2013 में घातक तो अब बेचारा कैसे हुआ शहरी नक्स्ल्वाद

राहुल तत्कालीन गृह मंत्री चिदम्बरम के साथ


साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट में यूपीए सरकार ने कोर्ट को बताया कि किस तरह से शहरों और कस्बों में रहने वाले माओवादी विचारक और समर्थक एक सुनियोजित प्रोपेगेंडा के जरिये सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार कर माहौल बना रहे हैं और झूठ फैलाकर राज्य की छवि खराब कर रहे हैं


महाराष्ट्र पुलिस ने 28 अगस्त को पांच वामपंथी विचारकों को गिरफ्तार किया था. इन वामपंथी विचारकों पर शहरी-नक्सलवाद फैलाने का आरोप था. इन पर भीमा-कोरेगांव हिंसा भड़काने, नक्सली विचाराधारा फैलाने और पीएम मोदी की हत्या की साजिश से जुड़े होने का आरोप लगा.

इन विचारकों की गिरफ्तारी पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तुरंत ही ट्वीट किया और कहा कि देश में अगर कोई भी विरोध करे तो उसे गोली मार दो. यही है न्यू इंडिया.


Rahul Gandhi

@RahulGandhi

Welcome to the new India.


राहुल ने पांच सामाजिक कार्यकर्तोओं की नक्सलवादी विचाराधारा फैलाने के आरोप में हुई गिरफ्तारी का विरोध किया. लेकिन नक्सली विचारकों के साथ केंद्र सरकार का ये रुख बीजेपी की विचारधारा का रूप नहीं है.

बीजेपी विरोध में राहुल ये भूल रहे हैं कि शहरी नक्सलवाद और शहरों में मौजूद बुद्धिजीवियों के नक्सल कनेक्शन को लेकर खुद उनकी यूपीए सरकार ने ही सबसे पहले सामाजिक कार्यकर्ताओं और विचारकों के खिलाफ मोर्चा खोला था. मीडियाके पास कांग्रेस सरकार का वो काउंटर एफिडेविट है जिसमें नक्सल विचाराधारा को फैलाने वाले शहर में मौजूद बुद्धिजीवियों को पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी से ज्यादा खतरनाक बताया है.

साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका क्रमांक 738/2013 के मुताबिक केंद्र सरकार ने कोर्ट को बताया कि किस तरह से शहरों और कस्बों में रहने वाले माओवादी विचारक और समर्थक एक सुनियोजित प्रोपेगेंडा के जरिये सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार कर माहौल बना रहे हैं और झूठ फैलाकर राज्य की छवि खराब कर रहे हैं.

सरकार के काउंटर एफिडेविट में में ये साफ-साफ लिखा है कि सही मायने में माओवाद को जिंदा रखने वाले बौद्धिक रूप से मजबूत विचारक हैं जो कई मायनों में पीपुल लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी से भी ज्यादा खतरनाक हैं. इतना ही नहीं, काउंटर एफिडेविट में ये भी कहा गया है कि ये माओवादी विचारक ‘मास ऑर्गेनाइजेशन’ या फिर ‘फ्रंट ऑर्गेनाइजेशन’ के जरिये शहरी आबादी के खास लक्षित वर्ग को मोबलाइज करने का काम करते हैं. ये मास ऑर्गेनाइजेशन मानवाधिकार संस्थाओं की आड़ में काम करते हैं.

इनका नेतृत्व और संचालन माओवादी विचारक करते हैं जिनमें बुद्धिजीवी और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल होते हैं. ये मास ऑर्गेनाइजेशन मानवाधिकार से जुड़े मामलों को जमकर भुनाते हैं और सुरक्षा बलों की कार्रवाई के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने में माहिर होते हैं. साथ ही राज्य की संस्थाओं के खिलाफ प्रोपेगेंडा और दुष्प्रचार के जरिए राज्य सरकारों की छवि खराब करते हैं. सुप्रीम कोर्ट में तत्कालीन कांग्रेस की केंद्र सरकार ने जिस तरह से शहरी नक्सलवाद को लेकर बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चिन्हित किया था वही रिपोर्ट गृहमंत्रालय की भी है.

P CHIDAMBARAM

ऐसे में सवाल उठता है कि साल 2013 में शहरी नक्सलवाद और माओवादी विचारकों के रूप में बुद्धिजीवी वर्ग के प्रति कांग्रेस का नजरिया पांच साल में कैसे बदल गया? जब तक कांग्रेस सत्ता में रही तो उसने नक्सलियों को मिटाने के लिये ऑपरेशन ग्रीन हंट किया. यहां तक कि तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम नक्सली प्रभावित इलाकों में एयर स्ट्राइक के भी पक्षधर थे. खुद यूपीए सरकार में पीएम मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था.

ऐसे में वर्तमान केंद्र सरकार अगर उसी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है तो फिर कांग्रेस के लिए लोकतंत्र पर हमला बताना राजनीतिक रोटियां सेंकने से ज्यादा कुछ और कैसे हो सकता है..?

