Sunday, December 22

तुलसीदासजी रामायण में लिखते हैं कि ढोल गंवार सुद्र पसु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी…। इस कथन को लेकर बहुत से लोगों ने तुलसीदासजी पर शुद्रों और नारियों के प्रति भेदभाव और असम्मान की भावना रखने का आरोप लगाया। कहा कि वे तो शुद्रों और नारियों को डांटने- फटकराने और प्रताडि़त करने का पक्ष लेते हैं। पर वास्तव में  देखें तो तुलसीदास जी नहीं बल्कि इस चौपाई का अपने हिसाब से मतलब निकालने वाले लोग गलत है। दरअसल ताडऩा का अर्थ किसी को देखते रहना, सीख, शिक्षा या संरक्षण देने के अर्थ में भी लिया जाता है। और संतों की व्याख्या के अनुसार तुलसीदास जी यहां यही कहना चाहते हैं कि ढोल, गंवार, शुद्र और नारी को शिक्षा व सीख देने के साथ उनके कार्यों को देखते रहना चाहिए। वरना दोष उनका नहीं , बल्कि उनके संरक्षकों का होगा। जैसे शादी के बाद यदि बहु कोई गलत काम करती है तो उलाहना आज भी उसकी मां को ही दिया जाता है कि उसने अच्छी सीख नहीं दी। इसी तरह ढोल ठीक नहीं बजेगा तो दोष ढोल वादक का होगा। गवांर गवांरुपन दिखाए तो दोष उसके शिक्षक का होगा और शुद्र यानी सेवक सलीका नहीं रखे और पशु भी ठीक नहीं है तो दोष उनके मालिकों का ही माना जाएगा कि उनकी सीख में कोई कमी है। इसलिए तुलसीदासजी की चौपाई का अर्थ यही निकालना चाहिए कि वे ढोल, गवांर, सेवक, पशु व नारी को शिक्षा और संरक्षण पाने का अधिकारी मानते हैं। ना कि प्रताडऩा का।

John Ray Quote: “A spaniel, a woman, and a walnut tree, the more they're  beaten

पीयूष पयोधि, धर्म/संस्कृति देस, डेमोक्रेटिक फ्रंट, बिहार :

                   भारत की इस आधार पर लानत मलानत करने वाले कि यहां मानस में स्त्री को ताड़ना के काबिल ही बताया गया है, स्वयं यह नहीं बताते कि उनके यहां यह क्यों कहा गया कि-

A Spaniel, A Woman,

And a walnut tree

The more you beat them,

The better they be

                        इसलिए इस तरह की पंक्तियों के आधार पर सांस्कृतिक या धार्मिक श्रेष्ठता के दावे उपहासास्पद लगते हैं। बल्कि इस अंग्रेजी उक्ति में ‘बीट’ शब्द के बारे में कोई अर्थ-विषयक भ्रम नहीं है।

                        मैं पश्चिमी आस्था वाले ग्रंथ के ‘महाप्रयाण’ (Exodus) से उद्धृत करूं: ‘When a man sells his daughter as a slave, she will not be freed at the end of six years as the men are. If she does not please the man who bought her, he may allow her to be bought back again.’

                        दासों को मारने के बारे में वहां क्या कहा गया : ‘When a man strikes his male or female slave with a rod so hard that the slave dies under his hand, he shall be punished. If, however, the slave survives for a day or two, he is not to be punished, since the slave is his own property. ‘

                        इसी में ईश्वर न केवल बेटियों को दासी बनाकर बेचा जाने को ही संस्वीकृति देता है बल्कि यह भी बताता है कि इसे कैसे किया जा सकता है।

                        तोराह में तो कोई औरत पति की अनुमति के बिना कोई संकल्प तक नहीं ले सकती। ‘जिन शहरों को भगवान की कृपा से तुम जीत लेते हो, उनके सभी आदमियों और बच्चों को मार डालो, लेकिन औरतों को अपने भोग के लिए रखो।’ (Deuteronomy 20:13-15) ‘यदि कोई औरत बलात्कार का शिकार होने पर भी चिल्लाती नहीं है तो उसे मार डाला जाए।’ (Deuteronomy 22:23- 24) कोई बलात्कारी अपनी ‘शिकार’ को उसके पिता से 50 शेकेल में खरीद सकता है। (Deuteronomy)

इसलिए तुलसी की पंक्ति के आगे सांस्कृतिक श्रेष्ठता के दावे ठहर नहीं सकते।

एक्लेसिआस्टिकस की तरह सुन्दरकांड नहीं कह रहा है कि ‘sin began with a woman and thanks to her we all must die.’ (25:18, 19, 33)

