान कर देते है.
  • बाकि संक्रांति की तरह इस दिन, घर के पूर्वजों को श्रधांजलि दी जाती है.
  • दुसरे मंदिर में जाकर पूजा करने के बाद, गरीबों को दान दिया जाता है.
  • पवित्र नदी में स्नान किया जाता है.
  • इस दिन विशेष रूप से पोड़ा-पीठा नाम की मिठाई बनाई जाती है. यह गुड़, नारियल, चावल के आटे व घी से बनती है. इस दिन चावल के दाने नहीं खाए जाते है.

उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर में विशेष पूजा का आयोजन होता है, मंदिर को फूल, लाइट से सजाया जाता है. मेलों का आयोजन होता है. देश विदेश से लोग यहाँ पहुँचते है. इस त्यौहार के समय किसी भी तरह के कृषि कार्य नहीं किये जाते है. जैसे हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मासिक धर्म के होने पर औरतों को कुछ काम करने नहीं दिया जाता है, उन्हें आराम दिया जाता है, उसी तरह भूमि को भी पूरी तरह आराम दिया जाता है. भगवान जगन्नाथ के अलावा पुरी मंदिर में भूदेवी की एक चांदी की मूर्ति अभी भी पाई जाती है. तीन दिनों के दौरान महिलाओं को घर के काम से छुट्टी दी जाती है और इनडोर गेम खेलने का समय दिया जाता है. लड़कियां पारंपरिक साड़ी पहनकर सजती हैं और पैर पर अलता लगाती हैं. धरती पर नंगे पांव चलने से सभी लोग परहेज करते हैं. ऐसा माना जाता है कि देवी पृथ्वी या भगवान विष्णु की दिव्य पत्नी पहले तीन दिनों के दौरान मासिक धर्म से गुजरती हैं. चौथे दिन को वसुमती गढ़ुआ या भूदेवी का औपचारिक स्नान कहा जाता है. राजा शब्द राजसवाला (अर्थात् मासिक धर्म वाली महिला) से आया है और मध्ययुगीन काल के दौरान यह त्योहार कृषि अवकाश के रूप में अधिक लोकप्रिय हो गया, जिसमें भूदेवी की पूजा की गई, जो भगवान जगन्नाथ की पत्नी हैं.

इस दौरान सभी मर्द अपने आप को व्यस्त रखने के लिए तरह तरह के खेल प्रतियोगिता का आयोजन करते है. इसमें कब्बडी सबसे प्रचलित है. रात भर नाच गाने का सिलसिला चलता रहता है. शहर की व्यस्त ज़िन्दगी में ये त्यौहार कम ही मनाया जाता है, लेकिन गाँव में तो इस त्यौहार को विशेष रूप से और उत्साह से मनाते है. किसान वर्ग के लिए ये धरती माँ को धन्यवाद करने का विशेष दिन है. रात को लोक नृत्य से सबका मनोरंजन होता है. ये त्यौहार चारों और खुशियाँ व रंग बिखेर देता है, जिसका इंतजार औरतें बहुत चाव से करती है, क्यूंकि इस दौरान उन्हें घर के कामों से छुट्टी भी मिल जाती है.