क्रोध विवेक को नष्ट करता है : मुनि पीयूष

मनोज त्यागी, करनाल 9 जुलाई :

 उपप्रवर्तक श्री पीयूष मुनि जी महाराज ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मंदिर करनाल से अपने दैनिक संदेश में कहा कि जब क्रोध के आवेश में व्यक्ति क्रूर बन जाता है तो हृदय की पवित्रता उसके भीतर से पलायन कर जाती है। क्रोध के आने पर विद्वान और मूर्ख में कोई अन्तर नहीं रहता। किसी भी प्रतिकूल हालात के कारण क्रोध की उत्पत्ति होती है। प्रतिकूल परिस्थिति का निमित्त कोई भी जड़  तथा चेतन हो सकता है। गहराई तक जाकर विचार करने से मालूम होता है कि अशान्ति जड़ में क्रोध का ही भाव रहता है। उदाहरण के लिए किसी सेवक से कोई हानि हो जाती है, इच्छा के विरुद्ध प्रतिकूल वातावरण सामने आ जाता है या कोई आत्मीय व्यक्ति अपने विरुद्ध चलता है तो मन मे खिन्नता का आना स्वाभाविक होता है। ऐसा इसलिए होता है कि जिससे हम जो चाहते हैं वह जब हमें नहीं मिलता तो हम खिन्न हो उठते हैं। वास्तव में क्रोध इसी कारण से उत्पन्न होता है। दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति के मन में क्रोध का अस्तित्व कम अथवा अधिक रूप में बना रहता है। किसी का क्रोध तीव्र तो किसी का मन्द होता है। किसी का क्रोध दीर्घ काल तक तो किसी का थोड़े समय तक ठहरता है। 

मुनि जी ने कहा कि भले ही क्रोध कैसा भी हो परन्तु वह व्यक्ति के विवेक को नष्ट करता है और उसी अनुपात से उसकी मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक हानि होती है। क्रोध में व्यक्ति को भले-बुरे का ध्यान नहीं रहता जिस कारण वह अकार्य में प्रवृत्ति करने लगता है। क्रोध से आज तक कभी किसी को कोई लाभ नहीं हुआ, न वर्तमान में हो रहा है और न भविष्य में होगा किन्तु क्रोध के वेग को नियन्त्रित कर पाना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं होता। क्रोध से बने बनाए काम बिगड़ जाते हैं, अपने पराए हो जाते हैं, सगे बेगाने हो जाते हैं तथा मित्र शत्रु बन जाते हैं। कार्य को सिद्ध करने वाली बुद्धि होती है और वह क्रोध की अवस्था में मारी जाती है। शान्ति से व्यक्ति बड़े से बड़े  बलवान शत्रु को भी जीत लेता है। समझ-बूझ से ही सारा काम बनता है परन्तु सारी समझ को क्रोध हर लेता है। क्रोध से पराजित व्यक्ति कभी भी सुख नहीं पाता। क्रोधी जीवन सुखी नहीं होता। क्रोध के आवेश में व्यक्ति मानसिक शान्ति नहीं पाता। उसका मन अशान्त रहता है और व्यक्ति सुख का उपभोग नहीं कर पाता। क्रोध शान्ति और सुख में अड़चन डालता है। जिसके हृदय में क्रोध की आग भड़क रही है, वह बिना चिता के ही जीवित जल जाता है। क्रोध से आत्मा स्व और पर को जलाती है, धर्म-अर्थ तथा काम को नष्ट करती है, तीव्र वैर बांधती है और दुर्गतियों में भटकती है। क्रोध की लपटें सीमित न रहकर दूर-दूर की शुभ कार्यवाही को भी नष्ट कर देती हैं। क्रोधी का जीवन बड़ा विचित्र होता है। वह सारे क्रियाकलाप क्रोध के आवेश में करता है। क्रोध के आवेश में जीवन में रहा सारा सुख कपूर की भांति उड़ जाता है इसलिए क्रोध से बचें।

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