दुकानदार कहते हैं कि, ‘हम बीजेपी के वोटर हैं और किसी और पार्टी के बारे में सोच भी नहीं सकते
दिग्विजय सिंह का 1993-2003 का कार्यकाल, पुरानी पीढ़ी आज भी याद करती है। यही वजह है कि बुजुर्ग वोटर न सिर्फ कांग्रेस को लेकर आशंकित हैं, बल्कि पार्टी के पुराने दौर के कुशासन का जिक्र भी अक्सर कर बैठते हैं
ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया और उद्योगपति कमलनाथ जैसे नेता, वोटरों में कोई उम्मीद नहीं जगाते. जनता को इस बात की उम्मीद ही नहीं है कि इन नेताओं की अगुवाई में कांग्रेस का रुख-रवैया बदलेगा
जहां तक कांग्रेस की बात है तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने उस कहावत को आत्मसात कर लिया है कि, ‘जीतने की तरह हारते जाना भी एक आदत है
1990 के दशक में नरेंद्र मोदी बीजेपी के संगठन महामंत्री के तौर पर मध्य प्रदेश के प्रभारी थे. उस वक्त उन्हें एक उपनाम मिला था, ‘मास्टर साहब’. इसकी वजह बीजेपी का संगठन चलाने और पार्टी का वोट बैंक बढ़ाने का उनका तरीका था. मोदी की पुरजोर कोशिश बीजेपी के समर्थन का दायरा बढ़ाने की होती थी.
1998 में मध्य प्रदेश, बीजेपी के मजबूत गढ़ के तौर पर उभरा था. राज्य के शहरी ही नहीं, ग्रामीण वोटरों के बीच भी बीजेपी की मजबूत पकड़ थी. ऐतिहासिक रूप से भी मध्य प्रदेश को बीजेपी और उससे भी पहले भारतीय जनसंघ के मजबूत संगठन की मौजूदगी के लिए जाना जाता था. जमीनी स्तर पर पार्टी ने लगातार अच्छा काम कर के पकड़ बना ली थी.
राज्य में बीजेपी की बुनियाद मजबूत करने और इसके लगातार विस्तार में कुशाभाऊ ठाकरे का अहम रोल रहा था. कुशाभाऊ ठाकरे को संगठन का आदमी कहा जाता था. अपनी इसी खूबी के चलते, वो 1998 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने.
कैसा था कुशाभाऊ ठाकरे का तरीका
लेकिन, कुशाभाऊ ठाकरे के काम करने का तरीका एकदम किताबी था. वो लीक पर चलने वाले नेता थे. उन्होंने संघ के आनुषांगिक संगठनों से कार्यकर्ताओं को बीजेपी में जोड़ा और उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ता बनने की ट्रेनिंग दी. 1998 में जब मोदी मध्य प्रदेश के बीजेपी प्रभारी बने, तो उन्होंने संगठन में क्रांतिकारी बदलाव किए. पार्टी के उस वक्त के नेतृत्व को ये बात बिल्कुल नहीं सुहाई.
उन्होंने मोदी के तौर-तरीकों का विरोध किया. उस वक्त बीजेपी में मध्य प्रदेश से कई कद्दावर नेता थे. जैसे कि सुंदर लाल पटवा, विक्रम वर्मा और कैलाश जोशी. इसके अलावा उमा भारती जैसे उभरते हुए बेहद लोकप्रिय नेता भी थे. मोदी ने नए नेताओं को बढ़ावा दिया और संगठन को अनुसूचित जाति और जनजातियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाने के लिए लगातार प्रेरित किया.
मोदी को लगता था कि वोटरों के इस तबके को अपनी पार्टी का समर्थक बनाने के लिए बहुत कम कोशिश करनी होगी. राज्य के बीजेपी नेताओं ने मोदी की इस कोशिश का कड़ा विरोध किया था. फिर भी, वो बीजेपी का सामाजिक दायरा बढ़ाने और नए सिरे से संगठित करने की अपनी रणनीति पर अमल करते रहे, ताकि समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को हिंदुत्ववादी पार्टी के पाले में ला सकें.
मास्टर साहब की संगठन का असर
हालांकि बीजेपी 1998 का चुनाव हार गई थी. लेकिन, पार्टी का आदिवासियों, अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग के बीच हुआ संगठनात्मक विस्तार साफ दिखा. ये वो तबके थे जो परंपरागत रूप से कांग्रेस को वोट देते रहे थे. बीजेपी के ‘मास्टर साहब’ की संगठन के विस्तार की लगातार कोशिश का ही नतीजा था कि 2003 के चुनाव में पहले उमा भारती और फिर शिवराज चौहान विजयी नेता बन कर उभरे.