क्या कांग्रेस के शासनकाल में शहरी नक्सलवाद पर उनके गंभीर विचार मोदी सरकार में मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन का मामला बन गए? अगर साल 2013 में शहरी इलाकों में मौजूद माओवादी विचारक पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी से ज्यादा खतरनाक थे तो फिर 2019 में कांग्रेस के लिए वैसे लोग मानवाधिकार के प्रचारक कैसे हो गए! ये सवाल कई निष्पक्ष लोगों की जुबान पर है जिनका किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है.

सवाल ये जरूर उठता है कि शहरी-नक्सलवाद के मामले में कार्रवाई में इतना वक्त क्यों लगा? क्या इस कार्रवाई की एकमात्र वजह ये रही कि भीमा-कोरेगांव हिंसा के मामले में जांच में जुटी महाराष्ट्र पुलिस ने माओवादियों का वो पत्र बरामद किया जिसमें पीएम मोदी की हत्या की साजिश की बात लिखी गई थीं? दरअसल, नक्सलवाद के खिलाफ कार्रवाई में कांग्रेस बीजेपी से कम आक्रामक नहीं रही है. हां इसमें दो धड़े हमेशा से रहे हैं. एक गरम तो दूसरा नरम. लेकिन गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम नक्सल के खिलाफ बेहद आक्रामक थे. बंगाल में कांग्रेस के बड़े नेता सिद्धार्थ शंकर रे नक्सल के खिलाफ कार्रवाई के लिए जाने जाते हैं. 70 के दशक में उन्होंने नक्सल की कमर तोड़ने में कोई कोताही नहीं बरती थी. पीएम मनमोहन और चिंदबरम ने ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाकर नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए सख्त कदम भी उठाए थे.

इतना ही नहीं कांग्रेस सरकार के काउंटर एफिडेविट से साफ है कि तत्कालीन सरकार भी शहरों में माओवादी विचारधारा फैलाने वाले वामपंथी विचारकों के खिलाफ मुखर थी. उनका मानना था कि ये प्रबुद्ध लोग मानवाधिकारों का इस्तेमाल कर राज्य सरकार की छवि खराब करने में माहिर हैं और ये कानूनी धाराओं का इस्तेमाल कर सुरक्षा बलों की कार्रवाई और सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को कमजोर करने का काम करते रहे हैं.

इस काउंटर एफिडेविट में ये तक बताया गया है कि किस तरह से नक्सल प्रभावित इलाकों में कलेक्टर का अपहरण किया जाता रहा है. साथ ही ये भी बताया गया है कि किस तरह से हजारों आदिवासियो को पुलिस का मुखबिर बता कर मौत के घाट उतारा गया है.

बहरहाल, ये सोचने वाली बात है कि पांच वामपंथी माओवादी विचारकों की गिरफ्तारी पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अपनी यूपीए सरकार के दौर में सुप्रीम कोर्ट में उनकी पार्टी की सरकार द्वारा दायर वो काउंटर एफिडेविट क्यों नहीं याद आया जिसने शहरी नक्सलवाद  को सबसे पहले परिभाषित किया और उससे होने वाले गंभीर परिणाम की तरफ अगाह भी किया.

तत्कालीन यूपीए सरकार खुद ये मानती रही है कि माओवादी शहरों में अपनी जड़े मजबूत करने में जुटे हुई हैं और इनको शहरी क्षेत्रों से सामाजिक कार्यकर्ता और वामपंथी विचारकों से भरपूर समर्थन मिल रहा है. ये बुद्धिजीवी माओवादी विचाराधारा के प्रति अपनी सहानुभूति के जरिए ही देश के अलग राज्यों के मुख्य शहरों में सरकार और सिस्टम के खिलाफ किसी न किसी रूप में हिंसात्मक आंदोलन को हवा दे रहे हैं. महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव की हिंसा इसी मास ऑर्गेनाइजेशन की रणनीति का ही उदाहरण है.

यूपीए सरकार द्वारा काउंटर एफिडेविट में इस बात का साफ विवरण है कि फ्रंट ऑर्गेनाइजेशन दरअसल किसी न किसी मानवाधिकार संस्था का मास्क पहन कर काम करते हैं. जिसका असली मकसद बड़ी संख्या में लोगों को एकजुट करने का होता है. केवल उसी वर्ग को लक्षित किया जाता है जो कि माओवादी विद्रोही विचाराधारा पर भरोसा करता हो.

अरुण फ़र्रेरा

राज्य सरकार के खिलाफ ही ये सरकारी मशीनरी का भी इस्तेमाल कर माहौल बनाते और बिगाड़ते हैं. बुद्धिजीवी वर्ग के जरिए झूठ का प्रोपेगेंडा करने में आसानी भी रहती है.

लेकिन अब जब केन्द्र सरकार उसी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है तो वही राजनीतिक दल आड़े आने आने का काम कर रहे हैं जो पांच साल पहले इन्हें नक्सलियों का समर्थक और देश का सबसे बड़ा दुश्मन बता रहे थे. अब सही और गलत का फैसला तो अदालत करेगी. पुलिस की कार्रवाई उन पांच लोगों के खिलाफ जायज है या नजायज ये लंबे ट्रायल के बाद साबित हो पाएगा. लेकिन कांग्रेस सरकार में कुछ और और विपक्ष में बिल्कुल उसके उलट बयानबाजी कर पूरी तरह घिरती नजर आ रही है.

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