Sunday, December 22

पीयूष पियोधी, डेमोक्रेटिक फ्रंट, अध्यात्मिक डेस्क – 23 सितंबर

सबसे पहले कुछ पुरानी बातें :

सा’ब को भोत बुरा लगता कि सनातनी मरणोपरान्त पितृपक्ष में श्राद्ध करते हैं – पिण्ड-तर्पण अर्पण करते हैं …

अपमानित-तौहीन करने के विचार-ख्याल से विद्वान कर्मकाण्डी को दरबार में बुलवाया और अपनी आपत्ति – एतराज जाहिर किया

पण्डित जी मुस्काये – सा’ब आपके वालिदान-पुरखों को कोई गाली दे तो उनको लगेगी  ?

 सा’ब तमतमा गये, बोले – उनको लगे कि न लगे मुझे तो बहुत बुरा लगेगा और गुस्ताख़ को  सजा मुकर्रर कर दूँगा ..

पण्डित जी बोले – पितरों को किया तर्पण उनको मिले कि न मिले पर हमारी अपनी प्रसन्नता के लिये, कृतज्ञता-ज्ञापन के लिये यदि हम करते हैं – शास्त्र-सम्मत विधि से तो उसमें आपको आपत्ति नहीं होनी चाहिये !

श्राद्ध श्रद्धा का विषय है …

अब अगली बात

अंत्येष्टि का रहस्य

सोलह संस्कारों का यह अन्तिम संस्कार है ।

पर इस“ अंत्येष्टि” शब्द में एक गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है , जो संभव है की कुछ लोगों को नहीं पता होगा ।

यह अंत्येष्टि शब्द दो शब्दों अंत्य + इष्टि”  में गुण संधि के द्वारा बना है ।

अब जो पंथ , यज्ञ को संस्कार नहीं मानते पर अंत्येष्टि करते हैं उनके लिए भी जानने की बात है की इष्टि का निरुक्त  “यज्ञ”  होता है ।

अब एक शब्द “अंत्याक्षरी” (यह एक प्राचीन खेल है)  समझ लें जिससे अंत्येष्टि समझने में सहायता मिलेगी ।

अंत्याक्षरी में अंतिम अक्षर , समाप्त करने के लिए नहीं होता बल्कि उसी अन्तिम अक्षर से कविता आरम्भ करने के लिए होता है ।

ठीक वही भावना है अंत्येष्टि में । अंतिम यज्ञ पुनः नव यज्ञ का आरम्भ है । और वह आरम्भ वहीं से होता है जहाँ तक वह जीव पहुँच चुका होता है ।

अपने इसी जीवन को यज्ञ स्वरूप बनाएँ । हृदय में सीता राम धारण करें…

श्राद्ध करते हो अर्थात मानते हो कि देह , आत्मा से भिन्न है । और यह बताने के लिए हर गाँव में हमें स्कूल नही खोलना थाहमें दुकान नही चलानी थी ।

जो लोग भी आज बक बक करते हैं कि सनातन धर्म ने हर गाँव में वेदों को सिखाने का प्रयास क्यो नही किया ।

तो, भैया , हमने हर गाँव में नहीं बल्कि हर मनुष्य के हृदय में ज्ञान देने का प्रयास किया । पर तुम, संसार जो कभी भी पकड़ा नहीं जा सकता उसको पकड़ने के लिए भाग रहे हो , और तुम्हारी आत्मा जो सदैव तुम्हारे साथ है उसके साक्षात्कार की तुम्हें चिंता ही नहीं है ।

सभी संस्कार तुम्हारे अद्वितीय होने की सूचना देते है । तुम्हीं ब्रह्म हो । जगो ।

अब अंतिम पक्ष…..

सनातन धर्म का रहस्य”

01. जब आप , अपने पितामह , पर पितामह या पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं तो आपके बच्चे को पता चलता है की आत्मा , देह से अलग है ।सब कुछ पेट ही नहीं है ।

02. इंद्रिय का अर्थ “इंद्र का” अर्थात देवताओं का , जब आप अपनी इंद्रियों को बलशाली बनाते हैं , विभिन्न उपायों के द्वारा , वह देव पूजा है ।

03. जब आपको ज्ञान लेना होता है तब गीता , वेद , पुराण इत्यादि का सहारा लेते है और यह एक प्रकार की ऋषि पूजा है ।

04. जब आप चलकर मंदिरों में जाते हैं और उस मंदिर की मूर्ति को , वहाँ के विधि अनुसार मूर्ति पूजा करते हैं वह इश्वर के सर्वत्र होने का भाव प्रकट करता है ।

05. जब आप इश्वर के विवृति अभिन्न निमित्तोपादान कारण द्वारा अवतार की पूजा करते हैं वह आपके द्वारा इश्वर के वात्सल्य भाव की पूजा है ।

06. और यह सब करते हुए आप अपना अंत: करण शुद्ध करते हुए स्वंयम का स्वरूप जानने का प्रयास करते हैं । यह सब सनातन के अंग हैं । इसमें से किसी एक को न मानने वाला हिन्दु आपका शत्रु नहीं है ।