                        जेफर्सन डेविस, जो अमेरिका के कान्फेडरेट राज्यों के अध्यक्ष थे, ने कहा था कि दास प्रथा सर्वशक्तिमान ईश्वर के द्वारा आदेशित व्यवस्था है। यह बाईबल में संस्वीकृत है- ‘दोनों टेस्टामेंटों में- जिनेसिस से लेकर रिवीलेशन तक- यह सभी युगों में अस्तित्व में रहा है।’

                        एक अन्य पादरी अलेक्जेन्डर कैंपबेल ने कहा कि बाईबल में दास प्रथा को वर्जित करने वाला एक छन्द नहीं है, किंतु उसे नियम और विधान में बांधने वाले ढेरों छंद हैं। इसलिए दास प्रथा गलत नहीं है।

                        जिस समय ब्रिटेन और अमेरिका में दास प्रथा का दौर था, उस समय उसे जीसस और बाईबल के संदर्भों से उचित ठहराया जाना आम था।

तो बात इसकी नहीं है कि इन पंक्तियों को उद्धृत करके धर्मांतरणकारी अपने बहुत बहुत बड़े गढ्ढे छुपा पायेंगे।

फिर भी कई लोग तो मानस की इन पंक्तियों को जस्टिफाई करने के लिये और भी बड़ी जुगत भिड़ाते देखे जाते हैं।

                        बड़े-बड़े पांडित्य के बोझ से ये पंक्तियां झुकी जाती हैं। एक सज्जन ने ये पांच वर्ग देखे और इनके ठीक ऊपर पंचतत्वों की भी चर्चा देखी। गगन समीर अनल जल धरनी को उन्होंने ढोल गंवार शूद्र पशु नारी से जोड़ दिया। उसी क्रम में। अब गगन ढोल बन गया। यह साम्य एकदम अटपटा भी नहीं है। ढोल के भीतर शून्य है और शून्य में स्वन है। धरनी को नारी से जोड़ना भी सहज लगता है। नारी धरित्री तो है ही। लेकिन बौद्धिक कसरत तो समीर को गंवार से, अनल को शूद्र से, जल को पशु से जोड़ने में करनी पड़ती है और वह तमाम प्रज्ञा-प्राणायाम के बावजूद कोई बहुत कन्विसिंग नहीं जान पड़ती। आखिरकार समीर गंवार कैसे हो सकता है। मारुति के अध्याय में मरुत गंवार ? अनल को शूद्र कहने का एक प्रगतिशील अर्थ तो संभव है कि जो सेवा करता है उसके भीतर एक अग्नि धधका करती है। वह अग्निधर्मा है, वह आलोकधन्वा है। लेकिन इन विशारद ने उसे इन अर्थों में तो लिया नहीं । जल को पशु कहना भी विश्वसनीय नहीं जान पड़ता। फिर पंच तत्वों का ताड़ना से क्या रिश्ता ? बौद्धिक जिमनास्टिक्स में ताड़ना का एक संस्कृत अर्थ घर्षण ले लिया गया। अग्नि तो घर्षण से पैदा हुई ही । गगन लेकिन बिग बैंग से हुआ। जल और समीर तो इतने प्रत्यक्षतः घर्षणपरक नहीं लगते ।

तो रैशनल बात और रैशनलाइजिंग बात का फ़र्क़ दिख जाता है। ज़रूरत रैशनल बात की है।

                        जो लोग ताड़ना का अर्थ पिटाई या प्रताड़ना से लगाते है, वे अवधी समझना तो खैर छोडें, सुन्दरकांड के उस प्रसंग को भी नहीं समझते जिसमें यह पंक्तियां प्रयुक्त हुई है। इन पंक्तियों का संदर्भ यह है कि राम समुद्र से रास्ता मांग रहे हैं। वे विभीषण की सलाह पर चल रहे हैं , हालांकि लक्ष्मण की राय किंचित् भिन्न है । विनय करने के खिलाफ है। तीन दिन बीत जाने पर भी जड़ जलधि नहीं पसीजता। तब राम “सकोप” बोलते है कि बिना भय के प्रीति नहीं होती। शठ के साथ विनय का कोई अर्थ नहीं। “ऊसर बीज भए फल जथा” । वे लक्ष्मण को आदेश देते हैं कि “लछिमन बान सरासन आनू”- कि वह उनके धनुष बाण लेकर आये ताकि वे सौषौं बारिधि – समुद्र को सुखा दें। फिर राम के प्रत्यंचा तानते ही समुद्री जीव जन्तु सब अकुलाने लगते हैं। राम समुद्र को दंड देने को प्रस्तुत हैं।

