भाजपा कार्यकर्ता सम्मान समारोह का मीडिया ने किया बहिष्कार।

मुख्य मंत्री खट्टर के कार्यकर्ता सम्मान सम्मेलन में भाजपा पंचकुला कार्यकारिणी, पंचकुला प्रशासन, लोकसमपर्क विभाग और पुलिस विभाग के प्रबंधन में साफ तौर पर आपसी तालमेल का स्पष्ट आभाव दिखाई पड़ा। किसी भी कार्यक्र्म में मुख्य भूमिका आयोजक एवं प्रबन्धक की ही होती है। इसमें तीनों ओर से प्रबंधन असफल रहा।

सारिका तिवारी, पंचकूला :

मीडिया कर्मियों ने किया सम्मेलन का बहिष्कार

मुख्य मंत्री मनोहरलाल के भाजपा के कार्यकर्ता सम्मान समारोह का पत्रकारों ने किया बहिष्कार

मीडिया कर्मी कपिल नागपाल को पकड़ कर बाहर करते हुए

पुलिसकर्मियों राकेश और सुरेंद्र द्वारा मीडिया से धक्का मुक्की करने व बदसलूकी करने पर किया बहिष्कार । पंचकूला पुलिस के गैर ज़िम्मेदाराना प्रबन्धन की पोल उस समय खुली जब मीडिया को कैमरे लगाने की जगह देने से इन्कार कर दिया गया। इतना ही नहीं मीडिया से बदसलूकी भी की गई।

इस बारे में जब मुख्यमंत्री को पता चला तो उन्होंने पुलिस अधिकारियों को जांच करने के आदेश दिए और आइन्दा से इस तरह की कोताही न करने की चेतावनी दी।

सपा-बसपा गठबंधन नतीजे क्यों नहीं दे पाया???

प्रधान मंत्री मोदी ने चुनावों के दौरान ही महागठबंधन को ले कर कहा था की नतीजों के बाद यह आपस ही में लड़ खपेंगे। नतीजे आने के 13 दिन बाद ही गठबंधन धराशायी हो गया। सूत्रों की मानें तो मायावती ने सपा के सहारे अपनी डूबी नैया पार लगा ली। सूत्रों के अनूसार जिस जगह आप जातिवाद की राज नीति करते हैं वहाँ एक बात सपष्ट है की यादवों को अखिलेश ओर डिम्पल का मायावती के पाँव पड़ना पसंद नहीं आया। जहां एक ओर दलित वोटर भाजपा के खेमे में गया वहीं यादव वोटर ने भी भाजपा का पलड़ा भारी किया। माया यह सब जानती थी। जानते मुलायम भी थे पर उनकी बात सुनता कौन??

लखनऊः लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद सपा-बसपा गठबंधन टूट गया है. बीएसपी प्रमुख मायावती ने समाजवादी पार्टी पर आरोप लगाया है कि सपा अपना काडर वोट भी नहीं ले सकी है. इसलिए यह कहना मुश्किल होगा कि सपा के लोगों ने बीएसपी को कितने वोट दिए होंगे. उन्होंने कहा कि सपा को यादव बाहुल्य क्षेत्रों में भी वोट नहीं मिला है. उधर अखिलेश यादव ने मायावती के फैसले पर कहा, जिन्हें जाना है वह जा सकते है. उप चुनाव में सपा अकेले चुनाव लड़ेगी. ऐसे में अब यह सवाल भी उठ रहे हैं किआखिर मायावती ने क्यों तोड़ा गठबंधन? क्या मायावती ने समाजवादी पार्टी से पुराना बदला ले लिया है?

दरअसल ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है क्यों कि मुलायम सिंह यादव ने बीएसपी से गठबंधन का विरोध किया था और लोकसभा चुनाव के नतीजे देखें तो सपा-बसपा गठबंधन का सीधा फायदा बीएसपी को हुआ और नुकसान समाजवादी पार्टी को बीएसपी शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई और सपा 5 सीटें ही जीत पाई. इस पूरे गठबंधन में मायावती सीनियर और अखिलेश जूनियर पार्टनर की भूमिका में रहे

गठबंधन में मायावती रहीं सीनियर

12 जनवरी 2019 को लखनऊ में सपा बसपा के गठबंधन का ऐलान होता है. गठबंधन और सीटों का ऐलान मायावती करती हैं. पूरी प्रेस वार्ता में मायावती गेस्ट हाऊस कांड का नाम लेना नहीं भूलती हैं. अखिलेश यादव पीसी में मायावती के बाद बोलते हैं. 38-38 सीटों पर दोनों दल चुनाव लड़ने का ऐलान करते हैं. सपा बसपा 2 सीटें अमेठी और रायबरेली कांग्रेस के लिए छोड़ते हैं और 2 सीटें आरएलडी के लिए. आरएलडी 2 सीटों पर गठबंधन में शामिल होने को तैयार नहीं थी, वो कम से कम 3 सीटें मांग रही थी.

