भोपाल गैस कांड: जिन्हें आज भी नहीं भूला उस रात का दर्द

साभार: विनय कुमार

भोपाल में दिसंबर के पहले हफ्ते की रात बहुत सर्दी नहीं होती. 2 दिसंबर 1984 की रात भी कुछ ऐसी ही थी. जेपी नगर और आस पास के लोगों के लिए वह रात सामान्य होती…अगर वहां यह दर्दनाक हादसा न होता. 3 दिसंबर 1984 की सुबह अपने साथ एक ऐसी काली सुबह लेकर आएगी, इस बात का अंदाजा किसी को नहीं था.

2 दिसंबर की रात को क़ाज़ी कैंप, जेपी नगर (आज का आरिफ नगर) और उसके आसपास के इलाके के लोग रात का खाना खाकर सो गए थे. नई सुबह का इंतजार करते हुए लोगों ने कुछ योजनाएं बनाई होंगी. पता नहीं कितने युवक और युवतियों ने अपने प्रेम की कुछ बातों के लिए अगले दिन को चुना होगा. बच्चे रविवार होने की वजह से रोज से कुछ ज्यादा ही खेलकूद कर थके होंगे और उनकी माओं ने उनको किसी तरह खिला पिला कर सुलाया होगा कि कल फिर खेल लेना.

कुछ के लिए आने वाला सोमवार, 3 दिसंबर रोजगार के नए मौके लेकर आने वाला था. कुछ घरों में मेहमान भी उसी रात आए थे और उन घरवालों को भी यह भान नहीं रहा होगा कि यह मेहमान अब वापस नहीं जा पाएगा. उस इलाके में कुछ शादियां भी उस दरम्यानी रात को हो रही थीं. कुछ दूल्हा-दुल्हन भी पहले मिलन की आस लिए दुनिया से कूच कर गए.

उस रात की सुबह नहीं

आधी रात के बाद जब पुराना भोपाल, चंद पुलिसवालों, चौकीदारों और बीमारी से खांसते-खंखारते बुजुर्गों को छोड़कर गहरी मीठी नींद में सोया था तो किसी को खबर तक नहीं थी कि आरिफ नगर की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री उनके लिए जीने का नहीं बल्कि मरने का सबब बन जाएगी.

उस फैक्ट्री में मौजूद तमाम गैस के टैंकों के नंबर भले ही तब के कुछ कर्मचारियों और अधिकारियों को याद रहे हों लेकिन आगे चलकर टैंक नंबर E-610 इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया और भोपाल के लोग चाहकर भी इस नंबर को भूल नहीं पाएंगे. यह वही दुर्भाग्यशाली टैंक था जिससे गैस लीक हुई थी.

चाहे दुनिया की कोई भी कंपनी हो और वह लोगों के भलाई की कितनी ही बात करे, उसके लिए कहीं भी अपनी फैक्ट्री लगाने के पीछे सबसे अहम कारण वहां से मिलने वाला मुनाफा ही होता है. यह बात हर देश में भी लागू होती है, चाहे वह विकसित हो या विकासशील हो. बस विकसित देशों में इंसान की जिंदगी को तवज्जो दी जाती है और ऐसे कारखाने जो इंसानों या समाज के लिए खतरनाक होते हैं, उनको आबादी से दूर बनाया जाता है.

भोपाल में भी यूनियन कार्बाइड ने जब अपनी फैक्ट्री क़ाज़ी कैंप के पास 1969 में शुरू की थी, तब भी यहां आबादी थी. फर्क़ बस इतना था कि हिन्दुस्तान विकासशील देश था और यहां पर इंसानों की जिंदगी की कीमत कुछ खास नहीं थी. वैसे भी यूनियन कार्बाइड कीटनाशक दवाएं बना रही थी, बस गलती से इंसान भी कीट-पतिंगों की मानिंद उस हादसे में मारे गए.

इस देश में पैसे के बल पर कहीं भी कुछ भी किया जा सकता है और प्रशासन ऐसे उद्योगपतियों के कदमों में अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तत्पर था, बशर्ते उनको मुंहमांगी कीमत मिल जाए.

अंदेशा था फिर लापरवाही क्यों?

ऐसा नहीं है कि किसी को इसका अंदेशा नहीं था. उस दुर्भाग्यपूर्ण रात के पहले भी कई बार छोटे-मोटे हादसे उस कारखाने में हो चुके थे. गैस लीक की छोटी मोटी घटनाएं हुई थीं. एकाध मजदूर उसमें मारे भी गए थे. अख़बारों में यूनियन कार्बाइड कारखाने की लोकेशन पर कई बार सवाल खड़े किए जा चुके थे लेकिन न तो किसी को फर्क़ पड़ना था और न पड़ा.

