सनातन धर्म के अनुसार एकादशी तिथि का विशेष महत्त्व है। यह तिथि महीने में दो बार पड़ती है पहली शुक्ल पक्ष में और दूसरी कृष्ण पक्ष में। इस प्रकार पूरे साल में 24 एकादशी तिथियां होती हैं जिनका अपना अलग महत्त्व है। ऐसी ही एकादशी तिथियों में से एक है ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि। हिन्दू धर्म में ज्येष्ठ मास का विशेष महत्व है क्योंकि हिंदू कैलेंडर के अनुसार ज्येष्ठ मास साल का तीसरा महीना होता है और माना जाता है कि इस महीने में सूर्य की सीधी किरणें धरती पर पड़ती हैं और इसके प्रभाव से दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं।
धर्म/संस्कृति डेस्क, चंडीगढ़ – डेमोक्रेटिकफ्रंट॰कॉम :
निर्जला मतलब बिना जल आहार के दिनभर का उपवास। ज्येष्ठ (जून) माह में पड़ने वाली ग्यारस को निर्जला या भीमसेनी ग्यारस कहते है। साल में 24 एकादशी में से निर्जला एकादशी का विशेष महत्त्व है, बाकि एकादशी से ये सबसे ज्यादा मुश्किल व्रत भी है, क्यूंकि इस दिन बिना आहार के रहा जाता है। कहते है अगर कोई साल में बाकि 23 एकादशी का व्रत न रखे, लेकिन सिर्फ यह वाली एकादशी को पूरी श्रद्धा, भक्ति भाव से, नियमानुसार करे, तो उसे बाकि एकादशी का फल भी मिल जाता है। साथ ही इस व्रत के रहने से चारों धाम के तीर्थ का फल भी मिलता है। इसे कुछ लोग भीमसेनी एकादशी भी कहते है।
ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस वर्ष यह एकादशी 21 जून को पड़ रही है। हालांकि एकादशी तिथि का प्रारम्भ 20 जून सायं 4 बजकर 21 मिनट से ही हो जायेगा लेकिन सूर्योदय से पर्व मनाने की परम्परा के चलते निर्जला एकादशी 21 जून को मनायी जायेगी। इस दिन एकादशी तिथि दोपहर 1 बजकर 31 मिनट तक रहेगी। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि जब कभी भी एकादशी का व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं। यह भी देखा गया है कि निर्जला एकादशी का व्रत अमूमन गंगा दशहरा के अगले दिन ही पड़ता है।
निर्जला एकादशी व्रत में पानी पीना वर्जित है इसलिये इसे निर्जला एकादशी कहते हैं। सभी एकादशियों में से निर्जला एकादशी सर्वोत्तम मानी गई है। मान्यता है कि निर्जला एकादशी का व्रत रखने से समूची एकादशियों के व्रतों के फल की प्राप्ति सहज ही हो जाती है। यह व्रत स्त्री और पुरुष दोनों को ही करना चाहिए। हिंदू धर्म में हालांकि सभी एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण है लेकिन निर्जला एकादशी वर्ष में चौबीस एकादशियों में सर्वश्रेष्ठ होती है।
निर्जला एकादशी के अन्य नाम
इस व्रत को भीमसेन एकादशी या पांडव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि भोजन पर संयम नहीं रखने वाले पांच पाण्डवों में एक भीमसेन ने इस व्रत का पालन कर सुफल पाए थे। इसलिए इसका नाम भीमसेनी एकादशी भी पड़ा। एकादशी का व्रत भगवान श्रीविष्णु को समर्पित होता है। यह व्रत मन को संयम सिखाता है और शरीर को नई ऊर्जा देता है। कुछ व्रती इस दिन एक भुक्त व्रत भी रखते हैं यानि सायं को दान-दर्शन के बाद फलाहार और दूध का सेवन करते हैं।
निर्जला एकादशी पूजा विधि
एकादशी तिथि के सूर्योदय से अगले दिन द्वादशी तिथि के सूर्योदय तक जल और भोजन का त्याग किया जाता है। इसके बाद दान, पुण्य आदि कर इस व्रत का विधान पूर्ण होता है। इस दिन सर्वप्रथम भगवान श्रीविष्णु की विधिपूर्वक पूजा करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवायः मंत्र का जाप करे। इस दिन व्रत करने वालों को चाहिए कि वह जल से कलश भरें व सफेद वस्त्र को उस पर रखें और उस पर चीनी तथा दक्षिणा रखकर ब्राह्मण को दान दें। इस दिन कलश और गौ दान का विशेष महत्व है।
निर्जला एकादशी व्रत विधान
निर्जला एकादशी के दिन पानी नहीं पिया जाता इसलिए यह व्रत अत्यधिक श्रम साध्य होने के साथ−साथ कष्ट एवं संयम साध्य भी है। इस दिन निर्जल व्रत करते हुए शेषशायी रूप में भगवान श्रीविष्णु की आराधना का विशेष महत्व है। इस एकादशी का व्रत करके यथासंभव अन्न, वस्त्र, छतरी, जूता, पंखी तथा फल आदि का दान करना चाहिए। इस दिन जल कलश का दान करने वालों को वर्ष भर की एकादशियों का फल लाभ प्राप्त हो जाता है।
निर्जला एकादशी व्रत कथा
एक दिन महर्षि व्यास ने पांडवों को एकादशी के व्रत का विधान तथा फल बताया। इस दिन जब वे भोजन करने के दोषों की चर्चा करने लगे तो भीमसेन ने अपनी आपत्ति प्रकट करते हुए कहा, ”पितामह! एकादशी का व्रत करते हुए समूचा पांडव परिवार इस दिन अन्न जल न ग्रहण करे, आपके इस आदेश का पालन मुझसे नहीं हो पाएगा। मैं तो बिना खाए रह ही नहीं सकता। अतः चौबीस एकादशियों पर निराहार रहने की कष्ट साधना से बचने के लिए मुझे कोई एक ऐसा व्रत बताइए जिसे करने पर मुझे विशेष असुविधा न हो और वह फल भी मिल जाए जो अन्य लोगों को चौबीस एकादशी व्रत करने पर मिलेगा।”
महर्षि व्यास जानते थे कि भीमसेन के उदर में वृक नामक अग्नि है। इसीलिए अधिक मात्रा में भोजन करने पर भी उनकी भूख शांत नहीं होती। अत: भीमसेन के इस प्रकार के भाव को समझ महर्षि व्यास ने आदेश दिया, ”प्रिय भीम! तुम ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को ही मात्र एक व्रत किया करो। इस व्रत में स्नान आचमन के समय पानी पीने का दोष नहीं होता। इस दिन अन्न न खाकर, जितने पानी में एक माशा जवन की स्वर्ण मुद्रा डूब जाए, ग्रहण करो। इस प्रकार यह व्रत करने से अन्य तेईस एकादशियों पर अन्न खाने का दोष छूट जाएगा तथा पूर्ण एकादशियों के पुण्य का लाभ भी मिलेगा।” क्योंकि भीम मात्र एक एकादशी का व्रत करने के लिए महर्षि के सामने प्रतिज्ञा कर चुके थे, इसलिए इस व्रत को करने लगे। इसी कारण इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है।