Sunday, December 22
अपने पैरों पर खड़ा होना होगा और सबसे बेहतर तरीके से अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़नी होगी. तो अपने गुस्से को बनाए रखिए और शक्ति को इकट्टठा कीजिए. सत्ता और सम्मान आपके पास संघर्ष के जरिए ही आएगा.’

राज वशिष्ठ


हमें तैयार रहना चाहिए कि जिस ब्राह्मणवाद के खिलाफ बाबा साहेब ने आरक्षण की मांग की थी अब ब्राह्मण समाज खुद को उपेक्षित मानता हुआ सड़कों पर बस-ट्रक फूंकता दिखाई दे

इसके कई कार्न हैं ओर शायद सबसे बड़ा यह कि तमाम मेहनत (99%) के बावजूद सुवर्ण तबका आरक्षण के 9% से हार जाता है


भारतीय संविधान में आरक्षण न शामिल किए जाने की बात पर संविधान सभा से इस्तीफे की पेशकश कर देने वाले भीम राव आंबेडकर आखिर किस सत्ता और सम्मान के लिए लोगों की शक्ति इकट्ठा करने की बात कह रहे थे. दरअसल आजादी के पहले भारतीय समाज की जो संरचना थी उसमें संपत्ति और संसाधनों पर अधिकार सवर्ण जातियों के पास ही हुआ करते थे जिसके खिलाफ बिगुल फूंकने का काम भीम राव आंबेडकर ने किया. लेकिन वक्त जैसे-जैसे गुजरा आरक्षण की परिधि चौड़ी होती गई है. आरक्षण की शुरुआत जिन सवर्ण तबकों के खिलाफ शुरू हुई थी वो ही तबके धीरे-धीरे खुद के लिए आरक्षण का कवच मांगने लगे. कह सकते हैं कि आरक्षण की पूरी अवधारणा ही उलट गई.

 

एक उदाहरण से समझें तो जिस महाराष्ट्र के रहने वाले भीम राव आंबेडकर थे उस महाराष्ट्र में दलितों को प्रताड़ित करने के आरोप सबसे ज्यादा मराठाओं पर ही लगते हैं. जिस मराठा साम्राज्य की गौरव गाथा महाराष्ट्र में गाई जाती हैं उस मराठा साम्राज्य में दलितों की स्थिति सबसे ज्यादा विदीर्ण थी. और शायद यही वजह है जिसकी वजह से मराठा साम्राज्य के खिलाफ वहां के दलितों ने अंग्रेजों का साथ दिया था जिसका जश्न हर साल मनाया जाता है और भीमा-कोरेगांव हिंसा भी उसी दिन हुई थी. अब वही मराठा समुदाय आरक्षण की मांग कर रहा है. और आरक्षण मांगने का अंदाज ‘मराठा स्टाइल’ में ही है. अब सोचिए क्या भीमराव आंबेडकर की आरक्षण की पूरी अवधारणा इस मराठा आंदोलन के बाद उलटी नहीं हो गई है? यानी जिन पर प्रताड़ना का आरोप था आज वही खुद को प्रताड़ित दिखा रहे हैं.

बड़े जातीय आंदोलनों की परिणति

संविधान निर्माण के समय जब भीमराव आंबेडकर आरक्षण की बात पर संविधान सभा से इस्तीफा तक देने को तैयार थे तो उस समय देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी आरक्षण का एक मजबूत पक्ष रखा था. वल्लभ भाई को संशय था कि अगर आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की जाएगी तो धीरे-धीरे ये अन्य जातियों में भी फैलेगा. लेकिन आंबेडकर अड़े रहे और वल्लभ भाई अपने संशय के बावजूद उनके सामने झुक गए लेकिन इतिहास ने दोनों दूरदर्शियों को सही साबित किया. आगे चलकर जैसे आरक्षण ने पिछड़ी जातियों को मजबूत करने और मुख्यधारा में जोड़ने में काफी हद तक भूमिका निभाई तो वल्लभ भाई का वो संशय भी सही साबित हुआ कि वक्त गुजरने के साथ आरक्षण की मांग अन्य जातियों में अपना पैर पसारेगी.

एक मजेदार बात यह भी देखिए कि सरदार वल्लभ भाई पटेल गुजरात की जिस पाटीदार बिरादरी से ताल्लुक रखते थे वो राज्य की सबसे मजबूत जातियों में गिनी जाती है. गुजरात की राजनीति में वर्तमान समय सबसे ज्यादा छाए रहने वाले चेहरे हैं हार्दिक पटेल. उनकी ख्याति की वजह है अनामत आंदोलन. मतलब सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जो संशय जाहिर किया था उसने उनकी ही बिरादरी को घेर लिया.

इतना ही राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा के जाट, आंध्र प्रदेश के कापू दशकों से आरक्षण की मांग करते रहे हैं. अब मराठा भी कुछ सालों से इनमें शामिल हो गए हैं. ये सभी जातियां अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक और सामाजिक रसूख रखने वाली जातियां हैं.

