विंध्यावासिनी पूजा
शिव पुराण के अनुसार मां विंध्यवासिनी माता सती का रूप हैं. श्रीमद् भागवत में मां विंध्यवासिनी का नंदजा देवी के रूप में उल्लेख है. इसके अलावा विभिन्न धर्म ग्रंथों में इन्हें विभिन्न नामों से वर्णित किया गया है. उदाहरर्णाथ कृष्णानुजा , वनदुर्गा आदि. माँ विंध्यवासिनी की विशिष्ठ पूजा-अनुष्ठान ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की षष्ठी (इस वर्ष 16 जून 2021) के दिन करने का विधान है. इस दिन विंध्याचल स्थित माँ विंध्यवासिनी का दर्शन करने हेतु भारी तादाद में भक्त यहां पहुंचते हैं. मान्यता है कि इस दिन माता का दर्शन एवं पूजन से सभी मनोकामनाएं एवं सिद्धियां आसानी से पूरी होती हैं.
धर्म/संस्कृति डेस्क, डेमोक्रेटिकफ्रंट॰कॉम :
माँ विंध्यवासिनी का महात्म्य
उत्तर भारत स्थित विंध्याचल पर्वत पर निवास करने वाली, कल्याणकारी मां विंध्यवासिनी माता महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती का रूप धारण करने वाली, एवं मधु-कैटभ का संहार करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं. मान्यता है कि जो भी व्यक्ति यहां आकर मां विंध्यवासिनी की तपस्या करता है, उसे इच्छित दैवीय सिद्धियां प्राप्त होती हैं. मां विंध्यवासिनी अपने दिव्य स्वरूप में विंध्याचल पर्वत पर विराजमान रहती हैं. पुराणों में विंध्याचल पर्वत को हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है.
कौन हैं मां विंध्यवासिनी?
मार्कंडेय पुराण के अनुसार माँ दुर्गा ने त्रेता युग में राक्षसों के संहार हेतु भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को नंद-यशोदा के घर में जन्म लिया था. उसी दिन विष्णुजी मथुरा जेल में देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण रूप में अवतरित हुए थे. अत्याचारी कंस को पता चल गया था कि उसकी बहन की आठवीं संतान उसका वध करेगी. इस पर उसने देवकी-वासुदेव को कैद कर लिया. देवकी जिस भी संतान को जन्म देतीं, कंस उसे मार देता था. लेकिन देवकी की आठवीं संतान पैदा हुई तो देवकृपा से कंस को पता नहीं चला. वासुदेव ने शिशु कृष्ण को नंद-यशोदा के घर पहुंचाकर उसी दिन उनके घर पैदा हुई कन्या को लाकर देवकी को सौंप दिया. कंस को देवकी की आठवीं संतान की खबर मिली, वह तत्क्षण जेल में आया. कंस ने ज्यों ही बालस्वरूपी दुर्गाजी को मारना चाहा, दुर्गाजी ने प्रकट होकर उसे बताया कि उसका संहारक गोकुल में है. मार्कंडेय पुराण के अनुसार इसके बाद माँ दुर्गा विंध्य पर्वत पर आसीन हो गईं. तभी से उन्हें विंध्यवासिनी के नाम से जाना जाता है.
ऐसे करें माँ विंध्यवासिनी की पूजा-अनुष्ठान
ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन विंध्याचल में पूजा का आयोजन होता है, लेकिन इस वर्ष कोरोना के कारण घर में ही पूजा-अर्चना करनी चाहिए. यह पूजा रात्रिकाल में होती है. ज्येष्ठमास की षष्ठी को स्नान ध्यान कर नये वस्त्र धारण कर माँ विंध्यवासिनी का ध्यान करें. किसी एकांत कमरे की अच्छे से सफाई कर पूर्व दिशा में मुंह करके आसन पर बैठें. सामने एक स्वच्छ चौकी रखें. इस पर गंगाजल छिड़ककर लाल आसन बिछायें, इस पर माँ विंध्यवासिनी का साधना यंत्र स्थापित करें. यंत्र के पास सात छोटी सुपारी रखें, धूप-दीप प्रज्जवलित कर, मौली को विंध्यवासिनी यंत्र पर लपेटकर माँ विंध्यवासिनी का आह्वान करें. पूजा-अर्चना कर विंध्येश्वरी माला फेरने के साथ माँ विंध्यवासिनी के इस मंत्र का 5 बार जाप करें.
‘ॐ अस्य विंध्यवासिनी मन्त्रस्य,
विश्रवा ऋषि अनुष्टुपछंद: विंध्यवासिनी,
देवता मम अभिष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोग:’
यह पूजा 11 दिनों तक निंरतर करनी चाहिए औऱ 9 दिनों तक 45 माला का जाप करें. पूजा के पश्चात मन ही मन मनोकामना करें. 11 वें दिन किसी ब्राह्मण से हवन कराकर उसे दक्षिणा एवं भोजन दें. पूजा हवन में प्रयोग की हुई वस्तुओं को किसी नदी के प्रवाह में विसर्जित करें. यह संभव नहीं है तो किसी पीपल वृक्ष की जड़ में दबा दें.
माँ विंध्यवासिनी ही हैं महिषासुर मर्दिनी!
मां विंध्यवासिनी का मंदिर विंध्य पर्वत पर स्थित है. इन्हें माँ काली के रूप में भी पूजा जाता है. क्योंकि महिषासुर का वध करने के लिए विंध्यवासिनी ने काली का रूप लिया था, इसलिए इन्हें महिषासुर -मर्दिनि भी कहते हैं. मान्यतानुसार यज्ञ में आहुति देने से मृत सती का शव लेकर भगवान शिव संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जब तांडव कर रहे थे, तब श्रीहरि के सुदर्शन चक्र से सती के टुकड़े जहां-जहां गिरे, उन्हें शक्तिपीठ का नाम दिया गया. विंध्य पर्वत पर भी ऐसा ही एक शक्तिपीठ है, जहां देवी काजल के नाम से पूजा की जाती है.