शहर के जैन मंदिरों में हुआ विशेष कार्यक्रमों का आयोजन

84 दिन के कठोर तप से हुई प्रभु को केवल ज्ञान की प्राप्ती- चक्रेश

सुशील पंडित, डेमोक्रेटिक फ्रंट, यमुनानगर – 20 दिसंबर :

            श्री सुपाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर अतिक्षय क्षेत्र बुडिय़ा व श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन चैताल्य भाई कन्हैया साहिब चौंक के प्रांगण में भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता बूडिय़ा मंदिर प्रधान भूषण कुमार जैन व मंदिर संचालक आनंद जैन ने की। कार्यक्रम के दौरान भगवान पाश्र्वनाथ चालीसा व भगवान प्रभु चालीसा का पाठ किया गया तथा प्रभु जी का अभिषेक, शंातिधारा, पूजा-प्रक्षाल व आरती की गई।

            जानकारी देते हुये दीपक जैन चक्रेश जैन ने कहा कि भगवान पाश्र्वनाथ जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर माने जाते हैं, जिन्होंने अज्ञान, अंधकार मध्य में क्रांति का बीज बन कर पृथ्वी पर जन्म लिया था। इनका जन्म पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में वाराणसी नगर में हुआ था। इनके शरीर का रंग नीला और चिन्ह सर्प माना जाता है। भगवान पाश्र्वनाथ को तीर्थंकर बनने के लिए पूरे नौ जन्म लेने पड़े। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फल से ही वे 23 वें तीर्थंकर बने। उन्होंने आगे बताया कि भगवान पाश्र्वनाथ ने पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को वाराणसी नगरी में दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के दो दिन बाद खीर से पहला पारणा किया।

            भगवान पाश्र्वनाथ ने केवल 30 साल उम्र में ही सांसारिक सभी तरह की मोहमाया और गृह का त्याग कर संन्यास धारण कर लिया था। 84 दिन तक कठोर तप करने के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में ही घातकी वृक्ष के नीचे इन्होनें कैवल्य ज्ञान को प्राप्त किया। भगवान पाश्र्वनाथ का निर्वाण पारसनाथ पहाड़ पर हुआ था और भागवान पाश्र्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया।

            आशीष जैन ने बताया कि भगवान चंद्र प्रभु को पूजने से सभी कार्य मंगल होते है और कष्टों का निवारण हो जाता है। इनकी मूर्ति शांत और आकर्शक है, जोकि दिगम्बर भेष में दिखाई देती है। भगवान चंद्र प्रभू को देवों का देव कहा जाता है और इनके पूजन से सभी भक्तों के दुखों का नाश होता है।

            उन्होंने बताया पौषवद्यि ग्यारस को इनका जन्म हुआ और इनके जन्म के साथ-साथ सामाज में फैली बुराईयां व लोगों के कष्ट दूर हो गये। प्रभु जी ने काम, क्रोध, त्रिशणा आदि का त्याग कर मुनि दीक्ष प्राप्त की और तब इन्हे केवल ज्ञान की प्रप्ती हुई। प्रभु जी वीतरागी और दूसरों को हितउपदेशी बने।

            इस अवसर पर जैन सामाज के गण्मान्य व्यक्ति, महिलाएं तथा बच्चें उपस्थित रहे।