इसमें कोई दो राय नहीं कि बीजेपी को लगातार 15 साल तक राज करने की कीमत चुकानी पड़ रही है. बीजेपी के परंपरागत वोटर, यानी ऊंची जाति के जमींदार बहुत नाखुश हैं. लेकिन, इस बात की काफी संभावना है कि बीजेपी इस सियासी जमीन के बिखराव की भरपाई, हाशिए पर पड़े तबकों को अपने साथ लाकर कर लेगी. खास तौर से आदिवासियों, अनुसूचित जातियों और शहरी गरीबों को जोड़ने का बीजेपी को काफी फायदा होगा. हालांकि, हैरान करने वाली बात ये है कि बीजेपी के परंपरागत वोटरों के मुकाबले ये तबका उतना खुलकर पार्टी के साथ नहीं आता दिखता है.
मध्य प्रदेश के मालवा इलाके में बीजेपी की हालत उतनी कमजोर नहीं दिखती, जितनी चंबल और बुंदेलखंड इलाके में दिखती है। चंबल और बुंदेलखंड में बीजेपी के लिए लंबा राज ही चुनौती बन गया है। मालवा को मध्य प्रदेश का अमीर इलाका माना जाता है.
यहां शहरी आबादी ज्यादा है. कारोबार फल-फूल रहा है। जैसे कि इंदौर शहर को ही लीजिए, जिसे राज्य के लोग ‘मिनी मुंबई’ कहते हैं. इसकी वजह यहां खूब फल-फूल रहे उद्योग और कारोबार हैं। ये शहर खान-पान के शौकीनों के लिए भी जन्नत है। स्ट्रीट फूड के लिए इंदौर का सर्राफ़ा बाजार काफी मशहूर है। ये बाजार सोने, हीरे और गहनों के कारोबार का बड़ा केंद्र है. हालांकि पहले के मुकाबले यहां रौनक कम दिखती है।
नोटबंदी से निराशा
दुकानदार मानते हैं कि, ‘हां, नोटबंदी के बाद से हमारा धंधा मंदा हुआ है।’ फिर भी वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति कोई बैर नहीं रखते। जब हम ने उनसे पूछा कि वो इस बार किस पार्टी को वोट देंगे, तो दुकानदार कहते हैं कि, ‘हम बीजेपी के वोटर हैं और किसी और पार्टी के बारे में सोच भी नहीं सकते।’
इंदौर बीजेपी का मजबूत गढ़ रहा है। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन यहां से लगातार आठ बार चुनाव जीत चुकी हैं। पिछले एक दशक में इंदौर शहर देश के दूसरे शहरों के लिए मॉडल बन कर उभरा है। यहां की साफ-सफाई और दूसरी सुविधाएं, दूसरे शहरों के मुकाबले बहुत बेहतर हैं।
आज से केवल 15 साल पहले, दिग्विजय सिंह के राज में इंदौर शहर बहुत बुरी हालत में था। लेकिन, आज तो झुग्गी-झोपड़ियों की हालत भी संवर गई है। स्लम बस्तियों मे भी साफ सफाई दिखती है। इंदौर और आस-पास के शहरों के इस बदले हुए रूप को लोग पसंद करते हैं. समाज के निचले तबके से आने वाले लोग भी इस बदलाव की तारीफ करते हैं। इसलिए बीजेपी के इस गढ़ में सेंध लगने के कोई संकेत नहीं दिखते। गरीबों को घर बनाने में मदद करने, ग्रामीण इलाकों में बिजली और गैस कनेक्शन देने की केंद्र सरकार की योजनाएं भी मतदाताओं के बीच बहुत चर्चित हैं।
लोगों की उम्मीदें बढ़ीं
इस में कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ बरसों में लोगों की उम्मीदों में कई गुना इजाफा हुआ है। किसी भी सरकार से उकता जाने के लिए 15 साल का कार्यकाल बहुत होता है। फिर भी मालवा का वोटर, बदलाव को लेकर आशंकित है। दिग्विजय सिंह का 1993-2003 का कार्यकाल, पुरानी पीढ़ी आज भी याद करती है। यही वजह है कि बुजुर्ग वोटर न सिर्फ कांग्रेस को लेकर आशंकित हैं, बल्कि पार्टी के पुराने दौर के कुशासन का जिक्र भी अक्सर कर बैठते हैं।
कांग्रेस के खिलाफ एक और बात जो जाती है, वो इसके चेहरे भी हैं. इनमें ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया और उद्योगपति कमलनाथ जैसे नेता, वोटरों में कोई उम्मीद नहीं जगाते. जनता को इस बात की उम्मीद ही नहीं है कि इन नेताओं की अगुवाई में कांग्रेस का रुख-रवैया बदलेगा.
मालवा इलाके में बीजेपी अपनी सोशल इंजीनियरिंग और मजबूत संगठन के साथ-साथ मोदी की लोकप्रियता की वजह से मजबूत स्थिति में है. शिवराज सिंह चौहान के लिए मालवा में कोई खतरा नहीं है. जहां तक कांग्रेस की बात है तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने उस कहावत को आत्मसात कर लिया है कि, ‘जीतने की तरह हारते जाना भी एक आदत है.’