आधुनिक भारत के सबसे हाई प्रोफाइल प्रधानमंत्री और दिल्ली के इतिहास के सबसे लड़ाकू मुख्यमंत्री के बीच शह और मात का खेल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खत्म नहीं होगा
दिल्ली जुलाई 6 :
लंबे अरसे बाद दिल्ली की गद्दी पर कोई ऐसा नेता बैठा है, जिसकी ब्रांडिंग एक बेहद ताकतवर प्रधानमंत्री की है. ज़ाहिर है, पूरे देश की निगाहें पिछले चार साल से लगातार दिल्ली पर हैं. लेकिन दिल्ली के सुर्खियों में बने रहने की एक वजह और है.
ताकतवर केंद्र सरकार की छाती पर मूंग दलने के लिए शहर के बीचों-बीच एक ऐसा आदमी धरना देने वाली मुद्रा में डटा है, जिसे उसके विरोधी कभी पलटू तो कभी झगड़ू तो कभी एके-49 के नाम से बुलाते हैं. अगर नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत वाले पीएम हैं तो अरविंद केजरीवाल भी ऐतिहासिक बहुमत वाले सीएम हैं. दोनों की अपनी-अपनी फैन फॉलोइंग है. दोनों से चिढ़ने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी है. लेकिन इन दो समानताओं के बावजूद आपसी रिश्ता हमेशा से छत्तीस का रहा है. यकीनन भारतीय राजनीति के इतिहास में केंद्र और दिल्ली सरकार के टकराव की अनगिनत कहानियां शामिल होंगी. इन कहानियों का सिलसिला चार साल पहले शुरू हुआ था और अब तक जारी है.
करीब तीन हफ्ते पहले का वाकया है. सीएम केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के कुछ सहयोगियों के साथ दिल्ली के उप-राज्यपाल के घर दरवाजे पर धरना दे रहे थे. केजरीवाल का इल्जाम था कि उपराज्यपाल अनिल बैजल केंद्र के इशारे पर दिल्ली सरकार के हर काम में अंसवैधानिक तरीके से अड़ंगा लगा रहे हैं. उनकी शह पर दिल्ली के आईएस एक तरह की अघोषित हड़ताल पर हैं, जिसकी वजह से राज्य सरकार कई जन कल्याणकारी योजनाएं चाहकर भी लागू नहीं कर पा रही है.
उप राज्यपाल के बरामदे पर केजरीवाल का धरना लगातार नौ दिन तक जारी रहा. लेकिन उपराज्यपाल अनिल बैजल उनसे नहीं मिले. दिल्ली की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस धरने को कोई खास अहमियत नहीं दी और बीजेपी का सोशल मीडिया सेल लगातार केजरीवाल के खिलाफ कैंपेन चलाता रहा. इन सबके बीच उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अचानक प्रेस कांफ्रेस करके ऐलान किया कि आईएस अधिकारी काम पर लौट आए हैं, उन्होने सहयोग देने का वादा भी किया है, इसलिए अब धरने की कोई जरूरत नहीं है.
हालांकि नीति आयोग की बैठक के लिए आए चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल को समर्थन दिया था. इसके बावजूद उपराज्यपाल के घर से बैरंग लौट जाना केजरीवाल के लिए एक तरह की हार थी. विरोधियों ने इसका प्रचार भी इसी ढंग से किया. राजनीति के कई जानकारों ने भी `सियासी अनाड़ीपन’ के लिए केजरीवाल को कोसा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले ने पूरा खेल बदल दिया. इस फैसले की आम व्याख्या यही है कि केजरीवाल सही थे और उपराज्यपाल गलत.
केजरीवाल के साथ हमेशा से ऐसा ही होता आया है. शह और मात के खेल में वे बुरी तरह घिरे नजर आते हैं. लेकिन हालात अचानक कुछ इस तरह बदलते हैं कि हारी हुई बाजी पलट जाती है. इसे किस्मत की मेहरबानी कहें या फिर कानून का सहारा. केजरीवाल शह और मात के खेल में कई बार बचे हैं. ऑफिस ऑफ प्रॉफिट प्रकरण में भी कुछ ऐसा ही था. चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी थी और राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी दे दी थी. लेकिन हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया.
