Sunday, December 22


मुजफ्फरपुर शेल्टर होम रेप कांड की आड़ में निजी चारित्रिक हनन का प्रयास विद्रूप राजनीति का परिचायक है


मुजफ्फरपुर शेल्टर होम यौन उत्पीड़न की घटना के डिटेल ज्यों-ज्यों सामने आए ये एक सेक्स स्कैंडल का रूप लेता गया. 34 नाबालिग लड़कियों के साथ लंबे समय से रेप और यातना की पराकाष्ठा ने ब्रांड बिहार पर गहरा चोट किया है. इसकी जितनी आलोचना की जाए कम है और विपक्ष का मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग भी उनका क्षेत्राधिकार है, लेकिन इस घटना की आड़ में निजी चारित्रिक हनन का प्रयास विद्रूप राजनीति का परिचायक है.

पिछले कुछ दिनों से मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के वरिष्ठ नेताओं ने सत्ता पक्ष को निशाना बनाने के लिए अमर्यादित तरीके से प्रहार करने की रणनीति अपनाई है. हालांकि इस मामले में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने भी बहती गांगा में हाथ साफ किया और तेजस्वी के निजी सचिव के खिलाफ कथित यौन उत्पीड़न के कागजात पेश कराए.

बेटियों के साथ हुए अन्याय की आड़ में राजनीतिक रोटी सेंकना सही नहीं

नेताओं की जाती राजनीतिक महत्वाकांक्षा के तहत विरोधियों की छवि धूमिल कर अपने आकाओं को खुश करने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं. तर्कों और तथ्यों के सहारे तो इसे एक हद जायज ठहराया भी जा सकता है लेकिन बिना किसी बुनियाद के कतई नहीं. बिहार की बेटियों के साथ जो कुछ हुआ उसकी आड़ में राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश में नीतीश कुमार और उनके सहयोगियों को चुनिंदा तरीके से ‘उत्पीड़क’ साबित करने की कोशिश बिहारी कट्टे की शक्ल ले सकती हो जो अक्सर बैकफायर करता है.

नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने जिस संजीदगी पर आक्रामकता से इस मामले पर आरजेडी का रूख सार्वजनिक किया ठीक उसके विपरीत भाई वीरेंद्र और शिवानंद तिवारी सरीखे नेताओं ने मुद्दा केंद्रित अटैक को निजी सनसनीखेज आरोपों के जरिए भटकाने की कोशिश की. तेजस्वी को अपने स्वयंभू कमांडरों को जद में लाने की जरूरत है. इसका कारण ये भी है कि शिवानंद जैसे नेता इमरजेंसी के जमाने की भूमिका गिना-गिनाकर अपने को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश करते आए हैं. इसके उलट असल राजनीतिक जीवन में ऐसे समाजवादी हर दरबार में घुटने टेक उसके मुखिया के कंधे का इस्तेमाल बंदूक चलाने के लिए करते आए हैं.

सीबीआई को मुजफ्फरपुर मामले की जांच सौंपने के बाद मंजू वर्मा का इस्तीफा हो चुका है. इसमें कोई शक नहीं कि इन दोनों फैसलों के पीछे विपक्ष का दबाव भी काम आया. विपक्ष के पास सरकार पर दबाव बनाने का मौका है. बनाए, लेकिन निजी चारित्रिक हनन से बाज आए.

विपक्ष को इन तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए

विपक्ष को तीन चीजों पर गौर करना चाहिए. पहला, आरोप मढ़ने के लिए कैमरे के सामने जाने वाली की निजी विश्वसनीयता कैसी है. दूसरा, जिस पर चारित्रिक चोट करना है उसका कोई पुराना इतिहास रहा है या ये सिर्फ पूर्वाग्रह से प्रेरित है. तीसरा, कालांतर में इस तरह के आरोपों का राजनीतिक प्रतिफल.

इन सभी मानकों पर हालिया हमला आरजेडी का भटकाव है. दरअसल नीतीश कुमार पर निजी चारित्रिक हमले का प्रतिफल सर्वविदित है. तब विपक्ष की नेता राबड़ी देवी थीं. 2009 का चुनाव था. उन्होंने नीतीश पर दो ट्रेनों के नामकरण को लेकर हमला बोला. नतीजा, 40 में 32 सीटें जेडीयू-बीजेपी के पाले में गईं. अगले विधानसभा चुनाव में आरजेडी 22 पर सिमट गई. सिर्फ यही कारण था, ऐसा नहीं है, पर इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि जनता के मन मस्तिष्क में हर नेता की एक छवि होती है और उसे बिगाड़ने का प्रयास विफल होने पर खामियाजा भुगतना पड़ता है. आज वो दो रेलगाड़ियां भी चल रही हैं और नीतीश की सीएम की कुर्सी भी बरकरार है.

हालांकि तेजस्वी ने खुद भी पिछले साल नवंबर में पुराना राग छेड़ा था. इसका कारण भी था. तब तेजस्वी की कुछ पुरानी तस्वीरें नीतीश के सिपहसालारों ने सामने लाई थी जिनका मौजूदा राजनीतिक पटल पर कोई औचित्य नहीं है. ऐसी स्थितियों में विपक्ष को नीतीश से सीखना चाहिए. धीरज और चुप्पी राजनीति के अकाट्य हथियार हैं. खासकर तब जब आपको अपने ऊपर लेशमात्र भी संदेह न हो.

राजनीतिक शुचिता वक्त का तकाजा है

हालिया विपक्षी हमलों में इस बात का ध्यान रखा गया कि नीतीश के निजी व्यक्तित्व को प्रहार से मुक्त रखा जाए. फिर उनके निकटवर्ती नेताओं को चुना गया. आरसीपी अपने कथित टैक्स के लिए पहले से ही निशाने पर थे. तो शिवानंद ने आनन-फानन में बुलाए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में संजय झा पर अनर्गल आरोपों की झड़ी लगा दी. लेकिन नीरज कुमार की तरह कुछ निरर्थक और अप्रासंगिक सबूत दिए बिना.

अगर तेजस्वी ने खुद उनके कंधे पर रख बंदूक चलाई है, तो रणनीति ठीक नहीं है क्योंकि यहां पूर्वाग्रह का पुट ज्यादा दिखाई देता है. सूबे में पिछले साल आए राजनीतिक भूचाल के पीछे जिन कुछ नेताओं की भूमिका थी उनमें संजय झा भी शामिल हैं. संजय झा को पर्दे के पीछे सक्रिय रह कर महागठबंधन से नीतीश के अलग होने और बीजेपी के साथ जाने की पटकथा का सह लेखक माना जाता है. शायद इसीलिए रातों-रात सरकार बदलने के बाद लालू यादव ने संजय झा पर तीखे प्रहार किए थे. अगर हालिया हमला उस पूर्वाग्रह से प्रेरित है तो विपक्ष फिर बुनियादी चूक कर रहा है.

वहीं जेडीयू प्रवक्ताओं को भी इसका भान होना चाहिए कि युवा नेतृत्व के मानक पर उनकी टोली में सूनापन है और ये तेजस्वी की बड़ी ताकत है. ऐसे में राजनीतिक शुचिता वक्त का तकाजा है. खासकर तब जब अटलजी की याद में हमारी आंखें सजल हैं. शायद बिहार से उनके लिए यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.