भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम का जन्म त्रेता युग में वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर हुआ था। इस बार यह तिथि 14 मई 2021 शुक्रवार को आ रही है। भगवान परशुराम की जन्म स्थली वर्तमान में मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के मानपुर ग्राम में जानापाव नामक पर्वत पर है। जानापाव पर्वत से चंबल समेत सप्तनदियों का उद्गम भी होता है। परशुराम ब्राह्मण वंश के जनक और सप्तऋषियों में से एक हैं। परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका हैं। इन्हें भगवान विष्णु का आवेशावतार कहा जाता है। पौराणिक आख्यानों में वर्णन है किभगवान परशुराम का जन्म छह उच्च ग्रहों के संयोग में हुआ था जिस कारण वे परम तेजस्वी, ओजस्वी, पराक्रमी और शौर्यवान थे। वे माता-पिता के परम आज्ञाकारी पुत्र थे। उन्होंने पिता के कहने पर अपनी ही माता का सिर काट दिया था और पिता से वरदान स्वरूप माता को जीवित करवा लिया था।
धर्म/संस्कृति डेस्क, डेमोक्रेटिकफ्रंट॰कॉम :
सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल में राजाओं की निरंकुशता से जनजीवन त्रस्त और छिन्न-भिन्न हो गया था। दीन और आर्तजनों की पुकार को कोई सुनने वाला नहीं था।
ऐसी परिस्थिति में महर्षि ऋचिक के पुत्र जमदग्नि अपनी सहधर्मिणी रेणुका के साथ नर्मदा के निकट पर्वत शिखर पर जमदग्नेय आश्रम (अब जानापाव) में तपस्यारत थे। उन्होंने पराशक्ति का आह्वान किया, उपासना की तब लोक मंगल के लिए वैशाख शुक्ल तृतीया को पराशक्ति, परमात्मा, ईश्वर का मध्यरात्रि को अवतरण हुआ। आश्रम में उत्साह का वातावरण फैला।ज्योतिष एवं नक्षत्रों की यति-मति-गति अनुसार बालक का नाम ‘राम’ रखा गया। बालक अपने ईष्ट शिव का स्मरण करते हुए ब़ड़ा होने लगा। राम का अपने ईष्ट शिव से साक्षात्कार हुआ। अमोघ शस्त्र परशु (फरसा) और धनुष प्राप्ति के साथ शक्ति अर्जन हेतु माँ पराम्बा, महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी की आराधना का आदेश भी प्राप्त किया।
- परशुराम का नामकरण उनके पितामह अर्थात् दादाजी महर्षि भृगु ने किया था।
- सर्वप्रथम उन्होंने नाम राम रखा था किंतु बाद में शिवजी द्वारा परशु दिए जाने के कारण वे परशुराम कहलाए।
- परशुराम को विष्णु का आवेशावतार कहा जाता है, अर्थात् वे विष्णु के सभी अवतारों में सबसे ज्यादा उग्र हैं।
- परशुराम की आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचिक के आश्रम में हुई थी।
- महर्षि ऋचिक से उन्हें शारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और महर्षि कश्यप से वैष्णव मंत्र प्राप्त हुआ था। इसके बाद वे भगवान शंकर से शिक्षा प्राप्त करने के लिए कैलाश पर्वत चले गए। वहां उन्होंने शंकरजी से अनेक दिव्य अस्त्र और शक्तियां प्राप्त की। शिवजी से उन्हें दिव्य धनुष भी प्राप्त हुआ था जिसे भगवान राम ने तोड़कर सीता स्वयंवर जीता था।
- शंकरजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र और मंत्र कल्पतरू समेत अनेक दिव्य और चमत्कारी मंत्र सिद्धियां प्राप्त हुई थी।
- परशुराम सप्त ऋषियों और सप्त चिरंजीवी में शामिल हैं। वे आज भी पृथ्वी पर सशरीर मौजूद हैं।
- परशुराम शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने द्वापर युग में भीष्म, द्रोण, कर्ण को भी शस्त्र विद्या दी थी।
- परशुराम स्त्रियॉं को शक्तियां देने और नारी सशक्तीकरण के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनुसुइया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा और अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी जागृति अभियान प्रारंभ किया था।
- पुराणों के अनुसार कलयुग के अंत में होने वाले भगवान विष्णु के अंतिम अवतार कल्की अवतार के समय में कल्की के गुरु के रूप में प्रकट होंगे। भगवान परशुराम ने अहंकारी हैहयवंशीय क्षत्रियों का 21 बार नाश किया था।
- वे पृथ्वी पर वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के वाहक थे। भारत के अधिकांश ग्राम भगवान परशुराम द्वारा ही बसाए गए हैं। वर्तमान के कोंकण, गोवा और केरल परशुराम जी की ही देन है।
- भगवान परशुराम पशु-पक्षियों से उन्हीं की भाषा में जीवंत संवाद स्थापित कर लेते थे। खूंखार से खूंखार हिंसक पशु भी उनके सामने आते ही उनसे मित्रवत व्यवहार करने लग जाता था।
परशुधारी परशुराम को शास्त्र विद्या का ज्ञान जमदग्नि ऋषि ने दे दिया था, किंतु शिव प्रदत्त अमोघ परशु को चलाने की कला सीखने के लिए महर्षि कश्यप के आश्रम में भेजा। परशुराम शस्त्र कला में पारंगत होने के बाद गुरु से आशीर्वाद प्राप्त कर पिता के आश्रम लौटे। वहां पिता का सिर ध़ड़ से अलग, आश्रम के ऋषि, ब्राह्मण और गुरुकुल के बालकों के रक्तरंजित निर्जीव शरीर का अंबार प़ड़ा मिला। परशुराम हतप्रभ हो गए। इसी बीच माता की कराह और चीत्कार सुनाई दी। दौ़ड़कर माता के निकट पहुंचे। माता ने 21 बार छाती पीटी।परशुराम ने सब जान लिया कि कार्तवीर्य (सहस्रबाहु) के पुत्र एवं सेना ने तांडव मचाया है। परशुराम वायु वेग से माहिष्मति पहुंचे। उन्होंने कार्तवीर्य की सहस्र भुजाओं को अपने प्रखर परशु से एक-एक कर काट दिया। अंत में शीश भी काटकर धूल में मिला दिया।
इतना ही नहीं, परशुराम का परशु चलता ही रहा और एक-एक अनाचारी को खोज-खोजकर नष्ट कर दिया। परशुरामजी से यह कृत्य लोकहित में ही हुआ है किंतु कतिपय लोगों ने उन्हें आवेशी करार दिया है। परशुरामजी में आवेश का प्रादुर्भाव कभी नहीं हुआ। परिस्थितिजन्य स्थिति में कोमल भी कठोर हो जाता है। परशुरामजी के कोमल मन में आवेश नहीं, कठोरता का प्रादुर्भाव अवश्य होता रहा है।
यदि हम पुराणों का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि ब्राह्मण जाति और सर्व समाज के हितैषी भगवान परशुराम दया, क्षमा, करुणा के पुंज हैं, साथ ही उनका शौर्य प्रताप हम में ऊर्जा का संचार करने में समर्थ है।
आवश्यकता है उनको पूजने की, उनकी आराधना करने की।