`आआपा’ लगभग छह साल पुरानी पार्टी है. आलोचकों का कहना है कि केजरीवाल ने एक राष्ट्रीय नेता बनने की जो संभावनाएं शुरू में दिखाई थी, उस पर वे खरे नहीं उतरे. उन्हें अब तक ढंग से राजनीति करनी नहीं आई. वे अब भी मुख्यमंत्री के बदले आंदोलनकारी ही नजर आते हैं.
देखा जाए तो इन आरोपों के पक्ष में कई जायज दलीलें हैं. लेकिन क्या वाकई केजरीवाल उस तरह की सियासत नहीं सीख पाए हैं, जिसे शास्त्रीय परिभाषा में `राजनीति’ कहते हैं, या वे जो कुछ कर रहे हैं, वही उनकी शैली है? शायद केजरीवाल यह जानते हैं कि पब्लिक मेमोरी बहुत छोटी होती है. इसलिए वे अपने तमाम राजनीतिक दांव खुलकर खेल रहे हैं. कामयाबी मिली तो ठीक, नहीं मिली गलती पर मिट्टी डालकर आगे बढ़ जाते हैं.
2013 में जब पहली बार अल्पमत के साथ केजरीवाल सत्ता में आए तभी से उन्होंने अपने दांव चलने शुरू कर दिए. अपने एक मंत्री के खिलाफ हुई कानूनी कार्रवाई को लेकर वे सीएम होते हुए सड़क पर आ डटे. धरने पर बैठे-बैठे फिल्मी स्टाइल में वे फाइलें साइन किया करते थे. वह पहला ऐसा मामला जिसने केजरीवाल की इमेज एक नौटंकीबाज की बनाई. 49 दिन तक चलने के बाद जब उनकी सरकार ने इस्तीफा दिया तो बीजेपी ने भगोड़ा करार देते हुए पूरी दिल्ली में उनके बड़े-बड़े पोस्टर लगवाए. लेकिन केजरीवाल को इसका नुकसान नहीं बल्कि फायदा ही हुआ और अगले चुनाव में आम आदमी पार्टी 70 में 67 सीटें जीत गई.
केंद्र सरकार के साथ टकराव को कुछ देर के लिए अलग रखें तब भी बतौर राजनेता केजरीवाल ने बहुत कुछ ऐसा किया है, जिससे राजनीतिक रूप से परिपक्व कदम नहीं माना जा सकता है. अपनी पार्टी के भीतर उपजे किसी भी असंतोष को वे ठीक से संभाल नहीं पाए. वैचारिक मतभेद होते ही उन्होने प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार जैसे उनकी थिंक टैक से जुड़े लोगों को फौरन बाहर का रास्ता दिखा दिया. कपिल मिश्रा प्रकरण में भी यही हुआ. पुराने साथी कुमार विश्वास को भी केजरीवाल संभाल नहीं पाए. शुरुआती दौर में देश भर की कई जानी-मानी हस्तियां आम आदमी पार्टी से जुड़ी थीं. लेकिन ज्यादातर लोग आहिस्ता-आहिस्ता अलग होते चले गए.
केजरीवाल ने कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक के बड़े नेताओं पर थोक भाव में आरोप लगाए. बदले में ढेरों मुकदमे झेले और फिर वह दौर भी आया जब उन्होंने नितिन गडकरी और कपिल सिब्बल जैसे नेताओं से बकायदा लिखित माफी मांगनी शुरू की. आम आदमी पार्टी ने सफाई दी कि मुकदमेबाजी की वजह से केजरीवाल का बहुत वक्त बर्बाद हो रहा है. इसलिए वे इन पचड़ों से बाहर आ रहे हैं, ताकि जनहित के ज्यादा से ज्यादा काम कर सकें. इन तमाम फैसलों का भरपूर मजाक उड़ा. लेकिन अनाड़ी शैली में ही सही खेल लगातार जारी रहा.
