‘ईसाई’ नहीं ‘वाम पंथ’ है आतिशी की परेशानी
एक कहावत याद आ गई कि सारे ‘कुए में ही भांग घुली है’ तो फिर सिर्फ आतिशी को दोष देना कहीं ज़्यादती तो नहीं आतिशी का डर ईसाई होना नहीं अपितु मार्क्स और लेनिन के जोड़ से बना मर्लेना है जो उनकी वाम पंथी पालन पोषण है, जिससे अब वह छुटकारा पाना चाहती हैं
दिल्ली की राजनीति में आतिशी मर्लेना नया नाम नहीं है। अब वे दिल्ली वालों के लिए सिर्फ ‘आतिशी’ हो गई हैं. उन्होंने अपने नाम से ‘मर्लेना’ हटाने का एलान किया है. आम आदमी पार्टी (आआपा) ने जब देश में नए किस्म की राजनीति का दावा और वादा किया था, उसमें कई अच्छे कार्यकर्ता, प्रोफेशनल्स और नौजवान चेहरे निकल कर आए थे उनमें से एक नाम है आतिशी मर्लेना. जब दिल्ली में सरकार बन गई तो ‘आतिशी’ को उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का सलाहकार बना दिया गया. वे प्रवक्ता के तौर पर भी टीवी पर आआपा का पक्ष रखतीं दिखतीं रहीं हैं।
आतिशी ने अपने नाम से ‘मर्लेना’ इसलिए हटाया क्योंकि इससे लगता है कि वे ‘ईसाई’ हैं और ‘मर्लेना’ नाम वाम पंथ का भी द्योतक है इसलिए वह इस बार साल 2019 के लोकसभा चुनावों में पूर्वी दिल्ली से पार्टी की उम्मीदवार होंगी तो उन्हें डर है कि इससे चुनावों में नुकसान होगा. आतिशी ने अब बताया है कि वे ‘पंजाबी राजपूत’ हैं. और यह फैसला अचानक नहीं लिया गया है. पार्टी में इस पर अच्छे से सलाह मशविरा हुआ है यानी मुख्यमंत्री और पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल साहब की इस पर रजामंदी है या यूं कहे कि उन्होंने यह तय किया कि चुनाव जीतने के लिए जो भी जरूरी है, वो किया जाना चाहिए. नई राजनीति का उनका वादा अब पुराना हो गया है.
उन्हें डर है कि बीजेपी और दूसरी पार्टियां यदि आतिशी मर्लेना को ‘ईसाई’ / ‘वाम पंथी’ बताएंगी तो फिर वे चुनाव हार सकती हैं. हो सकता है कि उनकी इस आशंका में कुछ दम हो, लेकिन फिर वो खुद को कैसे अलग किस्म की राजनीति करने का दावा कर सकते हैं! वैसे तो उन्होंने बहुत कुछ बदल ही लिया है बल्कि ये कहना होगा कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने भी राजनीतिक गंगा में स्नान कर लिया है. यानी अगली बार आपको दिल्ली में वोट देना हो तो सिर्फ इसलिए वोट मत दीजिएगा क्योंकि आप साफ- सुथरी राजनीति के पक्षधर हैं.
खैर, हिन्दुस्तान की राजनीति का एक बड़ा नाम है-जॉर्ज फर्नांडिस. जॉर्ज धर्म के हिसाब से ईसाई थे लेकिन उन्होंने 1977 में अपना चुनाव जीता जातिवादी राजनीति के गढ़ माने जाने वाले बिहार से. जॉर्ज 1977 में मुजफ्फरपुर से तीन लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते थे. जब तक वे सक्रिय राजनीति में रहे, हिन्दुस्तान के शायद ही किसी वोटर ने ईसाई समझ कर वोट नहीं दिया हो. एक जमाने में बीजेपी के अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक सीट से सिर्फ इसलिए चुनाव नहीं लड़े थे क्योंकि उसे ब्राह्मण और सवर्णों के प्रभाव वाली सीट माना जाता था.
आतिशी के नाम से ‘मर्लेना’ शब्द को हटाना ना केवल हिन्दुस्तान की राजनीति में धर्म और जाति के दबाव को बताता है बल्कि वोटर के बुद्धिमानी का अपमान भी करता है. मुझे याद नहीं पड़ता कि जब से आतिशी मर्लेना सक्रिय राजनीति में आई हैं, उनके धर्म को लेकर किसी ने इस बात पर नाराजगी जाहिर की है या विरोध किया है, बल्कि मेरी समझ से वे काफी लोकप्रिय हैं ‘आआपा’ के नए नेताओं की पीढ़ी में. और क्या दिल्ली के चुनावों में पंजाबी नेता कभी चुनाव नहीं हारे हैं.
