Tuesday, December 24

कांग्रेस पार्टी आरजेडी के वोट बैंक के साथ अगड़ों को एक साथ लाने की रणनीति पर काम कर रही थी लेकिन अब वैसा हो पाना उन्हें टेढ़ी खीर मालूम पड़ने लगा है

90 के दशक में मंडल-कमंडल की राजनीति के बीच बिहार में पिछड़ों के मसीहा के तौर पर लालू यादव का उभार हुआ था. दूसरी तरफ, मंडल के जवाब में कमंडल की राजनीति ने बीजेपी को भी धीरे-धीरे बिहार में अपने-आप को खड़ा करने का मौका दे दिया. लेकिन, इन दोनों के बीच में फंस गई कांग्रेस. बिहार में लालू के उभार ने ही कांग्रेस के अवसान की पटकथा लिख दी थी. लेकिन, मजबूर कांग्रेस सब कुछ जानते हुए भी लालू से तब भी पीछा नहीं छुड़ा पाई और अभी भी जेल में बंद लालू के पीछे-पीछे चलने को मजबूर दिख रही है.

कांग्रेस की रणनीति फेल?

लेकिन, लगभग दो दशक के दौर के बाद अब लालू यादव की पार्टी आरजेडी के खिलाफ सवर्णों की नाराजगी को कम करने का बीड़ा कांग्रेस ने उठाया था. लालू की गैरहाजिरी में उनके बेटे तेजस्वी यादव को आगे कर कांग्रेस सवर्णों के एक तबके के बीच यह संदेश देने की कोशिश कर रही थी कि आरजेडी अब वो आरजेडी नहीं रह गई. गंगा में बहुत पानी बह चुका है.

मोदी विरोध के नाम पर बिहार में महागठबंधन बनाने की तैयारी में लगी कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा था जिसमें लालू यादव के यादव और मुस्लिम वोट के साथ कांग्रेस सवर्ण तबके के लोगों को भी अपने नाम पर जोड़ने की तैयारी में थी. कांग्रेस में मदनमोहन झा और अखिलेश प्रसाद सिंह सरीखे सवर्ण नेताओं को आगे बढाकर आरजेडी के रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह जैसे चेहरों के सहारे कांग्रेस एक बार फिर से सवर्ण तबके को महागठबंधन से जोड़ने की तैयारी कर रही थी.

सूबे में कांग्रेस आरजेडी के बराबर सीट पर लड़ने का दावा कर रही थी. बीजेपी द्वारा एसएसी और एसटी एक्ट पर लिए गए फैसले के खिलाफ सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी को भुनाने का मंसूबा पाल चुकी कांग्रेस बिहार में आरजेडी के साथ गठबंधन कर बेहतरीन प्रदर्शन की उम्मीद लगाए बैठी थी. लेकिन सवर्णों को आरक्षण दिए जाने संबंधी सदन में कवायद जैसे ही शुरू हुई राजनीतिक फिजा प्रदेश में बदलने लगी. खासकर आरजेडी के विरोध के फैसले के बाद आरजेडी के सवर्ण नेता सहित कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक गणित उलझने लगा है.

स्टेट लेवल के एक सीनियर कांग्रेसी नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि अगड़ी जाति के बीच आरजेडी के रुख को समझ पाना मुश्किल होगा और इससे आगामी लोकसभा चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस के गठबंधन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा.

लेकिन, सामान्य वर्ग के गरीब तबके को मिलने वाले दस फीसदी आरक्षण वाले विधेयक पर आरजेडी के संसद में विरोध के बाद कांग्रेस की सारी रणनीति फेल होती दिख रही है. झटका आरजेडी के उन सवर्ण नेताओं को भी लगा है जो इस बार सवर्णों के वोट बैंक के सहारे चुनाव में उतरने की तैयारी में थे.

आरजेडी के सवर्ण नेताओं में बेचैनी

आरजेडी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह की तरफ से आया बयान उसी झुंझलाहट और बेचैनी को दिखाता है. आरजेडी के सवर्ण नेता पार्टी के स्टेंड को लेकर उलझन में हैं कि वो लोकसभा चुनाव में सवर्ण मतदाताओं से वोट किस आधार पर मांगेंगे, उन दिग्गज नेताओं में रघुवंश प्रसाद सिंह,जगदानंद सिंह और शिवानंद तिवारी सरीखे नेता शामिल हैं जिन्हें आरजेडी के द्वारा लिया गया सवर्ण आरक्षण विरोधी फैसला असहज करने लगा है. इसलिए आरजेडी द्वारा लिए गए फैसले को चूक बताकर रघुवंश प्रसाद सिंह ने डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश भी शुरू कर दी है.

उन्होंने ऐसा वक्तव्य देकर अगड़ी जाति को रिझाने की कोशिश की है. दरअसल रघुवंश प्रसाद सिंह आरजेडी के सवर्ण चेहरा हैं. वो पांच दफा सांसद चुने जा चुके हैं. उनका चुनाव क्षेत्र वैशाली है जहां राजपूतों की संख्या निर्णायक फैसला कराने का मादा रखती है.

साल 1996 से लेकर 2009 तक लगातार रघुवंश प्रसाद सिंह वहां के सांसद रह चुके हैं. जातिगत समीकरण के तहत यादव और राजपूत जाति का एक साथ गोलबंद होना रघुवंश बाबू को संसद तक पहुंचाता रहा है लेकिन 2014 में रामा सिंह की इंट्री की वजह से एलजेपी और बीजेपी के गठबंधन ने रघुवंश प्रसाद सिंह को छठी बार सांसद बनने से रोक दिया था.