`आआपा’ यूपीए टू सरकार के खिलाफ खड़े हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद अस्तित्व में आई थी. देखा जाए तो उसकी शुरुआती लड़ाई कांग्रेस से थी. कई लोग आप को उस वक्त बीजेपी की `बी ‘टीम करार दे रहे थे. लेकिन घटनाक्रम तेजी बदलने लगा और कांग्रेस के बदले केजरीवाल की असली लड़ाई बीजेपी के साथ शुरू हो गई.
दरअसल इस लड़ाई की नींव 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ही पड़ गई थी. कांग्रेस अपनी अलोकप्रियता के सबसे निचले पायदान पर थी. बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपना नेता घोषित कर दिया था और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकले केजरीवाल भी तेजी से लोकप्रिय हो रहे थे.
केजरीवाल को यह समझ में आ गया था कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी साख कायम करनी है, तो उन्हें मौजूदा दौर के सबसे लोकप्रिय राजनेता यानी मोदी से सीधे-सीधे टकराना होगा. इसी रणनीति के तहत केजरीवाल ने 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी से पर्चा भरा और मोदी लहर के बावजूद दो लाख वोट हासिल करने में कामयाब रहे.
लेकिन इसी दौरान मोदी के साथ उनकी राजनीतिक `शत्रुता’ की नींव पड़ी. केंद्र में एनडीए की सरकार बनी. इसके कुछ महीनों बाद प्रधानमंत्री मोदी के ज़बरदस्त प्रचार और अमित शाह के रणनीतिक कौशल के बावजूद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में रिकॉर्ड तोड़ बहुमत हासिल करके एक और जख्म दिया. फिर तो केजरीवाल जैसे केंद्र सरकार की छाती पर सवार हो गए. कांग्रेस उन दिनों लगभग खामोश थी. केजरीवाल ने इसका भरपूर फायदा उठाया और लगातार बयानबाजी करके मोदी वर्सेज केजरीवाल का नैरेटिव गढ़ने में कामयाब रहे.
बेशक राष्ट्रीय राजनीति को एक नई पहचान मिली हो लेकिन इस सीधे टकराव का काफी नुकसान भी हुआ. सीबीआई से लेकर इनकम टैक्स तक तमाम केंद्रीय एजेंसियां केजरीवाल और उनके मंत्रियों के पीछे जैसे हाथ धोकर पड़ गईं. रही-सही कसर पहले नजीब जंग और उसके बाद अनिल बैजल से उप राज्यपाल ने पूरी कर दी. केजरीवाल अब आए दिन केंद्र सरकार और उप राज्यपाल का दुखड़ा लेकर जनता के बीच जाने लगे. दिल्ली के वोटरों का एक तबका भी यह मानने लगा कि इल्जाम लगाना और काम ना करने के बहाने ढूंढना उनकी आदत है.
खुद केजरीवाल यह दावा कर चुके हैं कि वे प्रधानमंत्री से मिलकर सुलह-सफाई करना चाहते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री मुलाकात का वक्त नहीं दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी की राजनीति को करीब से देखने वाले भी यह जानते हैं कि वे अपने विरोधियों के प्रति एक सीमा से ज्यादा रियायत नहीं बरतते हैं. थक-हार चुके केजरीवाल ने मोदी के खिलाफ बयानबाजी बंद की और अपना फोकस शिक्षा और पब्लिक हेल्थ जैसे कामों पर लगाना शुरू किया ताकि वोटरो का दिल जीत सकें.
आप पिछले छह महीने के आंकड़े उठाकर देख लीजिए. प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ केजरीवाल के बहुत कम बयान मिलेंगे. अपने यहां होनेवाले सीबीआई छापे या इनकम टैक्स जांच का हवाला वे ज़रूर देते हैं, लेकिन सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर कोई आरोप लगाने से बचते हैं. इसके बदले आम आदमी पार्टी लगातार सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार, मोहल्ला क्लीनिक और राशन की होम डिलिवरी जैसी अपनी योजनाओं का प्रचार करती नज़र आती है.
