भाजपा अपना दक्षिणदुर्ग कैसे बचा पाएगी?
विधानसभा चुनावों में प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी भाजपा को एक बार फिर से कर्णाटक में अपना परचम लहराने की उम्मीद है। गांधी-देवेगौड़ा गठबंधन में हमेशा ही अविश्वास की स्थिति, इस विचार को बल देती है। गणित और भी हैं…..
नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव 2019 में दूसरे चरण का मतदान 18 अप्रैल को हो रहा है. दूसरे और तीसरे चरण में दक्षिण के एक महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक में वोटिंग होनी है. दक्षिण में यही इकलौता राज्य है जहां बीजेपी न सिर्फ अपने दम पर सरकार बना चुकी है, बल्कि यह दक्षिण में उसका प्रवेश द्वार कहलाता है. पिछले साल मई में यहां विधानसभा चुनाव हुआ था जिसमें बीजेपी, कांग्रेस और एच डी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्युलर अलग-अलग लड़े थे. उस समय बीजेपी बहुमत से मामूली अंतर से चूक गई और कांग्रेस जेडीएस ने मिलकर सरकार बना ली. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जेडीएस गठबंधन में चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन गठबंधन के बावजूद बीजेपी को उम्मीद है कि कर्नाटक का उसका गढ़ बचा रहेगा.
इसकी एक वजह तो यह है कि कर्नाटक में बीजेपी न सिर्फ इस विधानसभा चुनाव में हारी बल्कि पिछला विधानसभा चुनाव भी हारी थी, लेकिन विधानसभा हारने के बावजूद लोकसभा में उसकी ताकत कम नहीं हुई. बीजेपी को लोकसभा 2014 में कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें मिली थीं. इससे पहले जब 2004 और 2009 में देश में कांग्रेस की सरकार बनी तब भी बीजेपी को यहां क्रमश: 18 और 19 लोकसभा सीटें मिलीं. यानी खराब दौर में भी बीजेपी का यह गढ़ कायम रहा.
लेकिन सवाल यह है कि गठबंधन के बावजूद गढ़ कैसे बचेगा. ऐसे में 2014 में हुए लोकसभा चुनाव परिणाम का विश्लेषण करें, तो कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन विरोधाभासी असर डालता नजर आएगा. एक तरफ यह गठबंधन के वोट बैंक में खासी बढ़ोतरी दिखाएगा, तो दूसरी तरफ सीटों का इजाफा न के बराबर होगा.
क्या है कर्नाटक का लोकसभा का गणित
लोकसभा में कर्नाटक से 28 सीटें आती हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां बीजेपी को 17, कांग्रेस को 9 और जेडीएस को 2 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. तब बीजेपी को 43.37 फीसदी, कांग्रेस को 41.15 फीसदी और जेडीएस को 11.07 फीसदी वोट मिले थे. अगर कांग्रेस और जेडीएस के वोट जोड़ लें तो यह 52 फीसदी से अधिक हो जाता है.
पिछले लोकसभा चुनाव का परिणाम देखें, तो पता चलता है कि कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से सिर्फ मैसूर इकलौती लोकसभा सीट है, जहां अगर जेडीएस और कांग्रेस साथ आते तो बीजेपी के हाथ से यह सीट निकल जाती.
जेडीएस की इलाकाई ताकत बनी गठबंधन की कमजोरी
देखने में यह अजीब लग सकता है कि 52 फीसदी वोट पाने वाला गठबंधन बीजेपी को इतना कम नुकसान कैसे पहुंचा रहा है. इसे आंकड़ों से समझने से पहले जरा एक उदाहरण से समझें. कर्नाटक में जेडीएस मुख्य रूप से मैसूर और आसपास के इलाके की पार्टी है और उसका कोर वोटर वोक्कालिगा है. जेडीएस अपने कोर वोटर के साथ मुस्लिम वोटर को मिलाकर जीत हासिल करती हैं. जब इसका मुस्लिम वोटर कहीं और चला जाता है तो यह धरातल पर आ जाती हैं.
जेडीएस बीजेपी से लड़ती ही नहीं तो हराएगी कैसे
जेडीएस के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि वह अपने प्रभाव वाले इलाके में कांग्रेस से ही मुकाबला करती है. दिलचस्प बात यह है कि इन इलाकों में बीजेपी का खास असर नहीं है. यानी अगर गठबंधन न हो तो इन इलाकों की सीटें कांग्रेस और जेडीएस के बीच बंटेंगी. वहीं गठबंधन हो गया तो दोनों पार्टियां राजीखुशी यही सीटें आपस में बांट लेंगी. चूंकि बीजेपी इस इलाके में है ही नहीं इसलिए उसे नुकसान होने का खास सवाल नहीं उठता.
