केजरीवाल …! प्रेसेंट सर
आम आदमी चाहे तो बड़े बड़ों को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकता है. किसी को फर्श से अर्श तो किसी को अर्श से फर्श तक पहुंचा सकता है. उसकी ताकत का अंदाजा लगाना हो तो इसे कपिल मिश्रा के जरिए समझा जा सकता है, जिन्होंने सही मायने में आम आदमी की ताकत का अहसास मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को करा दिया है. अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में उपस्थिति देने को मजबूर हो गए. ऐसा उन्होंने तब किया जब कपिल मिश्रा ने सोमवार को हाइकोर्ट में उनके खिलाफ एक जनहित याचिका दाखिल की.
कपिल मिश्रा ने जनहित याचिका दायर करते हुए ये मांग की कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को विधानसभा के सभी सत्र में उपस्थित रहने का निर्देश दिया जाए. साथ ही विधायकों के लिए 75 प्रतिशत उपस्थिति को अनिवार्य बनाया जाए. काम नहीं तो वेतन नहीं का फॉर्मूला विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री पर लागू किया जाए. अगर 50 फीसदी से कम उपस्थिति हो तो वेतन काटा जाए.
दिल्ली हाइकोर्ट में दाखिल इस जनहित याचिका पर मंगलवार को सुनवाई होनी है. मगर, इससे पहले कपिल मिश्रा ने सार्वजनिक तौर पर जो बातें कहीं उसने लोगों की आंखें खोल दी हैं.
आम आदमी पार्टी के बागी विधायक कपिल मिश्रा पत्रकारों से बात करते हुए कहते हैं, ‘दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए बुलाए गए विशेष सत्र में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक दिन भी नहीं आए. सीलिंग पर चर्चा के लिए विशेष सत्र हुआ, जिसमें चार में सिर्फ एक दिन मुख्यमंत्री केजरीवाल उपस्थित रहे. बजट सत्र 16 दिन चला जिसमें मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल केवल तीन दिन ही उपस्थित रह सके.’
उन्होंने आगे कहा, ‘तीन साल में प्रश्न काल के दौरान एक दिन भी मुख्यमंत्री उपस्थित नहीं रहे. मुख्यमंत्री के तौर पर अरविंद केजरीवाल ने आज तक एक सवाल का भी जवाब सदन में नहीं दिया. पिछले एक साल के दौरान सदन की कुल 27 बैठकों में केजरीवाल ने सिर्फ 5 बैठकों में शिरकत की है.’
कपिल मिश्रा ने वाकई ये चौंकाने वाले आंकड़े सामने रखें हैं. ये न सिर्फ लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे हैं बल्कि आंकड़े बता रहे हैं कि किसी भी सदन में किसी पार्टी को इतना बहुमत नहीं दिया जाए कि उसके लिए सदन ही बेमतलब हो जाए. मुख्यमंत्री सदन में आएं, न आएं या फिर प्रश्नकाल में मौजूद रहें या न रहें इस पर आपत्ति करने वाला ही कोई न रह जाए. कपिल मिश्रा की मानें तो दिल्ली विधानसभा में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की उपस्थिति 10 प्रतिशत से भी कम रही है.
सवाल ये है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं को कपिल मिश्रा के सवाल क्यों नागवार लग रहे हैं? क्या आम आदमी पार्टी के नेता जो आंदोलन से पैदा होने का और लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं उन्हें ये मुद्दे अलोकतांत्रिक लगते हैं? क्या उन्हें अपनी सरकार के भीतर, अपनी पार्टी के भीतर लोकतंत्र को जिंदा रखने वाली चिंता को उठाने या जताने का अधिकार नहीं है? या आम से खास बने पार्टी नेताओं की आवाज सत्ता सुख में कहीं दब गई हैं.
कपिल मिश्रा के जनहित याचिका दायर करने की तारीख 11 जून रही. इससे पहले उन्होंने सारे सवालों को ट्वीट और मीडिया के माध्यम से देश के सामने रख दिया था. अदालत चाहे इस पर जो फैसला सुनाए लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को इन सवालों की अहमियत समझ में आ गई है. वे 11 जून को सदन में पहुंच गए.
ऐसा कर के कपिल मिश्रा ने सूचना के महत्व को स्थापित किया है, सूचना के इस्तेमाल का रास्ता दिखाया है, आम आदमी की अहमियत को नए सिरे से स्थापित किया है. कहने की जरूरत नहीं कि आम आदमी के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली पार्टी के मुंह पर उन्होंने तथ्यों का उल्टा तमाचा जड़ा है.
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