हिंदुओं के कंधों पर धर्मनिरपेक्षता की जो जिम्मेदारी वर्ष 1947 में डाल दी गई थी, हिंदू आज भी उसी जिम्मेदारी का पालन करते आ रहे हैं और बहुसंख्यक होने के बावजूद हिंदू आसानी से ध्रुवीकरण का शिकार नहीं होते. जबकि मुसलमानों के बीच ये ट्रेंड देखा जाता है कि जब भी उन्हें किसी पार्टी की नीतियों से खतरा लगता है तो वो उसकी विरोधी पार्टी को चुनाव में भारी अंतर से जिता देते हैं. अब आप ये सोचिए कि अगर मोहम्मद अली जिन्ना का 14 सूत्रीय कार्यक्रम आज के भारत में लागू होता तो स्थिति क्या होती?
तब ऐसी सीटों पर शायद हिंदुओं को वोटिंग का अधिकार भी नहीं होता. मुसलमान अपनी सीटों पर अपना उम्मीदवार चुनते जबकि हिंदू धर्मनिरपेक्षता को जिताने के लिए वोट डालते. दुनिया में करीब 50 देश ऐसे हैं जिनकी बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है. इनमें से करीब 20 देश खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं लेकिन इनमें से भी ज्यादातर देशों में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ नाम की है. इस्लाम में मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की कोई बात नहीं की गई है. अरबी भाषा में धर्मनिरपेक्षता जैसा कोई शब्द नहीं है.इसका कारण शायद ये है कि इस्लाम राजनीति और धर्म को अलग करके नहीं देखता है. जबकि साधारण भाषा में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है राज्य का धर्म से दूर रहना. यानी सभी धर्मों के प्रति तटस्थ बने रहना.लेकिन दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों में सरकारें खुद को धर्म से अलग नहीं रखतीं. इसलिए दुनिया के लगभग किसी भी इस्लामिक देश में कोई गैर मुस्लिम व्यक्ति राष्ट्र अध्यक्ष बनने का सपना भी नहीं देख सकता है.
दिल्ली चुनाव के नतीजे आने के बाद हमारे अंतरराष्ट्रीय सहयोगी चैनल WION ने दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग से बात की थी.नजीब जंग का कहना था कि भारत अपनी बहुसंख्यक आबादी की वजह से धर्मनिरपेक्ष है. ना कि अल्पसंख्यक आबादी की वजह से. Pew Research Center के मुताबिक 2050 तक भारत में मुस्लिम आबादी 30 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी और तब भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश होगा लेकिन समस्या मुसलमान आबादी का बढ़ना नहीं है. समस्या ये है कि भारत के मुसलमानों का तेजी से वहाबी करण किया जा रहा है. यानी उन्हें कट्टर इस्लाम की तरफ मोड़ा जा रहा है. इस्लाम के कट्टर रूप को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले विकास की नहीं बल्कि शरिया की बात करते हैं. बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले शहरों के शरियाकरण की शुरुआत सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई विकसित देशों में भी हो चुकी है. ऐसा ही एक देश ब्रिटेन है.ब्रिटेन ने ही आज़ादी से पहले भारत के हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने की कोशिश की थी लेकिन आज ब्रिटेन के ही कई शहर ऐसे हैं जहां मुस्लिमों की आबादी मूल निवासियों से ज्यादा होने लगी है.
ब्रिटेन का बर्मिंघम (Birmingham) भी एक ऐसा ही शहर बन चुका है.जहां कुछ वर्षों में मुसलमानों की संख्या मूल निवासियों से ज्यादा हो जाएगी. बर्मिंघम में 200 देशों से आए लोग रहते हैं.लेकिन इनमें बड़ी संख्या मुस्लिम अप्रवासियों की है. अमेरिकी मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक बर्मिंघम में कई ऐसे नो गो जोन बन चुके हैं, जहां गैर मुस्लिमों का जाना प्रतिबंधित है. इस रिपोर्ट के मुताबिक बर्मिंघम शहर ब्रिटेन में जेहादी विचारधारा की राजधानी बन गया है. बर्मिंघम के कई इलाके ऐसे हैं जहां 70 प्रतिशत से भी ज्यादा मुस्लिम आबादी रहती है. इन इलाकों में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है. ब्रिटिश मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन में जेल की सजा भुगत रहे 250 आतंकवादियों में से 26 का रिश्ता बर्मिंघम से ही था.