गुर्जर आंदोलन

1990 में बने गुरनाम सिंह कमीशन ने जाट समुदाय को ओबीसी वर्ग में रखा था. लेकिन सालों तक चले वादों के खेल के बावजूद इस जाति के लोगों को ओबीसी स्टेटस नहीं मिला. 10 साल के शासन के बाद जब यूपीए की सरकार के आखिरी दिन तो केंद्र ने इस जाति को ओबीसी लिस्ट में डाल दिया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस प्रावधान को खारिज कर दिया और जाट फिर वहीं खड़े हो गए जहां खड़े थे. हालांकि जाट उतनी बुरी जगह नहीं खड़े थे जहां वो खुद को दिखाना चाहते थे. क्यों!!!

दरअसल जिस हरियाणा में जाटों ने ओबीसी स्टेटस पाने के लिए करोड़ों की संपत्ति फूंक डाली उस राज्य में तकरीबन 50 प्रतिशत के आस-पास जमीनों पर कब्जा जाट समुदाय का ही है. इसी वजह से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने सितंबर 2014 में जाटों सहित चार अन्य जातियों को राज्य के स्पेशल बैकवर्ड क्लास के प्रावधान से भी बाहर कर दिया था.

कुछ ऐसी ही दिलचस्प कहानी गुजरात के पाटीदारों की भी है. मूल तौर पर पाटीदार नाम ही पट्टी यानी खेत से निकला हुआ है. आजादी के बाद गुजरात के पाटीदार समुदाय ने राजनीति से लेकर सामाजिक हैसियत बेहद मजबूत की है. लेकिन पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल को खूब प्रसिद्धि मिली.

कुछ ऐसा ही हाल आंध्र के कापू और राजस्थान के गुर्जरों का है. दोनों ही राज्यों में इन जातियों का जबरदस्त प्रभाव है लेकिन आरक्षण की मांग दिन ब दिन बलवती होती जा रही है.

मराठा समुदाय तो महाराष्ट्र की लड़ाका कौम के तौर पर देखा जाता है. इस समुदाय की सामाजिक हैसियत ब्राह्मणों के ठीक बाद वाली श्रेणी में गिनी जाती है. मराठी जातियों पर रिसर्च करने वाली समाज विज्ञानी शर्मिला रेगे ने अपनी किताब:

Writing Caste/Writing Gender: Narrating Dalit Women’s Testimonies’

में लिखा है-‘ महाराष्ट्र में पारंपरिक जातीय संरचना के हिसाब से ब्राह्मण सबसे ऊपर आते हैं. उसके बाद मराठा जातियां आती हैं और उसके बाद महार व अन्या एससी जातियां. ‘

भारतीय समाज में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक रूप से पिछड़ेपन की व्यवस्था को ठीक करने के लिए शुरू किया गया था. लेकिन ऊपर दी गई सभी जातियां दशकों से आरक्षण के लिए आंदोलनरत हैं जबकि सामाजिक स्थिति के आधार पर देखा जाए तो सभी तकरीबन रसूख वाली जातियां ही हैं.

जातियों को आरक्षण के जरिए दिए जा रहे प्रलोभन

मजबूत जातियों द्वारा भी आरक्षण की मांग से इतर राजनीतिक पार्टियां भी इसे चुनावी हथकंडे के तौर पर अपनाने लगी हैं. जातियों को आरक्षण देने को नेताओं के मास्टर स्ट्रोक के तौर पर देखा जाता है. बिहार में दलित से अलग महादलित वाले फैसले को नीतीश कुमार की राजनीतिक महारत के तौर पर ही देखा जाता है. लेकिन क्या आरक्षण की शुरुआत के पीछे भी यही ‘लॉलीपॉप’ की अवधारणा थी? बिल्कुल नहीं. ये समाज के वंचित तबकों को सरकारी मदद के जरिए ताकतवर बनाने के प्रयास भर था जो वीभत्स राजनीतिक रूप लेता चला जा रहा है.

इसी साल अप्रैल महीने में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने उच्च जातियों को 15 फीसदी आरक्षण दिए जाने के वकालत कर दी है. इससे इतर राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड में ब्राह्मण आरक्षण की मांग उठ चुकी है. जिस तरीके मराठा आंदोलन अपना उग्र रूप धारण किए हुए है बहुत मुश्किल नहीं कि देश भर में ब्राह्मण और क्षत्रियों का संगठन बनाकर इनके लिए भी आरक्षण की मांग शुरू कर दी जाए.

रामविलास पासवान

संविधान निर्माण के समय आरक्षण के प्रावधान के साथ ही 10 सालों में इसकी समीक्षा किए जाने की भी बात कही गई थी जिसका उद्देश्य निश्चित रूप से यही होगा कि आरक्षित समाज के तबकों का अध्ययन कर धीरे-धीरे इसे कम किया जाए. लेकिन 20वीं सदी के मध्य में आजादी पाने वाला भारत 21वीं सदी की शुरुआत में आरक्षण की जकड़न में और फंसता हुआ दिखाई दे रहा है. हमें तैयार रहना चाहिए कि जिस ब्राह्मणवाद के खिलाफ बाबासाहेब ने आरक्षण की मांग की थी अब ब्राह्मण समाज खुद को उपेक्षित मानता हुआ सड़कों पर बस-ट्रक फूंकता दिखाई दे.