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जब आचार्य कृपलानी राज ऋषि पुरुषोत्तम दास टंडन से हारे थे.


राजर्षि टंडन जिस भारतीय संस्कृति और भारतीयता की बात कांग्रेस में करते थे, नेहरू उसे सांप्रदायिकता मानते थे


इतिहास में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो होते तो ‘बहुत’ हैं, मगर जाने बहुत ‘कम’ जाते हैं. भारत रत्न पुरुषोत्तम दास टंडन भी उन्हीं नामों में से एक हैं. 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहबाद में जन्मे पुरुषोत्तम दास टंडन का व्यक्तित्व बहुआयामी था.

पुरुषोत्तम दास टंडन वकील, पत्रकार, भाषा अभियानी, राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में नैतिकता और राष्ट्रवादी मूल्यों के प्रबल पक्षधर थे. उनके जीवन को किसी एक वृत्त में समेट पाना बहुत मुश्किल है. उनके महान व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण उन्हें 1948 में ‘राजर्षि’ की पदवी से विभूषित किया गया.

कांग्रेस से जुड़ाव और स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका

अपनी शिक्षा-दीक्षा के बाद वकालत को पेशे के रूप में अपनाने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन का शुरुआती जुड़ाव 1899 में ही कांग्रेस से हो गया था. वे 1899 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़कर अंग्रेजों के खिलाफ चलने वाली गतिविधियों में शामिल होने लगे थे. अंग्रेजों के खिलाफ गतिविधियों की वजह से उनकी पढ़ाई भी अवरोधित हुई और उन्हें इलाहबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज से निकाल दिया गया था.

हालांकि बाद में उन्होंने अन्य कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की और वर्ष 1906 में वकालत के पेशे में आ गए. वकालत के साथ-साथ स्वतंत्रता के आंदोलन की गतिविधियों में भी राजर्षि टंडन सक्रिय रहे.

उनकी सक्रियता को देखते हुए उन्हें 1919 में जलियावाला बाग़ हत्याकांड के अध्ययन के लिए बनी समिति में भी जगह दी गई. इसके बाद 1921 में महात्मा गांधी के कहने पर राजर्षि टंडन ने वकालत छोड़कर खुद को स्वतंत्रता आंदोलन के कार्य में लगा लिया.

वकालत छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह से कूदने के बाद पुरुषोत्तम दास टंडन 1930 में महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले से गिरफ्तार कर लिए गए.

उन्होंने उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का संचालन बढ़-चढ़कर किया था, लिहाजा उन्हें दंड में कारावास की सजा मिली. लंदन में महात्मा गांधी की गोलमेज बैठक में शामिल होने से पहले भारत में जिन स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया था, उनमें पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे.

नैतिकता के प्रबल पक्षधर

पुरुषोत्तम दास टंडन व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता के प्रबल पक्षधर थे. उनके कथनी और करनी में साम्य था. आधुनिक भारत में शैक्षिक चिंतन पुस्तक में उनके नैतिक जीवन को लेकर कई उदाहरण हैं, जो बेहद रोचक प्रेरणादायी हैं. मसलन, 1905 में बंगभंग आंदोलन के दौरान उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संकल्प लिया तो खाने में खांडसारी का उपयोग करने लगे थे.

वर्ष 1921-22 में लखनऊ जेल में रहते हुए उन्होंने नमक खाना छोड़ दिया था. टंडन जी जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के स्पीकर थे, उसी दौरान उनके पुत्र का चयन लोक सेवा आयोग के लिए हो गया. उन्होंने अपने पुत्र से यह पद छोड़ने का आग्रह किया. ये तमाम उदाहरण, नैतिकता के प्रति उनके अटल सिद्धांतों को प्रदर्शित करती हैं.

महान हिंदी सेवी राजर्षि टंडन

पुरुषोत्तम दास टंडन के जीवन का एक बड़ा पक्ष उनका हिंदी के प्रति अगाध प्रेम है. उस कालखंड में हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करने को लेकर उनके प्रयास अद्वितीय थे. वर्ष 1910 में उन्होंने नागिरी प्रचारिणी सभा की स्थापना बनारस में की. वर्ष 1918 में हिंदी विद्यापीठ और 1947 में ‘हिंदी रक्षक दल’ की स्थापना भी राजर्षि टंडन ने ही की थी.

ऐसा कहा जाता है कि वे जिन संस्थानों में अथवा संगठनों में प्रमुख भूमिका में रहे, वहां हिंदी के अलावा कोई और शब्द स्वीकार ही नहीं करते थे. जब देश में हिंदी की लिपि को लेकर मतभेद की स्थिति उत्पन्न हुई उस दौरान पुरुषोत्तम दास टंडन ने महात्मा गांधी तक का विरोध किया और हिंदी को राजभाषा और देवनागरी को राजलिपि के रूप में स्वीकृत कराया.