                        अब समुद्र प्रकट होता है वह उन्हें बताता है कि वह जड़ है। वह उन्हें उनकी मर्यादा की भी याद दिलाता है लेकिन यह सब वह राम के आशंकित दंड के परिहार के लिये कहता है यदि उसका लक्ष्य दंड के आमंत्रण का होता तो वह तो राम पहले ही करने को सन्नद्ध हो चुके थे। उसका अभिप्रेत तो उस सन्नद्धता का निवारण है।

                        यदि वह “सकल ताड़ना के अधिकारी” में प्रयुक्त ताड़ना को दंड के अर्थ में लेता कि वह दंडनीय है, तो वह राम की सन्नद्धता को ही जस्टिफाई कर रहा होता। कि चलो हमें पीट लो। हम तो पिटने के ही लायक हैं। लेकिन वह श्रीराम को उनकी उस मनोदशा से dissuade करना चाहता है। इसलिये यह कहना कि इन वर्गों के माध्यम से वह स्वयं को भी पिटाई योग्य मानना बताना चाह रहा है, प्रसंग के एकदम , उलटा पड़ता है।

                        कई बार मुझे यह भी संदेह होता है कि इस पंक्ति में यदि ताड़ना को दंड के अर्थ में ले रहा होता तो वह अपने समुद्र को किस स्थान, किस श्रेणी में रखता । क्या समुद्र एक ढ़ोल है ? नहीं। क्या समुद्र गंवार है ? विभीषण उसे “प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि” कहते हैं? इसी कुलगुर शब्द से ही ‘शूद्र’ की कोटि भी निराकृत होती है। क्या समुद्र पशु है? समुद्री जीव- जन्तु उसमें है, लेकिन वह उनसे अधिक है और नारी तो वह है नहीं।

                        तो वह इन सब वर्गों के अप्रासंगिक नाम गिनाता ही क्यों है? क्या वह राम का ध्यान भटकाना चाहता है? क्या वह यह कहना चाहता है कि पिटाई के अधिकारी तो ये सब लोग है, मैं नहीं? क्या यह वह चतुराई है जो अपने को दोष मुक्त करने के लिये दूसरे को प्रस्तुत कर देती है? क्या अपराध की अन्याक्रांति की यह कोशिश राम को भरमा पायेगी ? तब क्या समुद्र राम के दंड के आतंक से इतना अकबका गया है कि आंय बांय सांय बके जा रहा है? राम उससे पूछ न लेंगे कि औरों की छोड़ो, अपनी कहो। फिलहाल तो राम वैसे ही कुपित हैं। ऐसे में समुद्र द्वारा यह कहने की थोड़ी सी कोशिश कि दंड का भागी या पात्र मैं नहीं, कोई और है तो राम के क्रोधानल को और भड़का देगी। तो समुद्र दंड के निवारणार्थ ऐसी कोशिश, राम के तत्सामयिक मूड को देखते हुए, करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता।

तब इसका इस उक्ति का प्रसंग की संगति में अभिप्रेत अर्थ क्या है?

                        इन वर्गों के विरुद्ध किसी भी तरह की नकारात्मकता समुद्र को उनके ब्रेकिट में नहीं ले जा सकती। वह अपना दोष भुलाने के लिये दूसरे के सर मढ़ने जैसी चेष्टा होगी। समुद्र इनके ब्रेकिट में तभी आ सकता है जब वह इनके बारे में कुछ सकारात्मक बोल रहा हो। तब वह कह सकता है कि जैसे ये सब हैं, वैसा ही मैं भी हूं। जैसे तुम इन सबका ध्यान धरे हो, वैसे मेरा भी ध्यान धरो। गुह, निषाद, केवट, शबरी को प्रेम करने वाले राम के सामने वह गंवार और शूद्र को पीटने के लिये कहेगा और खुद पिटाई न खा जायेगा? जटायु को मुक्ति देने वाले और “बानर भालु बरूथ” की सेना बनाने वाले राम के सामने वह पशु की पिटाई की बात करेगा और खुद पिट न जायेगा? सीता तो छोड़ें जो कैकेयी के विरुद्ध भी ऐसा एक शब्द नहीं बोलने की सावधानी रखते हैं जो उसके मन को दुखाये, उन राम के सामने वह नारी को ताड़ना का अधिकारी कह जायेगा और बचकर चला जायेगा। कम से कम इस चौपाई को जिस संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है, वहां नकारात्मक अर्थ की गुंजाइश किसी तरह नहीं दिखती। समुद्र तो एक सीधी सी बात कह रहा है। वह चीजों की अंतर्भूत प्रकृति की बात कर रहा है। ‘प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही’ में शिक्षा की बात है, संस्कृति की बात है । फिर वह यह भी कहता है : मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही। किंतु मर्यादा भी आपकी ही बनाई हुई है। मर्यादा यानी चीजों का स्वभाव।

