भारतीय संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत राज्यपाल को कुछ निश्चित संख्या में विधान परिषद में सदस्यों को मनोनीत करने का संवैधानिक अधिकार हासिल है. मनोनीत एमएलसी कला, साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा बैकग्राउंड वाले व्यक्ति होना जरूरी हैं, तब जाकर अपने विवेक से राज्यपाल सदस्यों को मनोनीत करते हैं.
मुंबई:
महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बने रहने के लिए एमएलसी कुर्सी की आस देख रहे उद्धव ठाकरे के सामने एक नया संकट पैदा हो गया है. मुख्यमंत्री ठाकरे को विधान परिषद सीट पर मनोनीत करने के बजाय राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने प्रदेश की खाली पड़ी 9 एमएलसी सीटों पर चुनाव कराने को लेकर निर्वाचन आयोग को चिठ्ठी लिख दी है. अब इस तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को सदन की सदस्यता हासिल करने के लिए चुनाव आयोग के फैसले की राह देखनी होगी. गवर्नर ने चुनाव आयोग को लिखे पत्र में लिखा है कि कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए देशव्यापी लॉकडाउन के केंद्र के निर्णय के बाद चुनाव टल गया था और अब चूंकि लाकडाउन में कुछ वक्त बाद शिथिलता की तैयारी है, ऐसे में सूबे की खाली पड़ी विधान परिषद सीटों पर चुनाव कराने को लेकर दिशा निर्देश जारी किया जा सकता है.
सीएम उद्धव ठाकरे प्रदेश के दोनों सदनों में से किसी भी सदन के सदस्य अब तक नहीं बन पाए हैं और मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए सीएम ठाकरे को 28 मई से पहले एमएलसी बनने की संवैधानिक बाध्यता है.
गवर्नर के इस फैसले से पहले सीएम ठाकरे के प्रतिनिधि ने गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी से गुरुवार सुबह राजभवन जाकर मुलाकात की. उन्होंने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की एमएलसी की सीट को लेकर राज्यपाल से चर्चा की थी. इस बाबत उद्धव पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मध्यस्थता की गुजारिश कर चुके हैं. उद्धव ठाकरे की एमएलसी सीट का मामला प्रधानमंत्री की चौखट पर भी पहुंचा था.
विधान परिषद की एक सीट पर मनोनीत सदस्य बनाने के लिए महाराष्ट्र की कैबिनेट ने गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी को दो-दो बार अपनी सिफारिशें भेजीं जिस पर राजभवन ने खामोशी ओढ़ रखी थी. महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे ने 28 नवंबर 2019 को एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाकर प्रदेश में महाविकास अघाड़ी की सरकार बनाई थी. इस लिहाज से मुख्यमंत्री कुर्सी पर बने रहने के लिए उद्धव ठाकरे को 28 मई से पहले तक प्रदेश के किसी भी सदन की सदस्यता हासिल करनी होगी.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 164(4) के तहत किसी भी सदन से जुड़े न होने पर कोई भी शख्स 6 महीने तक ही मंत्रिमंडल में मंत्री या मुख्यमंत्री पद पर बना रह सकता है. अब बदले हुए राजनीति माहौल में सीएम उद्धव ठाकरे को 28 मई तक किसी भी एक सदन का सदस्य बनने की संवैधानिक बाध्यता है.
अन्यथा उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ेगी. दरअसल, बीते 26 मार्च को प्रदेश में 9 विधान परिषद सीटों पर चुनाव होना था लेकिन सूबे में कोरोना संक्रमण के बढ़ते खतरे की वजह से चुनाव अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया गया था. उद्धव ठाकरे की मंत्रिमंडल ने पिछली 9 अप्रैल को भी महाराष्ट्र के गवर्नर को सीएम उद्धव ठाकरे को एमएलसी मनोनीत करने की सिफारिशी चिठ्ठी राजभवन को भेजी थी.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत राज्यपाल को कुछ निश्चित संख्या में विधान परिषद में सदस्यों को मनोनीत करने का संवैधानिक अधिकार हासिल है. मनोनीत एमएलसी कला, साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा बैकग्राउंड वाले व्यक्ति होना जरूरी हैं, तब जाकर अपने विवेक से राज्यपाल सदस्यों को मनोनीत करते हैं.
एनसीपी के विधायकों के इस्तीफे की वजह से दो सीटें खाली हुई थीं, जो पिछले साल के विधानसभा चुनावों से ऐन पहले बीजेपी में शामिल हो गए थे. सीएम ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने को लेकर महाराष्ट्र के गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी ने अब तक कोई फैसला नहीं किया है और इन दोनों नॉमीनेटेड एमएलसी के कार्यकाल 6 जून को समाप्त हो रहे हैं. राजभवन की खामोशी को लेकर मुख्यमंत्री ठाकरे अगुवाई वाले गठबंधन महा विकास आघाड़ी की चिंता बढ़ गई थी. अब गवर्नर के फैसले के बाद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने सीएम उद्धव ठाकरे पर तंज कसा है.
फडणवीस ने ट्विटर पर लिखा, ‘कोरोना संकट के दौरान राज्य में राजनीतिक अस्थिरता को रोकने के लिए, हम चुनाव आयोग से सिफारिश करने के माननीय राज्यपाल श्री भगत सिंह कोशियारजी के निर्णय का स्वागत करते हैं. संविधान के सिद्धांतों का पालन करना, माननीय राज्यपाल ने यह निर्णय लिया है. हमें विश्वास है कि केंद्रीय चुनाव आयोग, केंद्रीय गृह मंत्रालय के परामर्श से, विधान परिषद की 9 सीटों के लिए तुरंत चुनाव कराने का निर्णय करेगा.’
इसके साथ ही उन्होंने कहा, ‘यह उन संकेतों का भी पालन करेगा कि राज्यपाल द्वारा नियुक्त सदस्य मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनने चाहिए. माननीय मुख्यमंत्री को हमारी शुभकामनाएं. इससे एक बात स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में, बातचीत के माध्यम से ही एकमात्र रास्ता निकलता है. संवैधानिक पद धारण करने वाले व्यक्ति की अनावश्यक रूप से आलोचना करने का कोई मतलब नहीं है.’