तेजस्वी की नसीहत कांग्रेस की फजीहत

 

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने एक साक्षात्कार में कहा है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अन्य दलों को ड्राइविंग सीट पर रखना चाहिए जहां कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी नहीं है. तेजस्वी ने 2019 में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए अहंकार को दूर रखने की जरूरत पर बल दिया है. तेजस्वी ने संविधान बचाने के वास्ते सभी विपक्षी दलों को साथ आने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि विपक्ष अगर एक साथ आए तो जीत सकता है.

तेजस्वी यादव के बयान में कांग्रेस के लिए नसीहत भी है और एक बड़ा संदेश भी. संदेश साफ है कि यूपी-बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस काफी कमजोर है. कांग्रेस यूपी में एसपी, बीएसपी के मुकाबले तीसरे नंबर की विपक्षी दल की हैसियत में है जबकि बिहार में कमोबेश यही हाल है. बिहार में भी कांग्रेस पिछले कई सालों से लगातार आरजेडी के पीछे-पीछे ही चल रही है.

अब जबकि 2019 के चुनाव के पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सभी विपक्षी दलों को साथ लाने की तैयारी कर रहे हैं, तो आरजेडी ने उन्हें हैसियत भी बताने की कोशिश की है. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के बीच केमेस्ट्री बहुत अच्छी रही है. दोनों बीजेपी को रोकने के लिए बिहार में साथ मिलकर चलने पर सहमत हैं, लेकिन, तेजस्वी यादव का बयान उस कड़वी सच्चाई को बयां कर रहा है जिसे मानने से कांग्रेस के कई नेता आनाकनी कर जाते हैं.

हकीकत तो यही है कि बिहार में कांग्रेस के पास अभी न कोई बड़ा नेता है और न ही कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज. वैशाखी के सहारे कांग्रेस पिछले दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से अपनी सियासत कर रही है. अब लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को फिर से ड्राइविंग सीट छोड़ने की नसीहत देकर तेजस्वी यादव ने बिहार में अपना दावा ठोक दिया है.

कांग्रेस के पास ड्राइविंग सीट छोड़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है. कांग्रेस को भी पता है कि यूपी, बिहार, बंगाल समेत कई दूसरे राज्यों में उसकी हैसियत कम हो गई है. फिर भी विपक्षी दलों के भीतर नंबर वन की हैसियत यानी मुख्य विपक्षी दल की हैसियत वो खोना नहीं चाहती.

कांग्रेस की रणनीति के मुताबिक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात जैसे प्रदेशों में जहां उसकी सीधी लड़ाई बीजेपी से है वहां वो सभी सीटों पर लड़ना चाहती है, लेकिन, यूपी-बिहार जैसे प्रदेशों में भी वो एक सम्मानजनक समझौता चाहती है जिससे देश भर में विपक्षी दलों की सीटों में उसकी सीटों की तादाद सबसे ज्यादा रहे. इससे चुनाव बाद परिणाम आने की सूरत में मोदी विरोध के नाम पर जुटे सभी दलों में कांग्रेस का दबदबा बना रहेगा और सबसे बड़े दल के नाते बडी कुर्सी पर भी दावा किया जा सकेगा.

लेकिन, कांग्रेस की इस रणनीति से दूसरे क्षेत्रीय दल राजी नहीं होते दिख रहे हैं. अगर ऐसा होता तो साल भर पहले ही यूपी विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के साथ गलबहियां करने वाले अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले गठबंधन से आनाकानी नहीं करते दिखते.

अखिलेश यादव को भी पता है कि यूपी विधानसभा चुनाव के वक्त भी कांग्रेस से गठबंधन का उन्हें कोई खास फायदा नहीं हुआ था, लिहाजा कांग्रेस से ज्यादा मायावती से हाथ मिलाने को लेकर उनकी आतुरता ज्यादा दिख रही है. 90 के दशक में पिता मुलायम सिंह यादव की तरह एसपी- बीएसपी गठबंधन की तर्ज पर गठबंधन बनाने को लेकर अखिलेश की दिलचस्पी ज्यादा दिख रही है.

लगता है कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से कर्नाटक चुनाव के दौरान खुद को प्रधानमंत्री बनने के बारे में दिए गए बयान पर भी अखिलेश यादव ज्यादा असहज दिख रहे हैं. क्योंकि एसपी चाहती है कि चुनाव से पहले नहीं बल्कि बाद में प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई फैसला हो.

उधर, पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस के लिए मुश्किल है क्योंकि ममता बनर्जी कांग्रेस को ज्यादा तवज्जो देने के मूड में नहीं लग रही हैं. दूसरी तरफ, तेलंगाना में के.सी.आर भी कांग्रेस से दूरी बनाए हुए हैं. ऐसे में कांग्रेस के लिए यूपीए -3 को चुनाव पूर्व एक आकार देना मुश्किल हो रहा है. मोदी विरोध के नाम पर सभी पार्टियां एक हो भी जाएं तो भी उनके भीतर के अंतरविरोध चुनाव से पहले कई राज्यों में परेशानी का सबब बन रहे हैं.

इस हालात में कांग्रेस को भी यह बात समझनी होगी कि ड्राइविंग सीट पर यूपी और बिहार में उसे एसपी-बीएसपी और आरजेडी को ही रखना होगा. तेजस्वी की नसीहत को मानना कांग्रेस के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी. क्योंकि इस नसीहत को नजरअंदाज करने पर मुश्किल कांग्रेस को ही होगी.

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