राजनीतिक जीवन में पंडित नेहरू से मतभेद

स्वतंत्रता के पश्चात पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अग्रणी नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे. राजर्षि टंडन के विचारों में भारतीयता और राष्ट्रवाद कूट-कूट कर भरा था, लेकिन वे पंडित जवाहर लाल नेहरू की पसंद नहीं थे.

हालांकि राजर्षि टंडन के सरदार पटेल से बहुत ही मधुर संबंध थे. महेश चंद्र शर्मा की पुस्तक ‘दीन दयाल उपाध्याय: कर्तव्य और विचार’ में लिखा है कि अक्तूबर 1949 में जब नेहरू विदेश यात्रा पर थे तब सरदार पटेल ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए कांग्रेस की समिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को सदस्य बनाने का प्रस्ताव पारित करा दिया.

तब राजर्षि टंडन ने उस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा था, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीतिक संस्था नहीं है. उसके लोग कभी चुनावी झंझटों में पड़े नहीं हैं. वास्तव में जमीयते-उल-उलेमा जैसी सांप्रदायिक संस्था के लोग कांग्रेस में घुसे हुए हैं, उनको रोकना चाहिए. संघ का सांस्कृतिक दृष्टिकोण शास्त्रशुद्ध है.’

इस प्रस्ताव ने कांग्रेस में मतभेद पैदा किया और विदेश से वापस आते ही पंडित नेहरू ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया.

राजर्षि टंडन के बरक्स नेहरू की हार

प्रस्ताव वापस लिए जाने और पार्टी पर वर्चस्व को लेकर कांग्रेस का मतभेद तीव्र हो गया था. नेहरू बनाम पटेल गुट के इस संघर्ष के केंद्र बनकर उभरे राजर्षि टंडन. झंगियानी ने अपने शोध में लिखा है, ‘यह एक पार्टी का अंतरसंग्राम था. वर्ष 1950 के दलीय अध्यक्ष चुनाव ने इसे रेखांकित किया.’

दरअसल 1950 में हुए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में पटेल समर्थित उम्मीदवार थे पुरुषोत्तम दास टंडन जबकि नेहरू ने आचार्य कृपलानी को समर्थन दिया था. कृपलानी की हार हुई और राजर्षि टंडन विजयी हुए. यह नेहरू की करारी हार थी. नेहरू इससे इतने क्षुब्ध थे कि वे कार्यसमिति तक में जाने से मना कर दिए थे. नेहरू ने राजर्षि टंडन की जीत को ‘सांप्रदायिकता’ की जीत बताने की पुरजोर कोशिश की थी.

पटेल की मृत्यु, नेहरू का दबाव और टंडन का इस्तीफा

यह कहा जाता है कि नेहरू कांग्रेस में खुद से बड़ा न कोई चेहरा देखना चाहते थे और न ही ऐसे किसी चेहरे को उभरने ही देना चाहते थे. कांग्रेस के 56वें अधिवेशन में टंडन की जीत से नाराज नेहरू ने उन्हें सांप्रदायिक करार देते हुए खुद को कांग्रेस से अलग कर लेने की धमकी तक दे दी. नेहरू की धमकी का दबाव इतना बना की पटेल गुट इसका प्रतिवाद नहीं कर पाया.

राजर्षि टंडन भारतीय संस्कृति और भारतीयता की बात कांग्रेस में करते थे, लेकिन नेहरू उन्हें सांप्रदायिकता मानते थे. जबकि उनको जमीयते-उल-उलेमा से दिक्कत भले न थी. उधर 1950 में पटेल अस्वस्थ हो रहे थे, दूसरी तरफ नेहरू के गुट ने कांग्रेस पर कब्जा करने जैसी स्थिति बना ली थी. आखिरकार राजर्षि टंडन ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.

कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए भी राजर्षि टंडन के विचार उनके निजी विचार कहे जाने लगे जबकि इसके उलट नेहरू का हर विचार कांग्रेस नीति वाक्य बन गया था.

कहीं न कहीं नेहरू की तत्कालीन राजनीति में भारतीयता की बात करना उनको चुनौती देने जैसा था, और इस चुनौती को देने वाला लगभग हर व्यक्ति तब हाशिए पर चला गया. राजर्षि टंडन भी उन्हीं में से एक थे. नेहरू को भारतीयता की बजाय आयातित समाजवाद और साम्यवाद ज्यादा आकर्षित कर रहा था. जो भी उनके इस आकर्षण में आड़े आया वो उनकी आंख की किरकिरी बन गया.