                        यह प्रकृति और संस्कृति का द्वन्द्व है। इसे रेखांकित करते हुये समुद्र अचानक जातिभेदी या वर्णभेदी या मेल शोविनिस्ट या पशु विरोधी बात क्यों करने लगेगा ? वहां तो कोई ऐसा पाजिटिव अभिप्राय होना चाहिये जो राम की क्रोधाग्नि को शीतल करे। राम एक आधुनिक युवक हैं- उनकी संवेदनायें सर्वग्राही और सर्वस्पर्शी है। उनके सामने किसी तरह के धृष्ट पूर्वाग्रह की बात कहने का दुसाहस कोई साधारण समय में नहीं कर सकता, तब की तो बात ही अलग है जब राम एक “फाउल मूड” में हों।

                        तुलसी जब ‘ढोल गवार सूद्र पसु के अधिकारी’ बोलते हैं तो उसमें प्रयुक्त ‘ताड़ना’ शब्द का अर्थ संस्कृत शब्द कोषों से निकालने की जगह उस अवधी भाषा से निकालना चाहिए जिसमें रामचरितमानस लिखा गया। मैं जब लखनऊ गया तो वहां मैंने एक वृद्धा मां को अपनी बेटी को- जो मायके बाल-बच्चों समेत अपनी मां से मिलने आई थी- विदा के वक्त यह कहते देखा कि : बाल बचियन को ताड़ियत रहियो । उसके कहने के लहजे से मैं जो समझा वह शायद यह था कि टेक केअर ऑफ द चिल्ड्रनइस ताड़ना में कंसर्न है, इस ताड़ना में सलाह है और सद्भाव भी ।

                        लेकिन जिन लोगों ने मॉनियर विलियम्स का संस्कृत- अंग्रेजी के शब्दकोष, शब्दार्थ- कौस्तुभ आदि को पढ़ा है वे इस लोक-परंपरा से निःसृत अभिव्यक्ति के पास नहीं पहुंच सकते। समुद्र वैसे भी डरा हुआ है। उसके मनोभाव के अनुकूल है कि वह भगवान से कहे कि वह ध्यान रखने के काबिल है, ‘केअर’ करने के काबिल है। विशेष रूप से देखे जाने के काबिल है। वह इसलिए कि उसके भीतर भी जीव-जन्तु रहते हैं। उनके ऊपर अत्याचार न हो। उसकी एक जलवायुगत पर्यावरणगत भूमिका है। उसकी अनदेखी न की जाये। यदि पीटना ही उसका अभिप्रेत होता तो ‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी’ से उसे क्या सहायता मिल रही थी क्योंकि वह तो विप्र रूप रखकर आया था? विप्र रूप का तुलसी हनुमान-विभीषण प्रसंग में भी उपयोग कर चुके हैं : ‘बिप्र रूप धरि बचन सुनाये।’ इसलिए विप्र का रूप रखकर शूद्र की बात करने का कोई अर्थ नहीं।

                        समुद्र स्वयं को राम के सामने एक ऐसे व्यक्ति की तरह पेश करता है जो विशेष अवधान के लायक है। विशेष खातिर तवज्जो के लायक। बच्चों की देखभाल करते रहना, यह भाव अवधी ‘ताड़ियत रहियो’ में है किन्तु संस्कृत ताड़ना में नहीं है। अवधी ताड़ना में एक चिंता, एक खयाल, एक अवेक्षा का भाव है। यह तुलसी की चित्तवृत्ति के अनुकूल भी है। उस चित्तवृत्ति के जिसने सीता, निषाद, हनुमान जैसे पात्रों के पुनर्सृजन में हृदय का पूरा सत्व उड़ेल दिया था।

 क्रमशः…..

(अगली कड़ियों में जारी…)

अश्विनी कुमार तिवारी  (साभार)