मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया भंग


केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अध्यादेश के जरिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिय को भंग कर दिया है, इस पर राष्ट्रपति की मुहर भी लग गई है, नेशनल मेडिकल कमीशन बिल के आने तक बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के जरिए काम होगा


मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भंग कर दिया गया है और इसके लिए बकायदा बुधवार सुबह कैबिनेट की मीटिंग बुलाकर अध्यादेश को पास किया गया और इसे राष्ट्रपति को भेजा गया. राष्ट्रपति जी ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी है. वैसे पिछले लोकसभा के सत्र में नेशनल मेडिकल कमीशन बिल के पास होने की चर्चा थी, जो कि सदन में पास होने के लिए रखा नहीं जा सका था.  मिडिया ने उस समय भी इस बात की जानकारी दी थी कि सरकार मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भंग कर नए कमिशन के गठन की तैयारी में है.

फिलहाल नेशनल मेडिकल कमीशन बिल सदन में पेडिंग है लेकिन अध्यादेश के जरिए सरकार ने पुराने काउंसिल को भंग कर दिया है. अब काउंसिल को बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के जरिए चलाया जाएगा. इस बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में जिन दो सदस्य के नाम प्रमुख हैं, वो हैं नीति आयोग के सदस्य डॉ वीके पॉल और ऑल इंडिया इंस्टीयूट ऑफ मेडिकल साइसेंस के डायरेक्टर रणदीप गुलेरिया.

सरकार के वरिष्ठ मंत्री अरुण जेटली ने बताया कि मेडिकल काउंसिल का समय खत्म होने वाला था और इस बात की जरूरत महसूस की गई कि इस संस्था का बागडोर नामचीन व्यक्तियों के हाथों सौंपा जा सके.

ध्यान रहे कि सरकार 23 सितंबर को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना प्रारंभ कर चुकी है जिसमें देश के कम से कम 40 फीसदी लोगों को बीमा के तहत बेहतर इलाज कराने का प्रावधान है. सरकार तकरीबन 10.74 करोड़ परिवार को मुफ्त इलाज कराने की योजना शुरू कर चुकी है. इस योजना के तहत डेढ़ लाख प्राइमरी हेल्थ केयर सेंटर खोलने की भी बात कही गई है.

ध्यान रहे पिछले 70 साल में जिस तरह स्वास्थ्य क्षेत्र में आधारभूत संरचना तैयार किया जाना चाहिए, वो तैयार नहीं हो पाया है. ऐसा संसदीय कमेटी अपने रिपोर्ट में भी कह चुकी है और नेशनल मेडिकल कमीशन बिल का प्रारूप तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले डॉ रंजीत रॉय चौधरी ने ये जिक्र किया था कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह फेल रहा है.

साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एमसीआई की गतिविधियों ने नाराज होकर ओवरसाइट कमेटी का गठन किया था, जिसका काम एमसीआई के क्रिया कलाप पर निगरानी का था लेकिन 6 जुलाई को ओवरसाइट कमेटी ने स्वास्थ्य मंत्रालय को लिख कर आरोप लगाया कि मेडिकल काउंसिल सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना कर रहा है और किसी भी फैसले से उसे अवगत नहीं करा रहा है. इसलिए सरकार ने एक अध्यादेश लाकर फिलहाल बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के जरिए इसे सुचारू रूप से चलाने का फैसला किया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार को अपने इस फैसले को 6 महीने के अंदर सदन से पास कराना पड़ेगा.

ये हैं इस बिल की प्रमुख बातें

दरअसल इस बिल को लाने के लिए मोदी सरकार ने कुछ साल पहले से ही कवायद शुरू कर दी थी. 15 दिसंबर 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (नेशनल मेडिकल कमीशन) बिल को स्वीकृति दे दी थी. इस बिल का उद्देश्य चिकित्सा शिक्षा प्रणाली को विश्व स्तर के समान बनाने का है.

प्रस्तावित आयोग इस बात को सुनिश्चित करेगा की अंडरग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट दोनों लेवल पर बेहतरीन चिकित्सक मुहैया कराए जा सकें… इस बिल के प्रावधान के मुताबिक प्रस्तावित आयोग में कुल 25 सदस्य होंगे, जिनका चुनाव कैबिनेट सेक्रेटरी की अध्यक्षता में होगा. इसमें 12 पदेन और 12 अपदेन सदस्य के साथ साथ 1 सचिव भी होंगे.

इतना ही नहीं देश में प्राइमरी हेल्थ केयर में सुधार लाने के लिए एक ब्रिज-कोर्स भी लाने की बात कही गई है, जिसके तहत होमियोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सक भी ब्रिज-कोर्स करने के बाद लिमिटेड एलोपैथी प्रैक्टिस करने का प्रावधान है. वैसे इस मसौदे को राज्य सरकार के हवाले छोड़ दिया गया है कि वो अपनी जरुरत के हिसाब से तय करें की नॉन एलोपैथिक डॉक्टर्स को इस बात की आज़ादी देंगे या नहीं.

 

प्रस्तावित बिल के मुताबिक एमबीबीएस की फाइनल परीक्षा पूरे देश में एक साथ कराई जाएगी और इसको पास करने वाले ही एलोपैथी प्रैक्टिस करने के योग्य होंगे. दरअसल पहले एग्जिट टेस्ट का प्रावधान था, लेकिन बिल में संशोधन के बाद फाइनल एग्जाम एक साथ कंडक्ट कराने की बात कही गई है.

बिल में प्राइवेट और डीम्ड यूनिवर्सिटीज में दाखिला ले रहे 50 फीसदी सीट्स पर सरकार फीस तय करेगी वही बाकी के 50 फीसदी सीट्स पर प्राइवेट कॉलेज को अधिकार दिया गया है की वो खुद अपना फीस तय कर सकेंगे.

बिल लाने की वजह

दरअसल सरकार को इस बिल को लाने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मार्च 2016 में संसदीय समिति (स्वास्थ्य) ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपा था जिसमें भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के ऊपर साफ-तौर पर ऊंगली उठाते हुए इसे पूरी तरह से परिवर्तित करने को कहा था. जाहिर है कि सरकार ने मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए एक समिति का गठन किया और बिल को ड्राफ्ट करने की प्रक्रिया शुरू की गई. इस बिल को तैयार करने के लिए डॉक्टर रणजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में तमाम एक्सपर्ट्स की मदद ली गई साथ ही साथ अन्य स्टेक होल्डर्स की भी राय को खासा तवज्जो दिया गया. इस ड्राफ्ट को नीति आयोग के वेबसाइट पर लोगों की राय के लिए डाला गया.

लेकिन, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) पूरे बिल और आयोग के गठन को लेकर ही विरोध जता रहा है. मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके डॉक्टर अजय कुमार पत्रकारों से बात करते हुए कहते हैं, ‘इस बिल को लाने के पीछे पर्सनालिटी क्लैश मुख्य वजह है. वहीं एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करके पूरे डॉक्टर्स को ब्यूरोक्रेसी के नीचे लाया जा रहा है, जो कि पूरी तरह गलत और भारतीय चिकित्सा को बर्बाद करने की कवायद है.’

डॉक्टर अजय कुमार भारतीय चिकित्सा परिषद् के महत्वपूर्ण सदस्य भी हैं, जो कि भारतीय चिकित्सा और मेडिकल एजुकेशन के लिए रेगुलेटरी बोर्ड का काम करती रही है.

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