साभार DNA ज़ी न्यूज़
25 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी यानी आपातकाल लगाने की घोषणा की थी. आज़ाद भारत में इमरजेंसी के 21 महीनों के दौरान संवैधानिक अधिकारों को कुचल कर मनमाने ढंग से सत्ता चलाई गई. 25 जून 1975 को Doctor भीम राव अंबेडकर के लिखे संविधान की कीमत…एक साधारण किताब जैसी हो गई थी. इस तारीख़ को गांधीवाद की माला जपने वाली कांग्रेस ने महात्मा गांधी के आदर्शों और उसूलों की हत्या कर दी थी. देश एक ऐसे अंधेरे में डूब गया था, जहां सरकार के विरोध का मतलब था जेल. ये वो दौर था जब अपने अधिकारों को मांगने के लिए भी जनता के पास कोई रास्ता नहीं बचा था, क्योंकि अखबारों में वही छपता था, जो सरकार चाहती थी. रेडियो में वही समाचार सुनाई देते थे, जो सरकार के आदेश पर लिखे जाते थे.
25 जून को इमरजेंसी के 44 वर्ष पूरे हो जाएंगे. भारत में कम से कम दो पीढ़ियां ऐसी हैं, जो इमरजेंसी के बाद पैदा हुईं. और उनमें से सबसे युवा पीढ़ी को तो शायद इमरजेंसी के बारे में पता ही नहीं होगा. इसलिए, हम DNA में इमरजेंसी का विश्लेषण करने वाली एक सीरीज़ शुरू कर रहे हैं. जिसमें हम हर रोज़ आपको इमरजेंसी की अनुसनी कहानियां बताएंगे…ताकि हमारे हर उम्र के दर्शक इसके बारे में अच्छी तरह समझ सकें.
इमरजेंसी क्यों लगाई गई? इसके पीछे इंदिरा गांधी की मंशा क्या थी? इमरजेंसी को लगाने से पहले देश में किस तरह का माहौल था? इसकी जानकारी हम आपको आगे देंगे, लेकिन उससे पहले आपको ये बताते हैं कि आखिर इमरजेंसी होती क्या है? भारतीय संविधान में तीन तरह की इमरजेंसी का ज़िक्र है…
संविधान के Article 352 के तहत National emergency का प्रावधान है. इसे तब लगाया जाता है, जब देश की सुरक्षा को बाहरी आक्रमण से ख़तरा हो. संविधान के Article 356 के तहत State Emergency का प्रावधान है. इसे तब लगाया जाता है, जब राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल हो गई हो. इस इमरजेंसी को राष्ट्रपति शासन या President Rule भी कहा जाता है. और संविधान के Article 360 के तहत Financial emergency का प्रावधान है. इसे तब लगाया जाता है, जब देश की वित्तीय स्थिरता को ख़तरा हो.
भारत में National emergency यानी राष्ट्रीय आपातकाल तीन बार लगाया गया. पहली बार 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान, दूसरी बार 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान. और तीसरी बार 1975 में इंदिरा गांधी के शासनकाल में. 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आंतरिक गड़बड़ियों की आशंका को आधार बनाकर आपातकाल लगा दिया था. इसे एक तानाशाही फैसला कहा जाता है, क्योंकि देश में इमरजेंसी लगाने के आदेश पर कैबिनेट की मंज़ूरी के बिना ही राष्ट्रपति के हस्ताक्षर ले लिए गए थे. अगली ही सुबह विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को जेल के अंदर डाल दिया गया था.
देश में जो भी सरकार की आलोचना कर रहा था उसे गिरफ्तार कर लिया गया था.
आपातकाल में Maintenance of Internal Security Act यानी मीसा के तहत किसी को भी अनिश्चितकाल के लिए गिरफ़्तार कर लिया जाता था और उसे अपील करने का भी अधिकार नहीं था. इंदिरा गांधी ने देश के नागरिकों के सभी मूलभूत संवैधानिक अधिकार छीन लिए थे. लोकतंत्र में जनता ही भगवान है. लेकिन इंदिरा गांधी ने खुद को लोकतंत्र का भगवान समझ लिया था. इसलिए अपनी तानाशाही को बचाये रखने लिए उन्होंने इमरजेंसी लगा दी. इसकी वजह समझनी भी ज़रूरी है.