जीवन में IIT, IIM, IAS, बीस कोठियाँ , बैंक बैलेंस बनाइए पर उपर बताए हुए 6 बिंदुओं पर भी ध्यान रखिए ।

नोट: कुछ लोगों ने अभिन्न निमित्तोंपादान कारण की व्याख्या पूछी है , जो इस प्रकार से है ।

अभिन्न निमित्तोपादान”

पिता ( कार्य ) होता है और पुत्र ( कारण ) , परन्तु वही पुत्र कालांतर में  ( स्वंय कार्य ) बन जाता है और उसका पुत्र , कारण ।

और दूसरे ढंग से देखिए । बीजांकुरण न्याय की दृष्टि से । बीज को आजकल (-30 डिग्री ) पर भी भविष्य के लिए सुरक्षित करके रखा जा रहा है , क्योकि यह बात सर्व सिद्ध है की उस बीज में वृक्ष बनने का संस्कार निहित है अर्थात बीज ( कार्य ) और वृक्ष ( कारण) रूपी गुण प्रकृति में निहित है । और उचित वातावरण , खाद जल प्रकाश तापमान आदि मिलने पर उसमें स्फुरण होगा ।

जब हम “अभिन्न” कहते है तो इसका अर्थ इस कार्य और कारण से भिन्न है अर्थात कार्य कारणातीत है । अर्थात यह विश्व प्रपंच में जो भी कार्य कारण है , परमात्मा उससे कारणातीत है ।

पर अभिन्न , तत्व से भिन्न नहीं है । तत्व के समान नहीं , तत्व से अभिन्न ।

जैसे एक बूँद सागर का जल पूरे के सागर के समान शक्तिशाली नहीं होता पर गुण में एक समान अर्थात अभिन्न होता है ।

निमित्त , एक कुम्हार ही घड़ा बना सकता है अत: कुम्हार , घड़े का निमित्त कारण है ।

और मिट्टी उस घड़े का “ उपादान “ कारण है , क्योकि घड़ा वास्तव में मिट्टी ही है ।

अत: अभिन्न निमित्तोंपादान का अर्थ , जीव भी वही , जगत भी वही और जगदीश्वर भी वही ।

घड़ा भी वही, मिट्टी भी वही, कुम्हार भी वही ।

अब एक और बात (अंतिम नहीं)…….

सवाल हमारी आस्था पर ही क्यों?

अगले माह ईसाइयों का हैलोवीन त्यौहार आने वाला है, जिसमें वे अपने मृत पूर्वजों को याद करते हैं।इस त्यौहार में लोग मृत्यु या मृतकों का संकेत देने वाली वस्तुओं से लोग अपने घरों को सजाते हैं। इनमें कंकाल, चुड़ैल, भूत-प्रेतों वाले मुखौटे, मकड़ियां और कटे हुए हाथ-पैर आदि कई प्रकार की वीभत्स चीजें होती हैं।इन दिनों वहां के लगभग सभी बड़े स्टोर हैलोवीन के सामान से पटे हुए हैं। यूरोप, अमरीका और कनाडा जैसे आधुनिक और विकसित समझे जाने वाले देशों में भी आज तक वहां के लोग अपने त्यौहारों को अपनी परंपराओं के अनुसार पूरे उत्साह व धूमधाम से मना रहे हैं। कोई इसे अंधविश्वास नहीं कहता और न कोई इसका वैज्ञानिक आधार पूछकर किसी की आस्था का मजाक उड़ाता है।

इधर दूसरी ओर भारत में कई नमूने हैं, जो लगभग हर सनातन धर्म (हिन्दू ) त्यौहार के खिलाफ कोई न कोई सवाल उठाते हैं और कभी पर्यावरण के नाम पर, कभी अंधविश्वास मिटाने के नाम पर, तो कभी किसी और बहाने से हमारे त्यौहारों को मिटाने में लगे रहते हैं। इन दिनों पितृ-पक्ष चल रहा है तो उस पर भी सवाल उठाने वाले या पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने वालों को अंधविश्वासी बताने वाले कई लोग आपको भी दिखते होंगे।

मेरा सुझाव है कि ऐसे कुंठित लोगों को उनके हाल पर छोड़ दें। उन्हें किसी बात का वैज्ञानिक आधार बताने या किसी त्यौहार का अर्थ समझाने के फेर में पड़कर अपना समय बर्बाद न करें क्योंकि ऐसे लोग कुछ जानने समझने के लिए सवाल नहीं पूछते हैं, बल्कि केवल आपकी आस्था को ठेस पहुंचाने या आपको अपमानित करके स्वयं प्रसन्न होने के लिए ही ऐसे सवाल पूछते हैं। आप इनकी उपेक्षा कीजिए और अपनी आस्था पर अडिग रहिए।

सैकड़ों वर्षों के अन्याय, अत्याचार और गुलामी के कालखंड में भी हमारे और आपके पूर्वज सारे संकटों का सामना करते हुए भी अपने धर्म, संस्कृति और आस्था पर अडिग रहे, इसीलिए आप और मैं आज भी गर्व से स्वयं को सनातन धर्म (हिन्दू ) कह पा रहे हैं और अपनी आस्था का पालन कर पा रहे हैं। हम सबके पूर्वजों के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। मैं उन सबको प्रणाम करता हूं।