कोकिला व्रत, साधिकाओं को सौभाग्यवती होने का वरदान, कुंवारी कन्याओं के लिए भी यह व्रत है बेहद लाभदायक
हिंदू धर्म में कई तरह के व्रत और त्योहार मनाए जाते हैं. इन्हीं में से एक है कोकिला व्रत…. कोकिला व्रत आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि से शुरू होता है और श्रावण पूर्णिमा को समाप्त होता है। यह व्रत 1 महीने चलता है। कुंवारी कन्याओं के लिए यह व्रत बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। पूरी श्रद्धा के साथ कोकिला व्रत करने से कुंवारी कन्याओं को योग्य और सर्वगुण सम्पन पति मिलता है। अगर कोई शादीशुदा स्त्री इस व्रत को श्रद्धा पूर्वक रखती हैं तो उनके पति की उम्र लम्बी हो जाती है. ।जो लोग पूरी श्रद्धा नियम के साथ इस व्रत का पालन करते हैं उन्हें मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।
- सनातन धर्म में बेहद महत्वपूर्ण मानी गई है आषाढ़ पूर्णिमा की तिथि, इस दिन रखा जाता है कोकिला व्रत।
- कोकिला व्रत रखने वाली महिलाओं को मिलता है सौभाग्यवती होने का वरदान, कुंवारी कन्याओं के लिए भी यह व्रत है बेहद लाभदायक।
- कोकिला व्रत पर महिलाएं करती हैं कोयल की पूजा, इस दिन पूजा-आराधना के बाद अवश्य पढ़ें देवी सती की पौराणिक कथा।
धर्म/संस्कृति डेस्क, चंडीगढ़:
आषाढ़ पूर्णिमा पर रखे जाने वाला कोकिला व्रत (Kokila vrat) देवी सती और शिव भक्तों के लिए अत्यंत कल्याणकारी माना गया है। कहा जाता है कि जो भक्त कोकिला व्रत रखते हैं तथा देवी सती और भगवान शिव की पूजा करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। आषाढ़ पूर्णिमा पर रखे जाने वाला कोकिला व्रत पूरे सावन मास चलता है और इन दिनों विशेष अनुष्ठान करना मंगलमय कहा गया है। मान्यताओं के अनुसार जो महिलाएं इस दिन कोकिला व्रत रखती हैं उनका सुहाग हमेशा सलामत रहता है तथा उनका वैवाहिक जीवन सुखमय बीतता है।
कुंवारी कन्याओं के लिए भी यह व्रत बेहद लाभदायक माना गया है। इस दिन महिलाएं मिट्टी से कोयल बनाकर उसकी पूजा करती हैं। कहा जाता है कि कोकिला देवी सती का रूप है और इसकी पूजा करना फलदायक है। कोकिला व्रत का फल कथा सुनने के पश्चात ही पूरा मिलता है इसीलिए इस दिन कथा का पाठ करें।
कोकिला व्रत कथा इन हिंंदी, कोकिला व्रत की पौराणिक कहानी,
कहा जाता है कि अनंतकाल में राजा दक्ष रहते थे जिन्होंने एक बार अपने घर में यज्ञ आयोजित करवाया था। इस यज्ञ में राजा दक्ष ने सभी देवी देवताओं को बुलाया था मगर उन्होंने देवी सती और भोलेनाथ को आमंत्रित नहीं किया था। जब देवी सती को इस यज्ञ का पता चला तो वह भी इस यज्ञ में शामिल होने के लिए भगवान शिव से आग्रह करने लगीं। भगवान शिव ने देवी सती को समझाया कि अगर राजा दक्ष ने हमें नहीं बुलाया है तो इसके पीछे जरूर कोई कारण होगा, इसलिए उन्हें यज्ञ में नहीं जाना चाहिए। देवी सती ने भगवान शिव की बात ना मानी और वह जिद करने लगीं।
देवी सती ने योगाग्नि में दे दी आहुति
देवी सती की जिद मानते हुए भगवान शिव ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। जब देवी सती यज्ञ में पहुंची तब उन्होंने देखा कि कोई भी उनसे प्यार से बात नहीं कर रहा है। किसी ने भी उनका मान सम्मान नहीं किया जिससे देवी सती को बहुत बुरा लगा। भगवान शिव की बात ना मानकर देवी सती को बहुत पछतावा हुआ और कुंठित होने के चलते उन्होंने योगाग्नि में आहुति दे दी।
भगवान शिव ने दिया श्राप
जब भगवान शिव को देवी सती की आहुति का पता चला तब वह बेहद क्रोधित हुए। क्रोध में आकर उन्होंने देवी सती को उनकी इच्छाओं के विरुद्ध आहुति देने के लिए श्राप दिया। भगवान शिव का शाप था कि देवी सती को 10 हजार साल तक कोयल के रूप में वन में भटकना होगा। भगवान शिव के शाप के चलते देवी सती कालांतर में 10 हजार साल तक वन में भटकती रहीं और भगवान शिव की पूजा-आराधना करती रहीं। 10 हजार साल बाद देवी सती को पर्वतराज हिमालय की पुत्री का जन्म मिला था।