-
अब कानून तोड़ने वालों को होगी कानून बनाने कि आज़ादी
-
1581 जन प्रतिनिधि आपराधिक मामलों में संलिप्त
-
राजनेताओं पर 3045 आपराधिक मामले दर्ज
25 सितम्बर, सारिका, पुरनूर :
उच्चतम न्यायालय ने अपने हाथ बंधे होने का हवाला देते हुए कहा कि राजनैतिक पार्टियाँ ही अपने दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकना चाहें तो रोक सकतीं हैं. इसके लिए नयायपालिका कि कुछ सीमाएं हैं इस लिए विधानपालिका ही इस पर क़ानून बना सकती है.
यह बात नयायपालिका उस समय कह रही है जबकि चुनाव टिकट बाँटने में अब समय नहीं बचा है.
उच्चतम न्यायलय ने ओउप्चारिकता निभाते हुए राजनैतिक नैतिकता पर सिर्फ भाषण दिया और कहा कि राजनैतिक अप्रधिकर्ण एक रिवाज बन गया है जो कि बहुत चिंता जनक है.
राज्य इस राजनैतिक आपराधिक व्यवस्था का शिकार न हों इसके लिए राजनैतिक पार्टियाँ ही तय करें कि क्या वह अपने दागी छवि वाले नेताओं को चुनावी मैदान में उतारना चाहतीं हैं या नहीं, साथ ही उन्होंने कहा कि राजनैतिक पार्टियाँ अपे दागी नताओं को और उनके खिलाफ चल रहे मामलों का पूरा ब्यौरा अपनी website पर डालें.
यह फैसला सुप्रीम कोरट के ही २००२ के फैसले का एक्सटेंशन है.
आपको बता दें राजनेताओं के विरूद्ध 1581 आपराधिक मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं. ज़यादा मामले महिलाओं के प्रति अपराध के हैं.
आमतोर पर इन मामलों में केवल 40% मामलों ही में सजा हो पाती है उसी में भी यदि सजा 2 वर्ष से कम है तो उसी समय जमानत भी मिल जाती है. अन्य आपराधिक मामलों में केवल 30% मामलों ही में सज़ा हो पाती है. ऐसी स्थिति में न्याय पालिका कैसे सोच सकती है कि देश को स्वास्थ्य विधानपालिका मिल सकती है.
न्यायपालिका के 5 न्यायाधीशों कि बेंच ने फैसला लिया कि आरोप तय होने पर चुनाव लड़ने पर रोक लगाना सही नहीं.
आपको बता दें अब तक दो साल से अधिक कि सज़ा होने पर ही चुनाव लड़ने पर रोक का प्रावधान था, इसके अतिरिक्त कुछ ख़ास किस्म के आपराधिक मामलों में दो वर्ष से कम कि सजायाफ्ता नेताओं पर भी रोक लगाए जाने का प्रावधान था.
अब सवाल यह है कि बहुत से सामजिक मामलों में स्वयं संज्ञान लेने और पुराणी परम्पराओं को तोड़ने वाले बड़े फैसले सुनाने वाली न्यायपालिका के हाथ इन मामलों में कैसे बंध जाते हैं. पाने द्वारा ही अपराधी घोषित करने के बावजूद देश को आपराधि के हाथ सोंप देना और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना कहाँ तक तर्कसंगत है? अपराधी राजनीतिज्ञों के मामलों में अपने बंधे हाथों का हवाला देते हुए न्यायलय ने गेंद संसद के पाले में दाल दी. अब देखना यह है कि संसद इस मामले में क्या करती है, क्योंकि कुछ राज्यों में तो चुनाव आचार संहिता लागो होने वाली है. ऐसे में तो कोई अध्यादेश भी जारी नहीं किया जा सकता है. सबसे बड़ी बात यदि राजनैतिक दल चाहते तो नौबत यहाँ तक आती ही क्यों? उससे भी ऊपर राजनैतिक दल स्वच्छ और स्वास्थ्य छवि वाले नेता कहाँ से लाय्न्गी.
यह मसला विधान पालिके में फैंकने कि बजाय न्यायालय ने अपने विवेक से फैसला देता तो सर्वदा मानी होता क्योंकि क़ानून कि नज़र में अपराधी अब देश कि बागडोर संभालेंगे.
संविधान सरंक्षक के बंधे हाथ हज़म नहीं हो रहे.