राम सकाल ही क्यूँ?
बीजेपी और सरकार का हर कदम अब लोकसभा चुनाव 2019 को ध्यान में रखकर उठाया जा रहा है
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राज्यसभा के लिए जिन चार नामों को मनोनीत किया है, उसमें उत्तरप्रदेश के रहने वाले रामसकल भी शामिल हैं. रामसकल यूपी में रॉबर्टसगंज से तीन बार सांसद भी रह चुके हैं. आरएसएस के जिला प्रचारक रह चुके रामसकल जमीनी स्तर के संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता रहे हैं.
बीजेपी में आने से पहले वो संघ के जिला प्रचारक के तौर पर काम कर रहे थे. दलित समुदाय के भीतर अपनी पैठ रखने वाले रामसकल की छवि एक जमीनी कार्यकर्ता की रही है. लेकिन, संघ में बेहतर छवि वाले इस दलित समुदाय के नेता को बीजेपी में शामिल कर सक्रिय राजनीति में उतार दिया गया.
तीन चुनाव में जीते, चौथी बार टिकट नहीं मिला
सक्रिय राजनीति में कदम रखने के बाद रामसकल ने रॉबर्ट्सगंज से लगातार तीन चुनावों में जीत दर्ज की. सबसे पहले 1996 में सांसद बनने वाले रामसकल को 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में भी जीत मिली. लेकिन, 2004 में पार्टी की तरफ से उन्हें दोबारा टिकट नहीं मिला.
टिकट नहीं मिलने के बाद रामसकल सक्रिय राजनीति से काफी दूर हो गए. लेकिन, अपनी सादगी वाली जिंदगी और समाज सेवा के काम को उन्होंने जारी रखा. रामसकल हमेशा किसानों, मजदूरों और दलितों के हितों की बात करते रहे हैं और इस तबके के विकास और कल्याण के लिए तत्पर रहे हैं.
उनकी पहचान एक किसान और दलित नेता के तौर पर रही है. दलितों के उत्थान और उनके विकास के लिए रामसकल ने अपना पूरा जीवन खपा दिया है. वो किसानों और मजदूरों की आवाज बनकर काम करते रहे हैं. अब एक बार फिर से उन्हें मनोनीत करने का फैसला कर सरकार ने यूपी के भीतर दलित कार्ड खेला है.
बीजेपी कर रही है गेमप्लान में बदलाव
बीजेपी और सरकार का हर कदम अब लोकसभा चुनाव 2019 को ध्यान में रखकर उठाया जा रहा है. बीजेपी इस फैसले को भुनाने की पूरी कोशिश भी करेगी. दरअसल, यूपी के भीतर बीजेपी के सामने लोकसभा चुनाव 2014 और विधानसभा चुनाव 2017 के प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती है. खासतौर से गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा के उपचुनाव में हार के बाद बीजेपी की चिंता और बढ़ गई है.
इन उपचुनावों की हार का विश्लेषण कर बीजेपी अब 2019 की लड़ाई के लिए अपने गेम-प्लान में बदलाव की तैयारी कर रही है. पार्टी के रणनीतिकार हर वो कदम उठाने को तैयार हैं जिससे पिछले प्रदर्शन को दोहराया जा सके. सूत्रों के मुताबिक, इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी के यूपी के कई दलित सांसद इस बार पाला बदलकर बीएसपी का रूख कर लें. समय-समय पर सावित्री बाई फूले औऱ छोटेलाल खरवार जैसे दलित सांसदों की नाराजगी भी सामने आ जाती है.
बीजेपी ने इसी नाराजगी को खत्म करने के लिए दलित कार्ड खेला है. पार्टी को लगता है कि नए दलित चेहरों को सामने लाने के साथ-साथ पुराने जमीनी दलित समुदाय के चेहरों को संगठन और सरकार में तरजीह देकर दलित वोट बैंक को खिसकने से रोका जा सकता है. रामसकल को राज्यसभा भेजने का फैसला उसी रणनीति का नतीजा है.
राष्ट्रपति का चुनाव भी यही संदेश देने के लिए था
यूपी के भीतर दलित समुदाय को साधने की कोशिश पहले से ही होती रही है. बीजेपी ने जब रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था तो उसके पीछे भी यूपी के दलित समुदाय में एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की थी. ऐसा कर बीजेपी आने वाले लोकसभा चुनाव में फिर से दलित समुदाय को अपने साथ जोड़े रखने की कोशिश कर रही है.
लेकिन पिछले पांच सालों में बहुत हद तक बदलाव भी देखने को मिला है. देश में अलग-अलग जगहों पर दलित समुदाय के खिलाफ हिंसा की घटना को लेकर विपक्षी दलों ने लगातार बीजेपी औऱ आरएसएस को दलित विरोधी बताने की कोशिश की है. कांग्रेस से लेकर बीएसपी तक सबने बीजेपी को कठघरे में खड़ा किया है. रामसकल जैसे दलित नेताओं को सामने लाकर विपक्षी दलों की इसी कोशिश को बीजेपी विफल करना चाहती है.
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