बर्मिंघम का प्रतिनिधित्व 10 सांसद करते हैं जिनमें से 3 मुस्लिम हैं. बर्मिंघम में भी तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीति का हाल भारत के कई राज्यों जैसा ही है. इसलिए ब्रिटेन का जो शहर कभी विकास के लिए जाना जाता था, वो अब कट्टर इस्लाम और जेहादी विचरधारा का केंद्र बन गया है. कुल मिलाकर सिर्फ 60 वर्षों में बर्मिंघम विकास के केंद्र से कट्टर इस्लाम के केंद्र में बदल गया और अब वहां की पूरी डेमोग्राफी बदलने लगी और वहां के बहुसंख्य अंग्रेज़ कुछ ही वर्षों में अल्पसंख्यक बन जाएंगे.
तस्वीर सिर्फ दिल्ली और बर्मिंघम की ही नहीं बदल रही बल्कि हमारे देश की राजनीतिक तस्वीर भी तेज़ी से बदल रही है. इसलिए अगला विश्लेषण शुरू करने से पहले हम आपको एक तस्वीर दिखाना चाहते हैं. ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल है. इस तस्वीर में दो राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्न दिख रहे हैं.कांग्रेस का चुनाव निशान हाथ.और आम आदमी पार्टी का चुनाव निशान झाड़ू.लेकिन, तस्वीर में जो संदेश दिया गया है, वो ये है कि…कांग्रेस का हाथ अपनी पहचान खो चुका है और ये हाथ आखिरकार अपना रूप बदलकर झाड़ू में तब्दील हो चुका है.
तो क्या ये मान लिया जाए कि कांग्रेस का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह गया है और कांग्रेस अब सिर्फ आम आदमी पार्टी के भरोसे है? हमने जो सवाल उठाया है, वो खुद कांग्रेस के नेता भी सार्वजनिक तौर पर उठा रहे हैं. कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता, दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने ट्विटर पर कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को जो जवाब दिया है, उस पर आपको ध्यान देना चाहिए.
चिदंबरम ने दिल्ली चुनाव के नतीजों पर खुशी जताते हुए कहा था कि दिल्ली के लोगों ने AAP को जिता दिया और बीजेपी के खतरनाक एजेंडे को हरा दिया.इस पर शर्मिष्ठा मुखर्जी ने चिदंबरम से पूछा है कि क्या कांग्रेस ने बीजेपी को हराने की ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय दलों को सौंप दी है ? शर्मिष्ठा का सवाल है कि कांग्रेस पार्टी AAP की जीत पर खुश होने के बदले अपनी हार की चिंता क्यों नहीं करती है और ऐसे में क्यों ना प्रदेश कांग्रेस कमेटियों को बंद कर दिया जाए?
दरअसल कांग्रेस लगातार दूसरी बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपना खाता नहीं खोल पाई है.यानी पार्टी का एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया.इतना ही नहीं, पिछले चुनावों से दिल्ली में कांग्रेस का वोट शेयर भी लगातार कम होता गया और AAP का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ता गया. जो तस्वीर हमने आपको शुरुआत में दिखाई थी, वो अब आंकड़ों के साथ देखिए.कांग्रेस को वर्ष 2008 में दिल्ली में 40 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि ये वोट शेयर घटते-घटते इस चुनाव में करीब 4 प्रतिशत पर पहुंच गया. दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने पिछले तीन विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया.और इस चुनाव में करीब 53 फीसदी वोट हासिल किए हैं. कहा ये भी जा रहा है कि AAP को जो वोट मिले हैं, वो कांग्रेस के ही वोट हैं.यानी कांग्रेस के पंजे ने जो ताकत खोई है, वो ताकत AAP की झाड़ू को ही मिली है.
कांग्रेस इस देश की सबसे पुरानी पार्टी है, उसका जन्म 1885 में हुआ था.जबकि आम आदमी पार्टी का जन्म 2012 में हुआ.देखा जाए तो कांग्रेस उम्र में AAP से 127 साल बड़ी है.लेकिन, ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने खुद से 127 वर्ष छोटी पार्टी के आगे सरेंडर कर दिया है.AAP को अगर दिल्ली की राजनीति का सबसे सफल startup माना जाए तो ये भी कहा जा सकता है कि AAP ने दिल्ली में अब कांग्रेस को मर्ज कर लिया है.