उस दिन दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री और बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा निकल रही थी तो एक मस्जिद के बाहर मौलाना साहेब और बहुत से बच्चे हाथों में फूल लिए वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने के लिए इंतजार कर रहे थे. वाजपेयी जिंदगी भर हिन्दुत्ववादी कही जाने वाली पार्टी जनसंघ और बीजेपी के नेता ही नहीं रहे, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी रहे, लेकिन उनकी राजनीति धर्म और जाति से परे रही.
हिन्दुस्तान की राजनीति के शायद वे अकेले नेता होंगे जो चार-चार राज्यों से लोकसभा के लिए चुने गए और दो बार तो उन्होंने दो अलग-अलग राज्यों से एक साथ चुनाव लड़कर जीता. वाजपेयी दस बार लोकसभा सांसद रहे और उन्होंने गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और दिल्ली की नुमाइंदगी की है. वाजपेयी किसी भी धर्म और जाति में सबसे लोकप्रिय नेताओं में से रहे. वाजपेयी को छोड़िए. बीजेपी के एक नेता हैं शाहनवाज हुसैन, वे सांसद भी रहे हैं और वाजपेयी सरकार के सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री भी, क्या उनके इलाके के लोग शाहनवाज को इसलिए वोट नहीं देते कि वे मुसलमान हैं और बीजेपी के नेता?
दूसरा नाम हैं मुख्तार अब्बास नकवी, जो मौजूदा सरकार में मंत्री हैं, उन्होंने भी रामपुर से चुनाव जीता है. यानी वोटर अक्सर धर्म और जाति के आधार पर वोट नहीं देता. बहुत से ऐसे एससी-एसटी सांसद हैं जो सामान्य सीटों से चुनाव जीतते रहे हैं. यानी सवर्ण मानी जाने वाली जातियां उन्हें वोट देती हैं. हिन्दुस्तान में अल्पसंख्यकों के जितने भी बड़े नेता माने जाते हैं, उनमें से ज़्यादातर हिन्दू हैं चाहे फिर वो विश्वनाथ प्रताप सिंह हों, अर्जुन सिंह हों, लालू यादव हों, मुलायम सिंह यादव हों या फिर मायावती और एक जमाने तक नेहरू सबसे लोकप्रिय नेता रहे.
हिन्दुस्तान में आजादी के करीब दो दशक बाद तक जाति और धर्म की राजनीति उस तरह नहीं होती थी. सबसे पहले जनसंघ ने जातियों के आधार पर पार्टी में मोर्चा बनाना शुरू किया था, फिर कांग्रेस ने एससी/एसटी मोर्चा बनाया. इससे पहले नेहरू इमाम बुखारी का इस्तेमाल चुनावी राजनीति में करते थे. मास्टर तारासिंह ने सिख धर्म की राजनीति करने की कोशिश की. चौधरी चरण सिंह ने जातिवादी राजनीति की शुरुआत की और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लाकर इसे पूरी तरह से फैलने का मौका दिया.
फिर एक वक्त आया जब गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर छोटी-छोटी पार्टियां बनने लगीं और ज्यादातर का आधार धर्म या जाति रहा और वे उन्हें उकसा कर अपना राजनीतिक फायदा उठाती रहीं. बीजेपी राम मंदिर निर्माण को लेकर हिन्दुत्ववादी राजनीति में लगी रही तो कांग्रेस और गैर बीजेपी पार्टियों ने सेक्यूलरिज़्म के नाम पर मुसलमानों को अपने तरफ खींचने की कोशिश की. आज सारी पार्टियों की सरकारें अपने-अपने राज्यों में धार्मिक यात्राओं के लिए मदद दे रही हैं. गुजरात में 2017 में श्रवण तीर्थ दर्शन यात्रा शुरू हुई तो जयललिता ने तो 2012 में ईसाइयों के लिए येरूशलम और हिन्दुओं के लिए मानसरोवर और मुक्तिधाम यात्राएं शुरू कर दी थीं.
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार चारधाम यात्रा करवाती थी. उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव सरकार ने मानसरोवर यात्रा के लिए सब्सिडी शुरू की तो योगी सरकार ने आकर उसकी रकम को दोगुना कर दिया. हज यात्रा के लिए सब्सिडी बरसों से मिलती रही और सबसे साफ राजनीति का दावा करने वाली केजरीवाल सरकार ने भी दिल्ली में 53 करोड़ रुपए तीर्थयात्राओं के लिए दिए हैं. एक कहावत याद आ गई कि सारे ‘कुए में ही भांग घुली है’ तो फिर सिर्फ आतिशी को दोष देना कहीं ज़्यादती तो नहीं.
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