Wednesday, December 25

।। शारदा-वंदन ।।

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी! मेरी वाणी को निखार दो॥
कागजों को बोलते, एहसासों का नाम दो,
हंसवाहिनी! मेरी लेखनी सुधार दो॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥

जीत जाए लोकतंत्र, ऎसी तुम कमान दो,
घोटालों की बाढ़ को, अब तो विराम दो।
नेताओं को लाओ तुम, चिंतन की राह पर,
खुदगर्जी छोड़ दे, इतना स्वाभिमान दो॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥

हथियारो के नाम पर, बस कलम हैं मेरी,
इसमें ऐसी स्याही दो, हो लेखनी अमर मेरी।
मान हो मां भारती का, विश्व मानचित्र पर,
राष्ट्र धर्म से बड़ा, कोई भी न धर्म हो ॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥

राष्ट्र की धरोहरे सहेजने का भाव हो,
मौलिक कर्तव्यों का नियमित संदाय हो।
राष्ट्र है महान और महान इसकी सभ्यता,
संस्कृति के संचरण की जीत का प्रमाण दो॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥
कागजों को बोलते एहसासों का नाम दो,
हंसवाहिनी मेरे शब्द को सुधार दो॥

रचनाकारः एडवोकेट भूमिका चौबीसा, उदयपुर (राजस्थान)