Tuesday, December 24

अरविंद शर्मा वाराणसी मॉडल तैयार कर सकते हैं या लखनऊ में बैठकर सूबे के बाकी जिलों पर भी नजर रख सकते हैं, लेकिन बीजेपी को लेकर जनता में योगी आदित्यनाथ जैसी खलबली नहीं मचा सकते – न ही वैसा जोश भर सकते हैं जिसकी बीजेपी को यूपी में अभी ही नहीं अगले आम चुनाव तक जरूरत पड़ेगी। कयास तो योगी आदित्यनाथ की कुर्सी पर खतरे के भी लगाये जा रहे थे, लेकिन लगता है पर ये संभावना कम है. वैसे भी लाख दिक्कतों के बावजूद बीजेपी अभी इस स्थिति में तो बिलकुल नहीं है कि उत्तराखंड की तरह यूपी में मुख्यमंत्री बदलने के बारे में सोच सके।

सारिका तिवारी:

यूपी विधानसभा चुनाव में अब महज नौ महीने ही बचे हैं और बीजेपी के लिए यूपी विधानसभा चुनाव जीतने का मकसद सिर्फ सत्ता में वापसी भर नहीं है, बल्कि अगले आम चुनाव के लिए भी मजबूत दावेदारी सुनिश्चित करना भी है। ये बात बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा हाल ही में यूपी के बीजेपी सांसदों के साथ वर्चुअल मुलाकात में भी कह चुके हैं। देश के बाकी सांसदों की ही तरह जेपी नड्डा यूपी मे सांसदों को भी बाहर निकल कर लोगों के बीच जाने और उनकी समस्याएं सुनने और आश्वस्त करने की सलाह दे चुके हैं।

अब योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में वैसे ही पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा के शामिल होने और बड़ी जिम्मेदारी दिये जाने की चर्चा जोरों पर है। ध्यान देने वाली बात ये है कि योगी कैबिनेट में भी अगर ऐसा ही बदलाव होता है तो वो भी मोदी की ही मर्जी से होगी, न कि योगी की पसंद से। भाजपा ऐसी पार्टी है जो सूत्रों पर आधारित जिसके नाम की भी खबरें चलने लगती हैं पार्टी उसे मंत्रीमंडल में शामिल करने का इरादा कर भी रही होती है तो उसका नाम इस अवसर से कट जाता है। ऐसा कई बार हो चुका है आडवाणी और मनोज सिन्हा को कौन भूल सकता है हालांकि ऐसे दांव-पेंच में एके शर्मा जैसी शख्सियत की संभावित जिम्मेदारियों का रास्ता रोकने का कोई साहस नहीं कर सकता। क्योंकि ये बात तो सोलह  आने सही है कि वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी, पसंदीदा और विश्वसनीय हैं।

 सियासी गलियारों में ये कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि दिल्ली का रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर जाता है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक सभी का संबंध उत्तरप्रदेश से रहा है। यहां तक कि जब प्रधानमंत्री बनने की बात आई तो लंबे समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके नरेंद्र मोदी को भी उत्तरप्रदेश का ही रुख करना पड़ा। 90 के दशक में जब राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी की स्थिति डगमगाई तब क्षेत्रीय दलों ने मिलकर दिल्ली की राजनीति में महत्ता हासिल कर ली। ऐसे मे भी उनकी राजनीति में भी प्रधानमंत्री पद के लिए प्रमुखता से उत्तरप्रदेश से ही कई नाम रहे। एक बार फिर बीजेपी के अंदरखाने सियासी गलियारों में घमासान मचा है, जिससे अटकलों का दौर चल पड़ा है।

लेकिन क्या ये सियासी घमासान 2022 को टारगेट करके हो रहा है या फिर 2024 की केंद्रीय राजनीति का प्लॉट तैयार हो रहा है। राजनीति में राजनेता दूर की सोचकर निर्णय लेते हैं. शह-मात का खेल चलता रहता है और अचानक से कोई विजयी की भूमिका में सामने आ जाता है। सियासी चर्चाओं के बीच उत्तर प्रदेश में चुनावी वर्ष की शुरुआत हो चुकी है। जीत कैसे मिले इस पर काम चल रहा है। रणनीतिक तैयारियों के तहत बीजेपी के राष्ट्रीय महामंत्री संगठन बीएल संतोष और यूपी प्रभारी राधामोहन सिंह की रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व के पास पहुंच चुकी है। रिपोर्ट मिलने के बाद राधामोहन सिंह दोबारा लखनऊ का दौरा करते हैं।

राजभवन में मुलाकात के पीछे गहरे मायने

राजभवन पहुंचकर राज्यपाल से मिलते हैं फिर बाहर आकर बताते हैं कि शिष्टाचार मुलाकात थी। उसी दिन वे विधानसभा अध्यक्ष से भी मिलते हैं और उसे पुराने संबंधों के आधार पर की गई मुलाकात बताते हैं। विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित कहते हैं कि दोनों नेताओं में राष्ट्रवाद और प्राचीन इतिहास पर बात हुई है। एक दिन में दो संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों से मुलाकात के गहरे मायने हो सकते हैं। क्या पार्टी सदन में किसी विषम परिस्थिति में आने वाली है। प्रदेश मे अंदरखाने पक रही खिचड़ी के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव 1982 का दौर याद करते हैं और कहते हैं कि 1982 में विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और श्रीपति मिश्र विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे।

सियासत दांव पेंच का खेल

वे उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि बेहमई कांड हो चुका था। कानून-व्यवस्था पर सवाल उठने शुरू हुए थे. डकैतों पर कार्रवाई चल रही थी, इसी बीच वीपी सिंह के भाई की डकैतों ने हत्या कर दी और वीपी सिंह ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था और तब एकदम से विधानसभा अध्यक्ष श्रीपति मिश्र मुख्यमंत्री बना दिए गए थे और बाद मे वीपी सिंह को केंद्रीय राजनीति मे लेकर मंत्री बना दिया गया. वे कहते हैं कि सियासत दांव पेंच के साथ ही संयोगों का खेल भी है जिससे कोई भी नई स्थिति उभरकर सामने आ सकती है जिसके बारे मे आमतौर पर सोचा भी नहीं जा सकता।