अखिलेश ने कदम कदम पर किया समझौता

मायावती ने अपने कोटे से आरएलडी को सीट देने से मना कर दिया. मायावती के इंकार के बाद अखिलेश यादव ने अपने कोटे से 1 और सीट मथुरा आरएलडी को दी. इस प्रकार बीएसपी – 38, सपा – 37, RLD- 3 सीटों पर चुनाव लड़ी सीटों की संख्या के बाद अब सीटों के चयन पर सपा-बसपा ने काम करना शुरू किया, इसमें भी बीएसपी प्रमुख मायावती अपर हैंड रहीं. सभी शहरी सीटें मायावती ने समाजवादी पार्टी के कोटे में दे दी. लगभग 10 ऐसी सीटें जहां पर बीजेपी को हराना नामुमकिन होता है.

माया ने सपा प्रत्याशी के लिए नहीं की अलग रैली

मायावती ने अखिलेश यादव को वाराणसी, लखनऊ, गाज़ियाबाद, कानपुर, झांसी, गोरखपुर, अयोध्या, इलाहाबाद, बरेली, उन्नाव जैसी शहरी सीटें दी, यानि इस प्रकार से अखिलेश यादव सिर्फ 27 सीटों पर मजबूती से लड़ पाए.सीटों के बंटवारे के बाद अब चुनाव प्रचार की बारी आई, तो अखिलेश-मायावती ने एक साथ लगभग 19 संयुक्त रैलियां की. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने संयुक्त रैलियों के अतिरिक्त बीएसपी के 30-32 प्रत्याशियों के लिए अलग से अकेले चुनावी रैलियां की. बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने सपा के किसी भी प्रत्याशी के लिए अलग से कोई भी चुनावी रैली नहीं की.

डिंपल की हार के पीछे दलित वोटों का बीजेपी के शिफ्ट

लोकसभा चुनाव के नतीजों में मायावती यादव बाहुल्य सीटें जीतीं लेकिन अखिलेश यादव दलित बाहुल्य सीटें हार गए. मायावती गाज़ीपुर, जौनपुर, घोसी, लालगंज, अंबेडकरनगर जैसी यादव बाहुल्य सीटें जीत गईं. अखिलेश यादव हाथरस, हरदोई, कौशाम्बी, फूलपुर, बाराबंकी, बहराइच, रॉबर्ट्सगंज जैसी दलित बाहुल्य सीटें हार गए. कहा ये भी जा रहा है कि कन्नौज में अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव की हार के पीछे दलित वोट बैंक का बीजेपी की तरफ शिफ्ट होना है. 2014 में बीएसपी अलग चुनाव लड़ी थी तो कन्नौज में दलित वोट बीएसपी के पास गया था लेकिन 2019 में साइकिल निशान होने के कारण दलित वोट बीजेपी के पास चला गया. जिस वजह से कन्नौज से डिम्पल यादव चुनाव हार गईं. यहां कन्नौज की रैली में डिम्पल यादव ने बीएसपी अध्यक्ष मायावती के पैर छुए थे. कन्नौज में डिम्पल यादव 12,353 वोटों से चुनाव हार गईं.

यादव वोट बंटवारे ने सपा को हराया

जानकार ऐसा मानते हैं कि बदायूं और फिरोज़ाबाद में यादव वोटों के बंटवारे ने सपा को हरा दिया. फिरोज़ाबाद में अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव ने यादव वोट काटा. फिरोज़ाबाद में सपा के महासचिव रामगोपाल के बेटे अक्षय यादव चुनाव लड़ रहे थे. शिवपाल यादव भी फिरोज़ाबाद से लोकसभा चुनाव लड़े. यादव वोटों में बंटवारे से फिरोज़ाबाद सीट पर बीजेपी की जीत हुई. फिरोज़ाबाद में सपा के अक्षय यादव 28,781 वोटों से चुनाव हार गए, इसी सीट पर शिवपाल यादव को 91,869 वोट मिले. यानि ये सीट सपा शिवपाल यादव के कारण हार गई. बदायूं में सपा के धर्मेन्द्र यादव 18,454 वोटों से चुनाव हार गए, यहां पर गुन्नौर विधानसभा में यादव वोटों का बंटवारा हुआ. यादव वोटों में बंटवारे से ये सीट सपा हार गई.

मायावती ने क्यों तोड़ा गठबंधन?