बिना काम दिखाए वोटर के पास दोबारा जाना मुश्किल है. दिल्ली की राजनीति पर नज़र रखने वाले कई लोग यह मानते हैं कि वाकई शिक्षा और जन-स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में केजरीवाल अच्छा काम कर रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या उनकी राजनीति सही पटरी पर लौट चुकी है?
दिल्ली की राजनीति काफी मेलो ड्रैमेटिक है. आगे क्या होगा यह कहना मुश्किल है. लेकिन कुछ बातें साफ हैं. पहली बात यह कि दिल्ली सरकार के कामकाज में उपराज्यपाल का हस्तक्षेप बिल्कुल बंद हो जाएगा, इसकी संभावना कम है. बीजेपी भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अपनी तरह से व्याख्या कर रही है. ऐसे में यह मानना कठिन है कि उप-राज्यपाल के ज़रिए केंद्र ने जिस तरह केजरीवाल की नकेल कस रखी है, वह एकदम ढीली पड़ जाएगी.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बहुत कुछ ऐसा है जिसे `ग्रे एरिया’ कहते हैं, यानी व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जा सकती है. बहुत संभव है कि मोदी सरकार इसका फायदा उठाकर उप राज्यपाल के ज़रिए अपनी दखल बरकरार रखे. इसके संकेत भी मिलने शुरू हो गए हैं. यानी सियासी शतरंज की बिसात पर केजरीवाल को आगे भी इसी तरह फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाना होगा.
आगे क्या होगा?
2019 की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. ऐसे में एक सवाल यह भी है कि आम आदमी पार्टी का क्या होगा? क्या केजरीवाल साझा विपक्ष के किसी महागठबंधन में शामिल होंगे. अगर तीसरा मोर्चा होता तो केजरीवाल बहुत आराम से उसका हिस्सा बन सकते थे. लेकिन कांग्रेस के बिना मोदी के खिलाफ प्रभावी विपक्ष की कल्पना बेमानी है. अगर-मगर के बावजूद तमाम विपक्षी पार्टियों को कांग्रेस के साथ आना ही पड़ेगा भले ही सर्वमान्य नेता के रूप में राहुल गांधी के नाम का ऐलान ना हो.
अब सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले किसी गठबंधन का हिस्सा बन पाएगी? पहली बात यह है कि आम आदमी पार्टी अगर अपना घोषित कांग्रेस विरोधी स्टैंड छोड़ती है, तो इससे वोटरों में एक अलग संदेश जाएगा जो पार्टी के लिए अच्छा नहीं होगा. फिर भी अगर मोदी को ज्यादा बड़ा खतरा मानते हुए अगर केजरीवाल ने कांग्रेस से हाथ मिला भी लिया तो सीटों का बंटवारा कैसे होगा?
पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी और कांग्रेस तीसरे पायदान पर जा लुढ़की थी. क्या कांग्रेस दिल्ली में केजरीवाल के पीछे चलना पसंद करेगी? ऐसी ही समस्या पंजाब में आएगी. पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी वहां की चार सीटों पर जीती थी. इस समय पंजाब में कांग्रेस मजबूत है और आम आदमी पार्टी अंतर्कलह से परेशान है. इसके बावजूद केजरीवाल के लिए पंजाब में कांग्रेस के पीछे चलना संभव नहीं होगा.
समझने वाली बात यह है कि आम आदमी पार्टी वैकल्पिक राजनीति वाली अपनी ब्रांडिंग को तभी तक बचाए रख पाएगी, जब तक वह कांग्रेस और बीजेपी दोनों के विरोध में खड़ी हो. यह रास्ता मुश्किल है. लेकिन केजरीवाल के लिए शायद कोई और विकल्प भी नहीं है. चुनाव के बाद किसी विपक्षी गठबंधन को समर्थन देने या सरकार में शामिल होने का विकल्प उनके लिए ज़रूर खुला होगा.