कोरोना वायरस: इतिहास याद रखेगा कि कट्टरपंथी मुसलमानों ने नहीं की देश की फ्रिक: पाञ्च्जन्य
जब 21वीं सदी का भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तब उसमें यह लिखा जाएगा कि देश के कट्टरपंथी मुसलमानों ने आपदा की घड़ी में 100 करोड़ देशवासियों की चिंता नहीं की। उन्होंने देश के प्रति जिम्मेदारी नहीं निभाई और अपनी ज़िद एवं मूर्खता के कारण निर्दोष बहुसंख्यक आबादी को मौत के मुंह में धकेल दिया। कोरोना वायरस संक्रमण से कर्नाटक के कलीबुर्गी में जिस 76 वर्षीय मुस्लिम व्यक्ति की मौत हुई, वह 29 जनवरी से 29 फरवरी तक मजहबी यात्रा करके सऊदी अरब से लौटा था। यह देश में कोरोना वायरस संक्रमण से पहली मौत थी। भारत आने के बाद 6 मार्च को बुजुर्ग की तबीयत खराब हुई तो पहले घर में ही इलाज कराया। इसी तरह, विदेशों से आने वाले अन्य कट्टरपंथी मुसलमानों ने भी न जो स्वास्थ्य जांच कराई और न ही सतर्कता बरती। वे घूमते रहे और वायरस फैलाते रहे।
दरअसल, कट्टरपंथी मुसलमानों ने दो कारणों से ऐसा किया। पहला अशिक्षा-अज्ञानता तथा दूसरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति घृणा और पूर्वाग्रह। जिहादी सोच वाले मुसलमान यह कहते रहे कि इस्लाम में स्वास्थ्य जांच की इजाजत नहीं है। वे किसी बीमारी और मौत से नहीं डरते। अल्लाह की मर्जी के बिना उन्हें कुछ नहीं हो सकता। दूसरी ओर पूर्वाग्रह और मन में नफरत लिए नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी के विरुद्ध प्रदर्शन करते रहे। देश नाजुक स्थिति में है और जरा सी चूक से महामारी फैल सकती है। दुनियाभर में हाहाकार मचा हुआ है और हज़ारों लोग Covid-19 के संक्रमण से मर चुके हैं। कोरोना वायरस का संक्रमण न फैले इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों से 22 मार्च, 2020 को जनता कर्फ्यू का पालन करते की अपील की। उन्होंने लोगों से घरों में ही बंद रहने का आह्वान किया, लेकिन जिहादी सोच वाले मुसलमानों पर कोई असर नहीं पड़ा और सामान्य दिनों की तरह ही जुमे की नमाज के लिए मस्जिदों में भीड़ जुटी। यही नहीं, ऑल इंडिया सूफी उलेमा काउंसिल ने 22 मार्च को मुसलमानों से मस्जिद में जमा होने की अपील की।
कट्टरपंथी मुसलमानों का ऐसा व्यवहार तब है, जब प्रधानमंत्री दुनियाभर में फंसे अपने नागरिकों को सुरक्षित निकाल कर भारत ला रहे हैं, जिनमें अधिकतर मुसलमान हैं। इनमें अधिकतर “मुस्लिम ब्रदरहुड” कहे जाने वाले देशों में फँसे हुए थे। यहाँ इस बात का उल्लेख करना अनिवार्य हो जाता है कि “मुस्लिम ब्रदरहुड” देशों के पास अकूत संपत्ति है। उनके पास तेल के भंडार है, लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों का यह कहते हुए इलाज करने से इनकार किया कि उनके पास कोरोना वायरस से निपटने के लिए इतने संसाधन नहीं हैं कि सैकड़ों भारतीय मुसलमानों का इलाज या स्वास्थ्य जांच कर सकें।
चीन के हुबेई प्रान्त की राजधानी वुहान से जब मानवता को लीलने वाला यह वायरस फैला, लगभग उसी समय भारत में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुसलमान सड़कों पर उतर रहे थे। मार्च 2020 आते-आते वायरस का प्रकोप बढ़ गया। देश में कोरोना वायरस से संक्रमितों की बढ़ती संख्या को देखते हुए मंदिर, चर्च, सार्वजनिक वाहन, बाज़ार, दफ्तर, मॉल, थियेटर आदि बन्द कर दिए गए। देशभर में कर्फ्यू जैसे हालात हैं। सरकार जनता से बार-बार घरों में रहने के लिए अपील कर रही है। एहतियातन देश में धारा 144 भी लागू कर दी गई है ताकि लोग सड़कों पर न जुटें। लेकिन उस समय भी मुसलमान सड़क जाम कर धरने पर बैठे रहे। हज़ारों की संख्या में मस्जिदों में नमाज के लिए भीड़ जुट रही थी।
इस तरह संक्रमण फैलता रहा। डर के मारे बड़ी संख्या में लोग अपने-अपने घरों को लौट रहे हैं। इससे इनके संक्रमित होने की आशंका है। यदि ऐसा हुआ तो बड़ी संख्या में जान हानि होगी। इसमें सबसे ज़्यादा गरीब लोग मारे जाएंगे। अस्पतालों की हालत दयनीय हो जाएगी। बहुतायत लोगों को इलाज तक उपलब्ध नहीं मिल पाएगा। कोरोना वायरस से बचाव के लिए सरकार की सतर्कता और उसके द्वारा उठाए गए कदमों की दुनिया तारीफ कर रही है। शुरुआत में दुनियाभर के कोरोना वायरस संक्रमितों के मुकाबले की भारत में यह संख्या नाममात्र की थी। सरकार की अपील देशहित में थी, अगर मुसलमानों ने थोड़ी सी भी संवेदना दिखाई तो खतरा टल सकता है।
ऐसा नहीं है कि केवल कट्टरपंथी मुसलमान ही सरकार के साथ असहयोगात्मक रवैया अपना रहे हैं। इनके साथ कुछ सेकुलर, पतित वामपंथी, तथाकथित उदारवादी और बेवक़ूफ़ों-बुद्धिहीनों की बड़ी जमात भी है। आपदा की घड़ी में ये सब अलग डफली बजाकर और कुछ लोग संक्रमण दूसरों में फैलाकर दिन-रात लोगों की सेवा में जुटे चिकित्सकों, नर्सिंग कर्मचारियों, सफाईकर्मियों और पुलिसकर्मियों की मेहनत पर पानी फेर रहे हैं। उनका मनोबल गिरा रहे हैं।
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