समय कम है और राज्य स्तर के नेताओं पर दबाव काफी है, लेकिन ये तो तय है कि राहुल गांधी का जो भी फैसला होगा-उससे कांग्रेस में भगदड़ तो मचेगी.
2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो का चुनाव है. गठबंधन की गाड़ी पर सवार कांग्रेस हर राज्य में अपना साथी तलाश रही है. बड़े-बड़े राज्यों पर खास तौर से कांग्रेस की नजर है. ऐसे ही एक बड़े राज्य पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की गाड़ी अटक रही है. साथी की तलाश में बंगाल में उसके सामने दो विकल्प हैं और यही विकल्प उसके लिए गले की हड्डी बने हुए हैं. कांग्रेस में चुनावी तालमेल के सवाल पर दो गुट आमने-सामने हैं.
इनमें से एक गुट सीपीएम की अगुवाई वाले वाममोर्चा के साथ तालमेल जारी रखने की वकालत कर रहा है तो दूसरा गुट तृणमूल कांग्रेस के साथ एक बार फिर हाथ मिलाने के पक्ष में है. ऐसे में कांग्रेस काफी पसोपेश में है. वामदलों ने 2004 में कांग्रेस की यूपीए सरकार को समर्थन दिया था और यहीं से केंद्र में उनकी दोस्ती शुरू हो गई थी, जबकि राज्य में कांग्रेस और वामदल धुरविरोधी थे. आपातकाल के बाद कांग्रेस का विरोध कर ही वामपंथी दलों ने बंगाल पर जीत हासिल की थी. उस जीत का साइड इफेक्ट इतना भयंकर रहा कि कांग्रेस बंगाल में खत्म सी हो गई है.
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस
देश के आजादी के बाद पश्चिम बंगाल में 1967 तक कांग्रेस का शासन रहा. उसके बाद राज्य में समस्याओं का दौर शुरू हो गया. 1967 से 1980 के बीच का समय पश्चिम बंगाल के लिए हिंसक नक्सलवादी आंदोलन, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप का समय रहा. इन संकटों के बीच राज्य में आर्थिक गतिविधियां थमी सी रहीं. साथ ही राज्य में राजनीतिक अस्थिरता भी चलती रही. 1947 से 1977 तक राज्य में सात मुख्यमंत्री बदले और तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा. आपातकाल के देश में परिवर्तन की लहर चली तो पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का परिवर्तन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा या लेफ्ट फ्रंट ने सत्ता संभाली.
वाममोर्चे के नीतियों का वहां की जनता पर काफी सकारात्मक असर हुआ और राज्य में कांग्रेस की स्थिति लगातार इतनी कमजोर होती गई कि अगले 34 सालों तक यानी वर्ष 2011 तक राज्य में वामपंथियों को सत्ता से कोई हटा नहीं पाया. हालांकि कांग्रेस के अनुभवी नेता प्रणब मुखर्जी का कांग्रेस में दबदबा कायम रहा लेकिन वे पश्चिम बंगाल में ऐसी जमीन तैयार नहीं कर पाए जहां खड़े होकर वे वाममोर्चे को चुनौती देते.
प्रियरंजन दासमुंशी जैसे लोकप्रिय नेता भी हुए लेकिन उनका क़द कभी इतना बड़ा नहीं हो सका कि वे वामपंथियों के लिए कांग्रेस को चुनौती के रूप में खड़ा करते. अलबत्ता युवा कांग्रेस के जरिए राजनीति में आईं तेज-तर्रार नेता ममता बैनर्जी ने अपनी जमीन जरूर तैयार की और उसका पर्याप्त विस्तार भी किया. पहले उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाई और फिर धीरे-धीरे अपनी पार्टी को कांग्रेस से बड़ा कर लिया. अब ममता बनर्जी की पार्टी की स्थिति वही है जो कि अस्सी या नब्बे के दशक में बंगाल में जो स्थिति वामपंथ की थी.
उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद देश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीट वाला राज्य है पश्चिम बंगाल. यहां पर लोकसभा की 42 सीटें हैं. साल 2014 में तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में मौजूद 42 सीटों में से 34 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था. जबकि कांग्रेस को चार, वामदलों को दो और बीजेपी को दो सीटें मिली थी. साल 2016 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बंगाल में अपने धुरविरोधी रहे वामदलों के साथ गठबंधन किया था लेकिन कांग्रेस को खास सफलता नहीं मिली. विधानसभा के कुल 294 सीटों में से कांग्रेस सिर्फ 44 पर ही जीत मिली.
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) को 26 सीटें मिली थीं. बीजेपी को एक और तृलमूल कांग्रेस ने भारी जीत के साथ 211 सीटों पर कब्जा किया था. अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका में है और कांग्रेस उसकी छोटी सहयोगी पार्टी के रूप में. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में मिलकर चुनाव लड़ा था. उस वर्ष तृणमूल कांग्रेस को 19 सीटें और कांग्रेस को छह सीटें हासिल हुई थीं. वामदल को 15 और बीजेपी को एक सीट हासिल हुई थी.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का दबाव बना रहे हैं. पार्टी के ज्यादातर नेताओं ने ममता के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की पैरवी की है. पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और विधायक मोइनुल हक सहित लगभग आधा दर्जन विधायक तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन न होने की सूरत में पार्टी छोड़ सकते हैं.
ऐसे में कांग्रेस के सामने पश्चिम बंगाल में पार्टी को टूट से बचाने की चुनौती खड़ी हो गई है. मोइनुल हक ने बयान दिया था कि अगर हम अकेले भी लड़ते हैं तो कोई फायदा होने वाला नहीं है. अगर हम तृणमूल कांग्रेस के साथ जाएंगे तो कुछ सीटें आ जाएंगी. लेफ्ट के साथ जाने का मतलब खुदकुशी करना है. कांग्रेस को ममता बनर्जी साथ लेगी तो उनको भी फायदा है इनको भी फायदा है.’
राहुल की मुश्किल यह है कि पार्टी का एक खेमा वामपंथी दलों के साथ तालमेल करने की बात कर रहे हैं तो वहीं तरफ कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो पार्टी को मजबूत करने के लिए अकेले चुनाव लड़ने पर जो डाल रहे हैं. प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी का झुकाव वामपंथ की तरफ है. उनका कहना है कि कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटेगा अगर कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. इससे पार्टी और कमजोर होगी.
तृणमूल कांग्रेस ने वामदल का कैडर तोड़ कर अपनी तरफ कर लिया है. वहीं तरीका वो कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ भी कर रही है. पार्टी के कुछ नेताओं का मानना है कि ममता के साथ जाने का मतलब बंगाल से कांग्रेस का नामोनिशान खत्म करना है. वहीं दीपा दासमुंशी जैसे कुछ नेता पार्टी को मजबूत करने की बात कर रहे हैं यानी पार्टी अकेले चुनाव लड़े. इनका मानना है कि हो सकता है पार्टी को कम सीटें मिले लेकिन जमीनी कार्यकर्ताओं को बल मिलेगा और कांग्रेस की जमीन मजबूत होगी.
कांग्रेस नेताओं की दूसरी परेशानी बीजेपी का राज्य में बढ़त कायम करना है. पंचायत चुनाव में बीजेपी दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी है. बंगाल में बीजेपी ने करीब 32000 ग्राम पंचायत सीटों में से 5700 से अधिक में जीत दर्ज की थी. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 17.02 वोट शेयर हासिल करने में सफलता पाई थी जो 2009 की तुलना में करीब 6.4 प्रतिशत अधिक था.
2016 के विधानसभा चुनाव में उसे 10.16 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त हुए थे. पंचायत चुनाव में अच्छा-प्रदर्शन करके बीजेपी ने बता दिया है कि जमीनी स्तर पर भी अब उसने आपको मजबूत कर लिया है. ये स्थिति कांग्रेस के नेताओं को डरा रही है. बीजेपी की बढ़त और हिन्दुत्व की तरफ लोगों का रुझान कांग्रेस के नेताओं के लिए सरदर्द बनता जा रहा है. बंगाल के भद्रलोगों में बीजेपी काफी लोकप्रिय हो रही है.
