परिवार वाद के खिलाफ चले अखिलेश यादव

समाजवादी पार्टी के प्रधान अखिलेश यादव ने परिवार वाद के विरुद्ध अपनी निति का खुलासा किया. इस बार वह कन्नौज से लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे, जहाँ से हाल्वक्त उनकी पत्नी डिंपल यादव संसद हैं. उन्होंने भाजपा को भी चुनौती दी है कि वह भी ऐसा कर के दिखाएँ.

आगामी लोकसभा चुनाव को ‘महायुद्ध मानकर बैरी बसपा को भी गले लगा चुके अखिलेश यादव इसके बाद भी कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं हैं। यही वजह है कि पिछले चुनावों में मोदी लहर के अप्रत्याशित परिणाम देख चुके सपा के युवा मुखिया ने अपने लिए लोहिया के ‘बंकर को ठिकाना बनाया है। यह कन्नौज की वह धरती है, जिसने समाजवादी विचारधारा के प्रणेता राममनोहर लोहिया से लेकर मुलायम सिंह और उनके बेटे-बहू को सीधे दिल्ली के दरबार तक पहुंचाया।

सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एलान किया है कि 2019 का लोकसभा चुनाव वह कन्नौज से लड़ेंगे। इस लोकसभा सीट से वर्तमान में उनकी पत्नी डिंपल यादव सांसद हैं। जिस तरह मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश के लिए, फिर अखिलेश ने अपनी पत्नी डिंपल को सपाई गढ़ से मैदान में उतारा और जिताया। अब विपरीत परिस्थितियों में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश सत्ताधारी दल से मुकाबले को पूरी रणनीति सधे कदमों से बना रहे हैं। उनकी नजर में भी यही सीट सबसे सुरक्षित है।

हालांकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं। बेशक, यह समाजवादी परिवार के लिए पुरानी मजबूत जमीन रही है लेकिन, इस पर बने उनके ‘सुरक्षित घर की दीवारें अब कमजोर हो चुकी हैं। आशंका के निशान पिछले चुनाव परिणामों ने छोड़े हैं। इस पारंपरिक हो चुकी सीट से 2014 का चुनाव डिंपल यादव महज 19907 वोट से ही जीत पाई थीं। वह पहला झटका था, जो बार-बार मिला। विधानसभा चुनाव में पांच में से चार सीटें भाजपा की झोली में गईं और सपा एक पर सिमट गई। फिर नगर निकाय चुनाव में भी प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा। ऐसे में सपा मुखिया अखिलेश को अतिरिक्त मेहनत की जरूरत होगी।

अभी तक तय रणनीति के मुताबिक, लोकसभा चुनाव सपा और बसपा मिलकर लड़ेंगी। इस लिहाज से देखें तो जातीय समीकरण और बसपा का साथ अखिलेश को जीत की उम्मीदें पालने का भरपूर हौसला दे सकता है। पिछले कई चुनावों से बसपा यहां मजबूती से लड़ती रही है। इस लोकसभा क्षेत्र में 16 फीसद यादव, 36 फीसद मुस्लिम, 15 फीसद ब्राह्मण, 10 फीसद राजपूत तो बड़ी तादाद में लोधी, कुशवाहा, पटेल, बघेल जाति का वोट है। यादव के साथ अन्य पिछड़ों को अपने पाले में खींचने में यदि सपा सफल रही तो बसपा के साथ होने से मुस्लिम मतों के बिखराव की आशंकाएं भी हवा हो जाती हैं।

सांसद डिंपल यादव अपने पति के लिए सीट छोड़ रही हैं तो यह इस परिवार के लिए नया नहीं है। इस सीट को इस कुनबे ने ‘पॉलिटिकल टेकऑफ की पट्टी के रूप में पहले भी इस्तेमाल किया है। सफर 1967 से शुरू होता है। पहली बार डॉ. राममनोहर लोहिया ने इस सीट पर राजनीतिक क्षेत्र में किस्मत आजमाई और वह जीते। 1971 के चुनाव में उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी सत्यनारायण मिश्रा ने हरा दिया। उसके बाद बारी-बारी से जनता पार्टी, जनता दल, भाजपा, कांग्रेस को जीत मिलती रही। 1998 में पहली फिर सपा प्रत्याशी प्रदीप यादव यहां से जीते तो फिर यह सपा का मजबूत गढ़ बनती चली गई।

1999 का लोकसभा चुनाव कन्नौज से मुलायम सिंह यादव जीते। तब अखिलेश यादव के लिए भी एक ‘सुरक्षित सीट की तलाश शुरू हो चुकी थी। 2000 के उपचुनाव में मुलायम ने बेटे अखिलेश को यहीं से राजनीति में लांच किया और यहीं से पहली बार वह सांसद चुने गए। 2012 के विधानसभा चुनाव तक अखिलेश यादव यहां से सांसद रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने फीरोजाबाद सीट पर कांग्रेस के राज बब्बर से हार चुकीं अपनी पत्नी डिंपल को यहां से जिताकर लोकसभा भेजा। अब अखिलेश भी अपनी डेब्यू पिच पर दोबारा लौट रहे हैं।

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