1971 का चुनाव जीतने के बाद अगले 3 वर्षों में इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कम होने लगी. सरकारी नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था बदहाल हो गई. भ्रष्टाचार और महंगाई ने लोगों की ज़िंदगी मुश्किल कर दी थी. महंगाई से परेशान सरकारी कर्मचारी वेतन बढ़ाने की मांग कर रहे थे और छात्र भी हालात से परेशान होकर आंदोलन करने लगे.
उस वक्त तमिलनाडु को छोड़कर देश के हर राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. लोगों का गुस्सा कांग्रेस सरकारों के प्रति बढ़ता जा रहा था. इसी बीच छात्र संगठनों ने भी आंदोलन तेज़ कर दिया था.
विपक्ष के सभी नेता एकजुट होकर इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग करने लगे. इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ देश भर में हड़ताल, प्रदर्शन, अनशन और आंदोलनों का दौर शुरू हो गया. 1974 में जार्ज फर्नांडिस के साथ करीब 17 लाख रेलवे कर्मचारी 20 दिनों तक हड़ताल पर चले गये. फर्नांडिस उस समय सोशलिस्ट पार्टी के चेयरमैन और ऑल इंडिया रेलवे मैंस फेडरेशन के अध्यक्ष थे. 1974 में इंदिरा गांधी की सरकार ने हड़ताल को गैरक़ानूनी क़रार देते हुए हज़ारों कर्मचारियों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया.
इस फैसले के बाद कर्मचारी और मज़दूर इंदिरा गांधी से नाराज़ हो गए. लेकिन इमरजेंसी लगाने की आख़िरी वजह बना 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट को ऐतिहासिक फैसला, जिसमें रायबरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द कर दिया था…और उन्हें भ्रष्ट तरीकों से चुनाव लड़ने का दोषी ठहरा दिया था. आज आपको इस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बारे में भी जानना चाहिए. जिसकी कहानी 1971 से शुरू होती है. वर्ष 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी, रायबरेली से लोकसभा चुनाव जीती थीं.
लेकिन इंदिरा गांधी की इस जीत को उनके विपक्षी उम्मीदवार राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी. राज नारायण संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे. वो अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त थे कि नतीजे घोषित होने से पहले ही उनके समर्थकों ने विजय जुलूस निकाल दिया था.
लेकिन जब परिणाम घोषित हुआ तो राज नारायण चुनाव हार गए. नतीजा आने के बाद राज नारायण ने इसके ख़िलाफ़ कोर्ट में अर्ज़ी दी. उन्होंने ये अपील की थी कि, इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है, इसलिए ये चुनाव निरस्त कर दिया जाए. इंदिरा गांधी पर ये आरोप थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय के एक सीनियर अधिकारी यशपाल कपूर को अपना चुनावी एजेंट बनाया था, जबकि वो एक सरकारी कर्मचारी थे.
इसके अलावा उन्होंने ने भारतीय वायु सेना के विमानों का दुरुपयोग किया और रायबरेली के कलेक्टर और पुलिस अधिकारियों को अपने चुनाव के लिए इस्तेमाल किया. इंदिरा गांधी पर ये आरोप भी था कि चुनाव जीतने के लिए वोटरों को कंबल और शराब भी बंटवाई गई थी. यानी आप आज के विश्लेषण से ये भी जान सकते हैं कि चुनाव जीतने के लिए शराब और दूसरे सामान बांटने का फॉर्मूला इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक में ही खोज लिया था. मुक़दमे की सुनवाई के दौरान इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल करने वाले आरोप सही साबित हुए.
इसी आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया और उनके चुनाव को रद्द कर दिया. इस फैसले में अगले 6 वर्षों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया.
ये इंदिरा गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका था… उन्होंने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. 25 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के Vacation Judge वी आर कृष्णा अय्यर ने अपने फैसले में कहा कि इंदिरा गांधी को संसद में वोट का अधिकार नहीं है…पर वो अगले 6 महीने के लिए प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर राजनीतिक हमले तेज़ कर दिए. 25 जून 1975 को ही दिल्ली के रामलीला मैदान में देश के वरिष्ठ राजनेता जयप्रकाश नारायण की रैली हुई और उस रैली में एक नारा दिया गया था- “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”…..आपने भी ये नारा ज़रूर सुना होगा. लेकिन ये सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता थी.
