भाजपा जहां पीड़ितों के साथ खड़ी दिखी वहीं ममता भृष्टाचारियों
शायद ममता बनर्जी बेचैनी में अपना आपा खो रही हैं. वो 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले विपक्ष को अपने पीछे हर हाल में लामबंद करने की हड़बड़ी में हैं. इस हड़बड़ी में उन्होंने अपने नेतृत्व को उभार देने के लिए एक गलत मकसद का चुनाव किया.
‘राजनीति धीरज और अनथक मेहनत की मांग करती है. इसके लिए भावावेग और दृष्टि दोनों की जरूरत होती है.’ ममता बनर्जी के भीतर भावावेग तो है लेकिन दृष्टि नहीं वर्ना वो मोदी को अपने मुखालिफ के तौर पर नहीं चुनतीं.
कोलकाता में जो कुछ हो रहा है उसके मायने समझने की कोशिश करें तो लगता यही है मानो शारदा चिटफंड घोटाले पर कोई सियासी रस्साकशी चल रही हो. तनिक सीधे-सरल अंदाज में सोचें तो कहा जा सकता है कि बीजेपी पश्चिम बंगाल में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही है, हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए पश्चिम बंगाल अबतक एक बेगाना इलाका साबित हुआ है और ममता बनर्जी अपने किले को बचाने के लिए बीजेपी के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं. लेकिन इन शब्दों में सोचना मसले को हद से ज्यादा सरल करना कहलाएगा और जो कुछ जमीनी तौर पर हो रहा है उसे समझने में चूक की एक दलील बन सकता है.
घोटाला वित्तीय फर्मों के एक समूह शारदा ग्रुप से जुड़ा है. इस घोटाले में झारखंड, बिहार, ओड़िशा तथा पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों के तकरीबन एक करोड़ भोले-भोले निवेशकों ने अपनी हाड़-तोड़ मेहनत की कमाई कुछ ठगेरे लोगों के हाथों गंवा दी. ये ठगेरे लोग अपने को आंत्रेप्रेन्योर्स बताते थे और ठगेरों की इस जमात को ढीठ राजनेताओं तथा नौकरशाहों की सरपरस्ती हासिल थी. पोंजी स्कीम कहलाने वाली ठगी की इन घटनाओं की चपेट में आकर ऊपर बताए गए इलाकों के एक सौ से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की है.
इस फर्जीवाड़े का तौर-तरीका बड़ा सीधा-सा है. इलाके में दिहाड़ी पर काम करने वाले गरीब लोगों को कोई सांस्थानिक बैंकिंग सहायता हासिल नहीं होती और ऐसे में ये छोटे निवेशक जमा की गई रकम पर ऊंचे रिटर्न के लालच में औनी-पौनी जमा-योजना चलाने वालों के झांसे में आ जाते हैं. जमा-योजना चलाने वाले झांसा देते हैं कि रकम तीन सालों में दोगुनी हो जाएगी.
बहुत से छोटे निवेशक एजेंट के बहकावे पर यकीन कर लेते हैं, एजेंट स्थानीय लोगों में से ही नियुक्त किए जाते हैं. साल 2012 में ठगी की इस योजना का भंडाफोड़ हो गया. उस वक्त सेबी ने शारदा ग्रुप से कह दिया था कि निवेशकों से अब और रकम जमा ना करवाई जाए. निवेशकों ने रुपया जमा कराने वाले एजेंटों से पूछताछ शुरू की और ऐसे में एजेंटों ने कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस के दफ्तर का घेराव कर डाला.
इसके बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक विशेष जांच दल (एसआटी) गठित किया. जांच दल की कमान राजीव कुमार को सौंपी गई जो उस वक्त बिधानगर के पुलिस कमिश्नर थे. हालांकि उन्होंने मामले में तहकीकात शुरू की थी लेकिन जल्दी ही यह भी जाहिर हो गया कि शारदा घोटाला तो बस हाथी की पूंछ के बराबर है और इस तरह के फर्जीवाड़े पूरे पूर्वी तथा पूर्वोत्तर के इलाके में धड़ल्ले से जारी हैं.
जेवीजी, रोजवैली तथा कई अन्य कंपनियों ने लाखों निवेशकों को चूना लगाया था. विडंबना देखिए कि इनमें से कई कंपनियों के मीडिया हाउस भी चलते थे और इन लोगों ने नामी-गरामी पत्रकारों तथा फिल्मी हस्तियों को अपनी साख कायम करने और निवेशकों में भरोसा जगाने के लिए अपने साथ जोड़ रखा था
अचरज नहीं कि समाज के सबसे कमजोर तबके की इस लूट में सबसे ज्यादा चांदी राजनेता तथा नौकरशाह काट रहे थे. तृणमूल कांग्रेस का सियासी ग्राफ तेजी से ऊपर उठ रहा था और जब सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में घोटाले की जांच का दायरा बढ़ाते हुए सीबीआई से कहा कि अपनी जांच को विस्तार दीजिए तो यह तथ्य सामने आया कि घोटाले का सबसे ज्यादा फायदा तो तृणमूल कांग्रेस को हुआ है. अभी तक उपलब्ध आंकड़ों का संकेत है कि पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, बिहार तथा अन्य जगहों पर पोंजी स्कीम के जरिए निवेशकों को तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए का चूना लगा है.