वजह साफ है कि राजपूत और यादव समाज का गठबंधन पिछले चुनाव में मज़बूत नहीं हो पाया था और आरजेडी के सवर्ण आरक्षण मुद्दे पर अपनाए गए रुख से रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे नेता की राजनीतिक जमीन चौपट हो सकती है. इसके लिए रघुवंश प्रसाद सिंह ने पार्टी से अलग लाइन लेकर मुद्दे को माइल्ड करने की कोशिश की है. ध्यान रहे राजपूत और यादव का गठजोड़ वैशाली के आसपास तीन लोकसभा क्षेत्र में सीधा असर डाल सकता है इसलिए बदली परिस्थितियों में उन्हें एक साथ रख पाना आसान नहीं दिखाई पड़ रहा है. यही हालत कमोबेश कई संसदीय क्षेत्र में है जिनमें मुंगेर, बलिया, बेगूसराय, नवादा, दरभंगा, मुज़्फ्फरपुर, औरंगाबाद की सीटें प्रमुख हैं.

लालू यादव के इशारे पर हुआ था विरोध!

सूत्रों की मानें तो आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव से सलाह मशविरा करने के बाद ही पार्टी ने लोकसभा और राज्यसभा में सवर्ण आरक्षण मुद्दे पर विरोध करने का फैसला किया था. राज्य सभा में मनोज झा ने बिल का विरोध करते हुए कहा था कि ‘कहानियां हमेशा से काल्पनिक आधार पर गढ़ी जाती रही हैं और उसका वास्तविकता से दूर-दूर का वास्ता नहीं होता है.’ उन्होंने कहा था कि ‘हम सबने बचपन में पढ़ा है कि एक गरीब ब्राह्मण था लेकिन एक गरीब दलित था , एक गरीब यादव था या एक गरीब कुर्मी था ऐसी कहानी कभी नहीं पढ़ी है.’

ज़ाहिर है मनोज झा ऐसी कहानी सुना कर साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि सवर्ण को गरीब बताया जाना मनगढ़ंत कहानी है और इसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं है. मनोज झा पार्टी लाइन के हिसाब से सदन में बोल रहे थे और बाहर पार्टी के युवा नेता और लालू प्रसाद के वारिस तेजस्वी यादव सवर्ण आरक्षण के मुद्दे पर आए संविधान संशोधन विधेयक का विरोध यह कहते हुए कर रहे थे कि यह आरक्षण दलित,पिछड़े और आदिवासी को मिल रहे आरक्षण को खत्म करने की एक साजिश है. इतना ही नहीं तेजस्वी यादव ने विरोध करते हुए यह भी कहा था कि 15 फीसदी आबादी को 10 फीसदी आरक्षण दिए जाने की कोशिश हो रही है तो 52 फीसदी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए.

तेजस्वी पिता लालू प्रसाद से गंभीर मंत्रणा के बाद ही ऐसी लाइन ले रहे थे. उन्हें मालूम था कि ऐसी पार्टी लाइन आरजेडी को सूट करती है और वो मोदी सरकार द्वारा लाए गए सवर्ण आरक्षण मुद्दे पर बिहार में अगड़ा बनाम पिछड़ा राजनीति करने में ठीक वैसे ही कामयाब होंगे जैसे उनके पिता लालू प्रसाद 90 के दशक में मंडल कमीशन लागू किए जाने के बाद सत्ता के शिखर तक पहुंचे थे.

अगड़ा बनाम पिछड़ा की रणनीति कितनी कारगर?

बिहार में अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति के दम पर लालू प्रसाद की राजनीति खूब चमकती रही है. इसकी वजह यह है कि अगड़ी जाति में जो चार जाति आती हैं, उनमें ब्राह्मण की आबादी 5.7 फीसदी है वहीं कायस्थ 1.5 फीसदी, भूमिहार 4.7 फीसदी और राजपूत 5.2 फीसदी हैं. आरजेडी अगड़ों के खिलाफ अतिपिछड़ा 21.7 फीसदी, यादव 14.4 फीसदी, बनिया 7.1 फीसदी, कुर्मी 3 और कोईरी 4 फीसदी को गोलबंद कर बिहार में अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में है.

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लेकिन 90 के दशक की राजनीति का वो तरीका अब कारगर हो पाएगा उसकी उम्मीद कम ही दिखाई पड़ती है. मंडल कमीशन के दौर की राजनीति के बाद बिहार में तमाम दलों के नेतृत्वकर्ता पिछड़े और अति पिछड़े समाज से ही आते हैं, इसलिए आरजेडी की राजनीति से ज्यादा राजनीतिक लाभ मिल पाएगा ऐसा प्रतीत होता नजर नहीं आता है. प्रदेश में अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति फिर से शुरू हो सके इसकी गुंजाइश नहीं दिखाई पड़ती है.

यही वजह है कि महागठबंधन के घटक दलों में सवर्ण आरक्षण मुद्दे पर आरजेडी के विरोध के बाद असहज स्थिति पैदा होने लगी है. आरजेडी के सवर्ण नेता भले ही डैमेज कंट्रोल करने में लगे हों लेकिन कांग्रेस के भीतर भी आरजेडी के स्टैंड को लेकर मायूसी है. कांग्रेस पार्टी आरजेडी के वोट बैंक के साथ अगड़ों को एक साथ लाने की रणनीति पर काम कर रही थी लेकिन अब वैसा हो पाना उन्हें टेढ़ी खीर मालूम पड़ने लगा है.