कारखाना अपनी गति से चलता रहा और शायद अगले कई सालों तक ऐसे ही चलता रहता, अगर उस रात वह हादसा नहीं हुआ होता. सुरक्षा के मानकों को दरकिनार करके मुनाफा बढ़ाने की नीयत के चलते कारखाने में कभी भी कोई दुर्घटना घट सकती थी लेकिन किसी का भी ध्यान उसकी तरफ नहीं था. यह कारखाना शुरू होने के ठीक 10 साल बाद 1979 में कंपनी ने मिथाइल आइसोसाइनाइट का उत्पादन शुरू किया. और इसके ठीक 5 साल बाद एक ऐसा हादसा हुआ जिसे इतिहास की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी मानी जाती है.

आज 34 साल बाद भी जेपी नगर, आरिफ नगर और आसपास के मोहल्लों में लोग उस दिन को याद करके सिहर जाते हैं. उस त्रासदी से किसी तरह बचने वाले लोग जब उस रात की कहानी सुनाते हैं तो दिल दहल जाता है.

कुछ यादें हैं कि जाती नहीं

पेशे से कारोबारी संजय मिश्रा उस समय करीब 16 साल के थे. उस रात वह घोड़ा नक्कास के अपने घर में परिवार के साथ सोए हुए थे. रात में गैस ने बहती हवा के साथ जैसे-जैसे अपना असर फैलाना शुरू किया, उनके इलाके में भी शोर मचने लगा. जो लोग खुले में थे या बाहर सो रहे थे, उनको घबराहट, बेचैनी और सांस में रुकावट महसूस हो रही थी.

किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह किस वजह से हो रहा है और हर व्यक्ति परेशान हाल में दूसरों से कारण जानने की कोशिश कर रहा था. तभी कहीं से खबर आई कि कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस लीक हो गई है और यहां से भागने में ही भलाई है.

मिश्रा के परिवार के सब लोग उठे और जो कपड़ा मिला उसे अपने नाक और मुंह पर बांधा और लाल परेड मैदान की तरफ दौड़ लगाई. उनको याद भी नहीं है कि उन्होंने अपने घर में ताला बंद किया था या नहीं. बस जान बचाने के लिए पूरा परिवार भाग रहा था. रास्ते में उनको जगह-जगह सड़क पर, गलियों में गिरे लोग और जानवर दिखाई पड़ रहे थे जो दम घुटने से छटपटा रहे थे.

भागते भागते उनका पूरा परिवार लाल परेड मैदान पहुंचा और उससे आगे जाने की उन लोगों में क्षमता नहीं बची थी. धीरे धीरे उनको महसूस हुआ कि वहां सांस लेने में ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही थी. आंखों में जलन भी कम थी तो सारा परिवार वहीं पूरी रात पड़ा रहा. कुछ ही देर में पूरा लाल परेड मैदान लोगों से भर गया. हर तरफ लोग कराह रहे थे. कुछ जिनका परिवार बिछड़ गया था, वह उनको याद करके रो पीट रहे थे. उन बिछड़े लोगों को यह अहसास हो गया था कि जो भी पीछे रह गया, वह शायद ही अब उनसे दोबारा मिल पाएगा.

अपनों को खोने की रात

हजारों लोगों ने एक ही रात में अपनों को खो दिया. सरकारी आंकड़ों में भले ही मारे गए लोगों का आंकड़ा 4000 से कम था. लेकिन असलियत में यह संख्या  50,000 से भी ज्यादा रहा.

उस हादसे के एक और प्रत्यक्षदर्शी विजय मिश्रा ने एक और बात बताई. उन्होंने बताया कि उस रात ठंड और दिनों की अपेक्षा ज्यादा थी. लिहाजा गैस ऊपर आसमान में नहीं जा पा रही थी. हलके पीले रंग की गैस की परत चारों तरफ फैली हुई थी और इस वजह से भी बहुत ज्यादा लोगों की मौत हुई.

एक और प्रत्यक्षदर्शी की जुबानी उस रात का खौफनाक मंजर कुछ ऐसा था. अमन शर्मा उस समय लगभग 24 वर्ष के युवक थे और अपने परिवार के साथ रेलवे कॉलोनी में रहते थे. उस रात किसी परिचित की शादी थी तो बारात से खा पीकर आने में रात के बारह बज गए. उसके बाद वह भी परिवार के साथ सो गए. पिताजी रेलवे में थे और उनकी रात की पाली नहीं थी, इसलिए वह भी घर पर ही थे. रात जब शोर मचना शुरू हुआ तो सब लोग जागकर बाहर आए.

बाहर यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस लीक होने की खबर मिली तो पूरा परिवार घर के दो स्कूटर से वहां से भागा. एक स्कूटर पर अमन अपने पिता और एक और सदस्य को लेकर मंडीदीप की तरफ भागे. दूसरे स्कूटर पर उनके बड़े भाई अपनी मां, बहन और अन्य सदस्यों को लेकर टी टी नगर की तरफ भागे.

अमन बताते हैं कि मंडीदीप पहुंचते-पहुंचते उनकी हालत स्कूटर चलाने लायक नहीं रह गई. वह एक दूकान के सामने स्कूटर लेकर लुढ़क गए. गैस लीक होने की खबर वहां भी पहुंच चुकी थी लेकिन वहां उसका असर बहुत कम था. वह आज भी वहां के दुकानदारों और मौजूद लोगों का आभार करना नहीं भूलते जिन्होंने उनको और इनके परिवार को झटपट घर के अंदर खींच लिया और पानी के साथ साथ बेनाड्रिल सिरप पिलाने लगे. कुछ देर में उन लोगों को राहत मिली और उनको अहसास हुआ कि फिलहाल मौत का साया उनके सर से हट गया है.

