‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’ पुण्यतिथि विशेष
बाल गंगाधर तिलक को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है
‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’ तिलक
तिलक स्वराज फंड मे जुटाये 1 करोड़ से अधिक रुपए
गुलाम भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ शुरू हुए महात्मा गांधी के पहले अभियान यानी असहयोग आंदोलन को साल 1921 में एक साल बीत चुका था. आंदोलन की आग देश भर में फैल रही थी. लेकिन किसी भी आंदोलन को चलाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी चीज यानी पैसे की कमी शिद्दत के साथ महसूस की जा रही थी.
ऐसे में महात्मा गांधी ने देश की जनता से आंदोलन के लिए आर्थिक सहयोग लेने का फैसला किया. एक साल से भी कम वक्त के भीतर एक करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा गया. उस दौर में एक करोड़ रुपए बहुत बड़ी रकम थी. लोगों को शक था कि इतना बड़ा लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता.
तिलक के नाम का जलवा
गांधी जी जानते थे कि यह लक्ष्य एक ही व्यक्ति के नाम पर पूरा हो सकता है. और वह थे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक. तिलक का स्वर्गवास हुए एक साल हो चुका था और गांधी जी ने उन्हीं की पुण्य तिथि पर इस कोष को नाम दिया ‘तिलक स्वराज फंड’.
देश के जनमानस के भीतर लोकमान्य तिलक नाम का प्रभाव इतना अधिक था कि तय वक्त में एक करोड़ रुपए जुटाने का असंभव सा दिखने वाला लक्ष्य भी पूरा हो गया. देश के स्वतंत्रता आंदोलन के जनक कहे जाने वाले तिलक का स्वर्गवास आज से ठीक 97 साल पहले यानी एक अगस्त 1920 को हुआ था. लोकमान्य के नाम से मशहूर बाल गंगाधर तिलक को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है.
भारत की आजादी के सबसे बड़े नायक माने जाने वाले महात्मा गांधी के साल 1915 में भारत वापस आने से पहले ही, देश में ब्रिटिश राज के खिलाफ आम जनता के बीच बगावत का बिगुल बज चुका था और इसका श्रेय तिलक को ही जाता है.
गणेश उत्सव को बनाया अंग्रेजों के खिलाफ हथियार
23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में जन्मे बाल गंगाधर तिलक देश की उस पहली पीढ़ी में से एक थे जिसने ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था के तहत कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी. पढ़ाई पूरी करने बाद तिलक एक स्कूल में गणित के शिक्षक भी रहे. लेकिन नियति ने तो उनको भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का जनक बनाना निर्धारित किया था.
जल्दी ही तिलक ने नौकरी छोड़ दी और वह पत्रकारिता करने लगे. तिलक के लेखों की भाषा इतनी तीखी होती थी कि वह अंग्रेज सरकार के सीने में नश्तर की तरह चुभती थी.
तिलक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ देशवासियों को एकजुट करके घरों से बाहर निकालना चाहते थे. और इस काम के लिए उन्होंने बेहद नायाब तरीका ईजाद किया. महाराष्ट्र में घर-घर में मनाए जाने वाले गणेश महोत्सव को तिलक ने घरों से बाहर मनाने की अपील की. इसी बहाने लोगों को एक साथ जागरुक और संगठित किया जा सकता था.
तिलक का विचार काम कर गया. गणेश उत्सव के सहारे भारतीय जनता संगठित होने लगी. आज हम गणेश उत्सव का जो मौजूदा स्वरूप देखते हैं वह तिलक की ही देन है. तिलक ने अपनी बुद्धिमत्ता से एक त्योहार को ब्रिटिश राज के खिलाफ लोगों की अभिव्यक्ति का साधन बना दिया.
बदल दिया कांग्रेस का स्वरूप
साल 1890 में तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए थे. कांग्रेस में शामिल होने के बाद तिलक ने उसके स्वरूप को ही बदल डाला. इससे पहले कांग्रेस को ब्रिटिश राज को ठीक तरह से चलाने में इस्तेमाल होने वाले औजार की तरह ही देखा जाता था.
लेकिन तिलक के राष्ट्रवाद ने कांग्रेस के चरित्र को बदल दिया और वह भारतीय जनमानस की वास्तविक अभिव्यक्ति का प्रतीक हो गई. इस दौरान तिलक पर देशद्रोह के आरोप लगे और वह जेल भी गए लेकिन ब्रिटिश सरकार के जुल्म, तिलक के हौसले और विश्वास को नहीं डिगा सके.
कांग्रेस के भीतर भी तिलक को जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा. लेकिन तिलक को भी बंगाल के बिपिन चंद्र पाल और पंजाब के लाला लाजपत राय जैसे देशभक्त नेताओं का साथ मिला. कांग्रेस के भीतर नरम दल और गरम दल की राजनीति शुरू हुई. तिलक गरम दल के अगुआ बने और यह तिकड़ी ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से मशहूर हो गई. कांग्रेस के नरम दल की कमान गोपाल कृष्ण गोखले के हाथ में थी.
देश में सबसे पहले की स्वराज की मांग
गांधी-नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार लाहौर में साल 1929 में पूर्ण स्वराज की मांग की थी. लेकिन स्वराज का यह नारा तिलक उससे कई साल पहले ही बुलंद कर चुके थे. तिलक का नारा ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’ हर भारतीय की जुबान पर था.
साल 1905 में जब वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तो तिलक के इस नारे ने पूरे देश को एकजुट कर दिया. आयरिश महिला श्रीमती एनी बेसेंट के साथ मिलकर तिलक ने देश में स्वराज की मांग करते हुए आयरलैंड की तर्ज पर होमरुल आंदोलन की शुरूआत की. यह वही वक्त था जब महात्मा गांधी भारत वापस लौटे थे. धीरे-धीरे यह आंदोलन बड़ा होता चला गया.
महात्मा गांधी के हाथों में सौंपी अपनी विरासत
महात्मा गांधी भले ही कांग्रेस में नरम दल के नेता गोपालकृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, लेकिन गांधी जी के आंदोलनों ने जो कामयाबी हासिल की उसकी नींव तो तिलक ने ही रखी थी.
तिलक और गांधी जी की कार्यप्रणाली और विचारों में भले ही मतभेद हों लेकिन तिलक जानते थे कि भारत की आजादी के ख्वाब को वास्तविकता में बदलने का माद्दा गांधी जी में ही है. लिहाजा तिलक ने स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर गांधी जी को सौंपने में बिल्कुल देरी नहीं की.
साल 1920 में एनी बेसेंट और तिलक द्वारा खड़ी की गई होमरुल लीग की अध्यक्षता महात्मा गांधी को सौंप दी गई. इसी साल गांधी जी देश में अपने पहले बड़े अभियान यानी असहयोग आंदोलन की शुरूआत की.
और संयोग देखिए जिस दिन यानी एक अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन की शुरूआत हुई उसी दिन लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का स्वर्गवास हो गया. ऐसा लगता है जैसे तिलक बस उस दिन के इंतजार में थे जब वह किसी काबिल देशभक्त के हाथों में अपनी विरासत सौंप सकें.
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