कहा जाता है कि जयप्रकाश नारायण की रैली को रोकने के लिए भी इंदिरा गांधी ने कई कोशिशें की. दिल्ली की रामलीला मैदान में रैली करने के लिए जयप्रकाश नारायण को Flight से कलकत्ता से दिल्ली आना था लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फ्लाइट को कैंसिल करवा दिया. इसके बावजूद वो दिल्ली पहुंच गये. इस रैली में करीब तीन लाख लोगों की संख्या देखकर इंदिरा गांधी घबरा गईं. इसके बाद उन्होंने तुरंत इमरजेंसी लगाने का फैसला ले लिया.
वक़्त बदलने देर नहीं लगती. वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ने लोकसभा को भंग कर के मध्यावधि चुनाव कराए थे. वो भारी बहुमत से चुनकर सत्ता में आई थीं. 1971 में कांग्रेस ने लोकसभा की 352 सीटें जीती थीं. इसके बाद दिसंबर 1971 में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर इंदिरा गांधी अपनी राजनीति के शिखर पर पहुंच गई थीं. लेकिन, सत्ता से चिपके रहने के इंदिरा गांधी के लालच ने देश को इस अंधकार में झोंक दिया. इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद इंदिरा गांधी इस्तीफ़ा देकर किसी और को प्रधानमंत्री बना सकती थीं और ये लड़ाई क़ानूनी तरीक़े से लड़कर दोबारा सत्ता हासिल कर सकती थीं. लेकिन, उन्होंने गांधी परिवार से बाहर के किसी सदस्य को प्रधानमंत्री बनाने के विकल्प पर काम नहीं किया और उसका नतीजा इमरजेंसी के तौर पर देश ने भुगता.
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी वाली तानाशाही के पीछे एक पूरी टीम काम कर ही थी. इसमें दो तरह के लोग थे. एक वो जो इमरजेंसी को लागू करने की संवैधानिक रणनीति तैयार कर रहे थे. आप इन्हें इमरजेंसी के स्क्रिप्ट राइटर भी कह सकते हैं. इनमें पहला नाम है
सिद्धार्थ शंकर रे– जो उस वक्त पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे. माना जाता है इमरजेंसी का आइडिया सिद्धार्थ शंकर रे ने ही इंदिरा गांधी को दिया था. सिद्धार्थ शंकर रे एक मशहूर वक़ील थे और संविधान के जानकार माने जाते थे. इमरजेंसी लगाने से पहले इंदिरा गांधी ने सिद्धार्थ शंकर रे को कोलकाता से दिल्ली बुलाया था.
इसके बाद 25 जून को रात 11 बजे इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे राष्ट्रपति भवन गए. जहां इन दोनों ने इमरजेंसी की घोषणा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर कराए. इस तरह, सिद्धार्थ शंकर रे ने संविधान की अपनी जानकारी का इस्तेमाल देश को आपातकाल के अंधकार में झोंकने के लिए किया.
इमरजेंसी के दूसरे बड़े किरदार का नाम है- तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद. राष्ट्रपति पद के लिए फख़रुद्धीन अली अहमद के नाम को इंदिरा गांधी ने ही आगे बढ़ाया था. शायद यही वजह थी कि फखरुद्दीन अली अहमद ने विरोध का एक भी शब्द कहे बिना …संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए.
आधी रात को इमरजेंसी के पेपर पर राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर पर एक कार्टून भी बना था, जो पूरी दुनिया में चर्चित हो गया. इसमें फख़रुद्दीन अली अहमद अपने बाथटब में लेटे हुए इमरजेंसी के पेपर पर साइन कर रहे हैं और ये कह रहे हैं कि बाक़ी के कागज़ों पर साइन लेने के लिए थोड़ा इंतज़ार करें. इस कार्टून से आप इंदिरा गांधी की सत्ता की शक्ति और तानाशाही का अंदाज़ा लगा सकते हैं.