एक अफसोस यह भी

शर्मा को बस एक अफसोस यह है कि भागने के दौरान जब वह स्कूटर से पुल पार कर रहे थे तो कुछ लोगों के हाथ या पैर के ऊपर से उनका स्कूटर गुजर गया था. अमन के बड़े भाई टी टी नगर पहुंचते-पहुंचते बेदम होने लगे और वह भी सड़क के किनारे फुटपाथ पर गिर पड़े. इस तरफ भी गैस का असर कम था और वहां मौजूद लोगों ने उन लोगों को अपने घर में पनाह दे दी.

इस तरह उनका पूरा परिवार इस हादसे से बाल बाल बच गया. हालांकि इस हादसे के  बाद उनकी मां को सांस लेने में तकलीफ आजीवन रही. एक और बात उन्होंने बताई कि इस हादसे के बाद रेलवे स्टेशन या आसपास भिखारी अगले कुछ महीनों तक नजर नहीं दिए. जितने भी भिखारी थे वे सब इस गैस कांड के चपेट में आकर मारे गए.

भोपाल गैस त्रासदी इतिहास की सबसे भीषण त्रासदियों में से एक थी. अधिकांश लोगों को इससे बहुत आर्थिक क्षति उठानी पड़ी तो कुछ लोगों को इससे जाती फायदा भी हुआ. गैस कांड के अगले दिन एक स्थानीय नेता लोगों का हुजूम लेकर यूनियन कार्बाइड की तरफ बढ़े. उन्होंने लोगों को उनका हक़ दिलाने की भी बात की.

उसी बीच एक अफवाह तेजी से फ़ैली कि यूनियन कार्बाइड कारखाने में आग लगा दी गई है और अब जहरीली गैस का बहुत ज्यादा असर फैलने वाला है. इससे उस पूरे इलाके में भगदड़ मच गई. इसके बाद उपद्रवियों ने जमकर घरों और दुकानों को लूटा. उस राजनेता की राजनीति की दुकान इसके बाद चल निकली.

एक किस्सा यह भी

रेलवे के दो अधिकारियों का किस्सा भी लोगों ने बताया. एक अधिकारी जो शराब पीने के लिए बहुत बदनाम थे, वह घर पर शराब पीकर सो रहे थे. जब चारों तरफ हल्ला मचा तो वह भी घर से बाहर निकले और चारों तरफ घूम-घूम कर लोगों से पूछने लगे.

इसी बीच शायद गैस या किसी और वजह से वह गिर पड़े और जब तक उनको घर ले जाया जाता, उनकी मौत हो गई. ये किस्सा सुनाने वालों का कहना है कि  घरवालों ने उनको ले जाकर उनके ऑफिस में बैठा दिया. बाद में उनकी मौत को ड्यूटी पर हुई मौत बताया गया. कुछ लोगों का कहना है कि उनके परिवार को इसका फायदा भी हुआ.

दूसरे अधिकारी उस समय ड्यूटी पर ही थे. उनको भी खबर लग गई थी कि गैस त्रासदी हो गई है. लेकिन उन्होंने अपनी ड्यूटी नहीं छोड़ी और स्टेशन पर मौजूद लोगों की सलामती में लगे रहे. उसका नतीजा उनको आगे भुगतना पड़ा. उनकी पत्नी और बेटी दोनों गैस के चलते अगले दो दिनों में दुनिया में नहीं रहे. बेटा बाहर था तो वह बच गया लेकिन कुछ सालों बाद वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठे. आज भी वह भोपाल रेलवे स्टेशन पर पागलों की तरह घूमते नजर आते हैं. मेरी भी मुलाकात उनसे एक बार स्टेशन पर ही हुई थी और उनसे जुड़े किस्से के बारे में मुझे बाद में पता चला.

तमाम अखबार, पत्रिकाएं और सरकारी अमला इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि उस कांड का असर आज भी मौजूद है. बहुत से बच्चे आज भी अपंग या मानसिक रूप से कमजोर पैदा हो रहे हैं और पिछले 34 वर्षों में कितने ही लोगों ने धीरे धीरे कैंसर और अस्थमा जैसे रोगों से अपनी जान गंवा दी है.

लोगों को मुआवजा तो मिला है लेकिन उतना नहीं जितना मिलना चाहिए था. और जिन लोगों को इस हादसे में उनसे छीन लिया है, उनका दर्द कभी भर ही नहीं सकता. आज यूनियन कार्बाइड का कारखाना उजाड़ पड़ा है लेकिन जहरीले पदार्थों का अवशेष अब भी मौजूद है. जरूरत है इस हादसे से सबक लेने की जिससे भविष्य में कोई और गैस कांड या ऐसी कोई त्रासदी ना हो.

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