हालांकि ममता बनर्जी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी की बांग्लादेश यात्रा में ममता के शामिल होने पर राहुल गांधी ने तंज कसा था- ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच सांठ-गांठ का आरोप लगाते हुए कहा था कि जब यूपीए की सरकार थी और तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बांग्लादेश जाना चाहते थे तब ममता बनर्जी ने हमसे कहा, ‘नहीं, एकला चलो रे’. लेकिन जब प्रधानमत्री मोदी गए तो ममता वहां पर चल दी. ममता को ये बयान काफी तीखा लगा था.
फिर उन्हें कांग्रेस और वामदलों की नजदीकी भी पसंद नहीं आई थी. कांग्रेस ने ममता बनर्जी के बजाय वाम दलों को ज्यादा तरजीह देते हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वाम दलों के साथ गठबंधन किया था, जबकि ममता कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को इच्छुक थीं. पश्चिम बंगाल में बड़ी जीत के बाद ममता बनर्जी ने कहा था कि किस तरह वह विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से गठबंधन के लिए दिल्ली में तीन दिनों तक थीं, लेकिन पार्टी के किसी नेता ने बात तक नहीं की.
यही वजह थी कि ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे के लिए बेकरार थीं. इसके प्रयास में उन्होंने दिल्ली से हैदराबाद तक नेताओं से मुलाकात की थी. उन्होंने सोनिया गांधी से भी मुलाकात की लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने से बचती रहीं. कहीं ना कहीं वो ये संदेश देना चाह रही थीं कि राहुल गांधी का नेतृत्व उन्हें पसंद नहीं हालांकि खुल कर उन्होंने कुछ नहीं बोला.
अभी चुनावों में काफी वक्त बाकी है और कांग्रेस के साथ ममता बनर्जी का गठबंधन होता है तो ये देखने वाली बात होगी कि वो बंगाल में कांग्रेस के लिए कितनी सीटें छोड़ती हैं. अगर वो अपनी पार्टी के बूते अकेले बंगाल में चुनाव लड़ती हैं तो उनका प्रदर्शन काफी बेहतर होगा. लेकिन अगर कांग्रेस ने 10-12 सीटें मांगीं तो वो नहीं देंगी क्योंकि वो जानती हैं कि कांग्रेस यहां पर कमजोर है.
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस राज्य में इतनी ताकतवर हो गई है कि उसे कांग्रेस की जरूरत नहीं है. अलबत्ता कांग्रेस के जिन नेताओं को चुनाव लड़ना है, वो तृणमूल कांग्रेस के साथ तालमेल करना चाहते हैं. बीजेपी की बढ़त के चलते कांग्रेस के लोगों का मानना है कि वामदल से तालमेल में ना कांग्रेस के हाथ कुछ आएगा बल्कि वोट भी बंटेगे. लेकिन तृणमूल कांग्रेस के साथ तालमेल के बाद कांग्रेस बीजेपी को ज्यादा मजबूत चुनौती देगी. इस मुद्दे पर पार्टी के करीब छह विधायक और एक सांसद पार्टी छोड़ने को तैयार बैठे हैं.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कांग्रेस नेतृत्व के कुंआ-खाई वाली स्थिति है. अगर तृणमूल से तालमेल नहीं करेगी तो चुनाव से पहले पार्टी से लोग भांगेंगे वहीं दूसरी तरफ तालमेल के बावजूद कांग्रेस को कुछ लाभ होगा भी ये अंदाजा लगाना मुश्किल है.
तृणमूल अपने में मजबूत पार्टी है लेकिन उसकी मजबूती से कांग्रेस को क्या लाभ होगा इसका अनुमान लगाना फिलहाल मुश्किल है. अब फैसला राहुल गांधी को लेना होगा कि कांग्रेस अपना तालमेल किससे करेगी. इस मुद्दे पर उन्होंने राज्य स्तर के नेताओं के साथ बैठक की है लेकिन अभी तक किसी फैसले पर नहीं पहुंचे. समय कम है और राज्य स्तर के नेताओं पर दबाव काफी है, लेकिन ये तो तय है कि राहुल गांधी का जो भी फैसला होगा-उससे कांग्रेस में भगदड़ तो मचेगी.