उधर, जहां बीजेपी मजबूत है, वहां जेडीएस का मामूली असर है. इन इलाकों में जेडीएस के पास निर्णायक वोट नहीं है. ऐसे में गठबंधन होने के बावजूद वह बीजेपी से लड़ने में कांग्रेस की मदद नहीं कर सकती. यहां जो करना है कांग्रेस को अपने दम पर करना है.
9 लोकसभा सीट पर जेडीएस का असर, सीधी लड़ाई कांग्रेस से
पिछले लोकसभा चुनाव में कर्नाटक की 28 में से जो 17 सीटें बीजेपी ने जीतीं, उनमें मैसूर सीट पर बीजेपी को 43.45 फीसदी, कांग्रेस को 40.73 फीसदी और जेडीएस को 11.95 फीसदी वोट मिले थे. यहां कांग्रेस और जेडीएस के वोट मिला लें तो कांग्रेस यह सीट बीजेपी से छीन सकती है. अगर बीजेपी की जीती बाकी सीटें देखें तो शिमोगा में जेडीएस को 21.49 फीसदी वोट मिले थे. यहां भी कांग्रेस और जेडीएस के कुल वोट मिलाकर बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा के वोटों का मुकाबला नहीं कर पाते. बीजेपी की जीती बाकी सीटों में जेडीएस कहीं भी इतने वोट नहीं पा सकी, कि उन्हें कांग्रेस के वोटों में जोड़ दिया जाए तो कांग्रेस जीत जाए.
जेडीएस ने जिन सीटों पर अच्छे वोट पाए वे थीं- चित्रदुर्ग, तुमकुर, बेंगलुरू रूरल, चिक्कबालपुर और कोलार. लेकिन ये सारी सीटें पिछले चुनाव में कांग्रेस ने ही जीती थीं. यानी इस सीटों पर गठबंधन का वोट तो बहुत बढ़ जाएगा, लेकिन सीटों की संख्या वहीं रहेगी. पिछले चुनाव में जेडीएस ने दो सीटें जीती थीं- हासन और मांड्या, लेकिन इन सीटों पर भी उसने बीजेपी नहीं, कांग्रेस को हराया था. इन सीटों पर बीजेपी का वोट इतना कम है कि वह कहीं रेस में ही नहीं है. इस तरह देखा जाए तो जेडीएस के प्रभाव वाली 9 में से 8 सीटें पहले ही गठबंधन के पास हैं. ले-देकर मैसूर ही बचती है, जिसका परिणाम गठबंधन बदलेगा.
खिसकता वोट बैंक है बीजेपी की असली चिंता
अब तक के विश्लेषण से इतना साफ है कि गठबंधन से वोट तो खूब बढ़ेंगे, लेकिन सीटें नहीं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बीजेपी को लोकसभा में कर्नाटक से झटका लगने की कोई आशंका नहीं है. दरअसल 2014 लोकसभा चुनाव में 43.37 फीसदी वोट पाने वाली बीजेपी 2018 के विधानसभा चुनाव में महज 36 फीसदी वोट पा सकी. इस तरह चार साल में बीजेपी ने 7 फीसदी से अधिक वोट गंवा दिया है.
बीजेपी के लिए सबसे बड़ी तकलीफ यह है कि यह वोट उसने कांग्रेस के हाथों गंवाया है. यानी बीजेपी के प्रभाव वाले इलाकों में जब कांग्रेस बीजेपी आमने-सामने आएंगी तो कांग्रेस 2014 की तुलना में बेहतर स्थिति में होगी. दूसरी तरफ कांग्रेस का वोट भी लोकसभा 2014 के 41.15 फीसदी से घटकर 2018 में 38 फीसदी रह गया है. लेकिन कांग्रेस के लिए राहत की बात यह है कि उसने अपना वोट बीजेपी नहीं, जेडीएस के हाथ गंवाया है.
जेडीएस को लोकसभा में 11 फीसदी वोट मिला था जो विधानसभा चुनाव में बढ़कर 18 फीसदी हो गया. यानी कांग्रेस जो गंवाएगी वह अपनी दोस्त जेडीएस के लिए गंवाएगी यानी कुल मिलाकर कोई घाटा नहीं है. जेडीएस के साथ एक बात और है कि क्षेत्रीय पार्टी होने के कारण हर बार विधानसभा में उसका वोट बढ़ जाता है और लोकसभा में घट जाता है. इसीलिए विधानसभा में वह 40 सीट तक पहुंच जाती है, जबकि लोकसभा में दो सीट से ऊपर नहीं बढ़ पाती.
ऐसे में यह उलझा हुआ गठबंधन बीजेपी के किले को वाकई ढहा पाएगा, ऐसा दिखाई नहीं देता.
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