मामले के इतिहास का जिक्र मौजूदा माहौल के मायने समझने के एतबार से अहम है वह भी तब जब ममता बनर्जी राजीव कुमार के बचाव में धरने पर बैठी हैं और राजीव कुमार के बारे में आशंका जताई जा रही है कि उन्होंने साक्ष्यों के साथ खिलवाड़ किया है.
ममता की शैली राजनीतिक लड़ाई को गली-मुहल्लों तक खींच ले जाने की है, वो लोक-लुभावन मुद्दों पर सियासी हंगामा खड़ा करती हैं और अब चूंकि वो एक संवैधानिक पद पर हैं तो ऐसा लगता है कि उन्होंने सियासत की अपनी शैली को तनिक बदल लिया है. ऐसा लगता है कि अभी वो भ्रष्टाचार करने वालों की तरफदारी में खड़ी हैं और अवाम के हितों को तिलांजलि देते हुए अपने चंद मनपसंद लोगों की हिफाजत में लगी हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि सीबीआई के अधिकारी कोलकाता पुलिस कमिश्नर के अवास पर बिना किसी वारंट के गए थे और ऐसा करना कई कारणों से ठीक नहीं. अगर सरकारी ओहदे पर बैठा कोई व्यक्ति सहयोग नहीं कर रहा तो विकल्प के तौर पर उससे निपटने के कई रास्ते हो सकते हैं.
मिसाल के लिए, लालू यादव को ही याद करें. वे मामले की जांच में सहयोग के लिए तैयार नहीं थे लेकिन 1997 में चारा-घोटाला में चार्जशीट लग जाने पर उनके पास कोई चारा न रह गया. उन्हें भारी विरोध के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. ऐसा ही कोई कदम उठाया गया होता वह विवादास्पद कम और कारगर ज्यादा होता.
लेकिन जरा उस हालात पर गौर कीजिए जिसके दायरे में फिलहाल पश्चिम बंगाल में सियासत अपने रंग दिखा रही है. यों ममता बनर्जी एक संवैधानिक पद पर हैं लेकिन इस पद पर रहते वो संविधान की तमाम मर्यादाओं को ताक पर रखकर अड़ी हुई हैं. उनकी सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पश्चिम बंगाल में रैली नहीं होने दे रही, सूबे में बीजेपी के झंडे तले होने वाले मार्च को प्रतिबंधित किया जा रहा है और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह की सूबे में होने वाली बैठकों तथा यात्रा पर रोक लगाई जा रही है.
अभी हाल ही की बात है जब ममता बनर्जी ने संघीय मान-मूल्यों को तिलांजलि देते हुए पश्चिम बंगाल में प्रवर्तन निदेशालय तथा केंद्रीय जांच ब्यूरो के ऑपरेशन्स पर एकदम से रोक लगा दी. उनका बड़बोलापन अब सियासी लड़ाई की हदें लांघ रहा है. वो संघवाद से जुड़े मसलों पर चली आ रही मर्यादाओं को लगातार धक्का दे रही हैं और केंद्र के अधिकारियों तथा न्यायाधिकार को चुनौती दे रही हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी आज प्रधानमंत्री के पद पर नहीं होते तो ममता बनर्जी की बड़जोरी को बराबरी की टक्कर नहीं मिलती. मोदी ने मुख्यमंत्री के रूप में एक लंबा अरसा गुजारा है और अब वे प्रधानमंत्री हैं और ऐसे में यह मानना भोलापन होगा कि ममता को किसी तरफ से चुनौती नहीं मिलेगी.
निस्संदेह कोलकाता पुलिस कमिश्नर के आवास पर तलाशी लेना एक सियासी कदम था और इस पहल के जरिए केंद्र सरकार ने अपना अधिकार जताया, ममता बनर्जी को संकेतों में समझाना चाहा कि अगर वो समझती हैं कि केंद्र-राज्य संबंधों को अपने सिरे से ही तय करती रहेंगी तो यह उनका भ्रम है.
जैसे कि उम्मीद थी, ममता बनर्जी ने बिल्कुल दो-दो हाथ करने की शैली में अपनी प्रतिक्रिया जताई लेकिन उनके मकसद में झोल था. यहां जरा रुककर याद करें ममता की वह छवि जब ज्योति बसु की पुलिस ने उन्हें राइटर्स बिल्डिंग (विधानसभा) के परिसर से बाहर खींच निकाला या फिर याद करें आम जनता की प्रिय नेता के रूप में विशाल रैली को अपने सादगी भरे अंदाज में संबोधित करती ममता बनर्जी को. पुराने दिनों की उनकी ये छवियां आज संदेहास्पद पृष्ठभूमि वाले नौकरशाहों और राजनेताओं की तरफदारी में खड़े होने के कारण धूल-धूसरित हो गई है.
शायद ममता बनर्जी बेचैनी में अपना आपा खो रही हैं. वो 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले विपक्ष को अपने पीछे हर हाल में लामबंद करने की हड़बड़ी में हैं. इस हड़बड़ी में उन्होंने अपने नेतृत्व को उभार देने के लिए एक गलत मकसद का चुनाव किया.
जर्मन समाजशास्त्री मैक्सवेबर ने अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘पॉलिटिक्स ऐज वोकेशन’ में लिखा है, ‘राजनीति धीरज और अनथक मेहनत की मांग करती है. इसके लिए भावावेग और दृष्टि दोनों की जरूरत होती है.’ ममता बनर्जी के भीतर भावावेग तो है लेकिन दृष्टि नहीं वर्ना वो मोदी को अपने मुखालिफ के तौर पर नहीं चुनतीं.
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