जानकार मानते हैं कि मायावती ने 10 सीटें जीतने के बाद सपा का जनाधार कम करने के लिए यह फैसला लिया है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में 10 सीटे लाने के बाद अब बीएसपी ने फैसला किया है कि वह पहली बार उपचुनाव लड़ेगी. ऐसा बताया जा रहा है कि मायावती की निगाहें 2022 में सीएम पद पर है. ऐसे में अगर इन उपचुनाव में अखिलेश से गठबंधन रहता तो अखिलेश को यूपी का सीएम चेहरा बनाना पड़ता,  क्योंकि अखिलेश ने अनौपचारिक तौर पर 2019 में मायावती को पीएम चेहरा माना था.

सपा का मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ना चाहती हैं माया

2019 में मोदी के बंपर जीत के बाद मायावती के पास यूपी विधानसभा चुनाव के अलावा कहीं और फोकस करने की कोई गुंजाईश नहीं बची है. ऐसा बताया जा रहा है कि मायावतीअपने भतीजे आकाश आनंद को मायावती विधानसभा चुनाव में लॉच कर सकती हैं. हालांकि मायावती ने गठबंधन पर परमानेंट ब्रेक ना लगने की बात भी कही है. दरअसल मायावती मुस्लिमों में ये संदेश नहीं देना चाहती हैं कि गठबंधन उन्होंने तोड़ दिया है.

क्यों अहम है यूपी के उपचुनाव

यूपी में 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. इनमें रामपुर, लखनऊ कैंट, प्रतापगढ़, गोविंदनगर (कानपुर), गंगोह (सहारनपुर), टूंडला (सु), जलालपुर (अंबेडकरनगर), इगलास (अलीगढ़), बलहा (बहराइच), जैदपुर (बाराबंकी), मानिकपुर-चित्रकूट 12 वीं सीट मुज़फ्फरनगर ज़िले की मीरापुर विधानसभा सीट पर उप चुनाव संभव हो सकता है, क्योंकि यहां से बीजेपी के टिकट पर विधायक बने अवतार भड़ाना 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी थे. दलबदल कानून के कारण अवतार भड़ाना की सदस्यता खत्म हो सकती है.

उपचुनाव से साफ होगी 2022 की तस्वीर

यूपी में होने वाले उपचुनाव के नतीजे 2022 की तस्वीर साफ करेंगे. सपा बसपा अलग होने के बाद किस स्थिति में रहेंगे, ये भी उपचुनाव के नतीजे तय करेंगे. बीजेपी के लिए भी ये चुनाव महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि ये चुनाव मोदी के नाम पर नहीं होगा. सपा बसपा इन चुनावों के जरिए अपनी वापसी की कोशिश करेंगे.

सपा बसपा गठबंधन क्यों फेल रहा है?

सपा बसपा गठबंधन के फेल होने का कारण जानकार यह बताते हैं किसपा बसपा ने जातीय समीकरण पर काम किया, सपा बसपा दलित-यादव-मुस्लिम के समीकरण वाले आंकड़ों में उलझ गई. दोनों दलों ने बूथ पर काम नहीं किया. ऐसा बताया जा रहा है कि दोनों पार्टियों का चुनावी मैनेजमेंट ठीक नहीं था. बूथ स्तर पर सपा बसपा ने साथ काम नहीं किया. बीजेपी ने गोरखपुर-फूलपुर-कैराना के नतीज़ों के बाद बूथ स्तर पर काम शुरू किया. बीजेपी के पास गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित पूरी तरह से आ गया. बीजेपी को सवर्णों का पूरा वोट मिला. बीजेपी ने वोटर लिस्ट पर काम किया और सपा बसपा जातीय अंकगणित के जाल में उलझी रही. सपा बसपा के कई वरिष्ठ नेता नाराज़ थे

माया ने गठबंधन तोड़ा

नई दिल्लीः लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की हार के बाद नाराज चल रहीं बीएसपी सुप्रीम मायावती ने आज समाजवादी पार्टी के साथ अपने गठबंधन को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की. मायावती ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में ही कहा कि अखिलेश यादव ने उनका बहुत सम्मान किया है. मायावती ने कहा कि अखिलेश यादव के पूरे परिवार का हम भी बहुत सम्मान करते हैं. लेकिन लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का बेस वोट हमारी पार्टी की तरह मजबूत नहीं रहा. मायावती ने कहा कि समाजवादी पार्टी के बड़े प्रत्याशी यादव बाहुल्य सीटों पर हार गए. मायावती ने कहा कि डिंपल यादव कन्नौज में हार गईं. फिरोजाबाद में रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव हार गए और बदायूं में धर्मेंद्र यादव हार गए. इससे साबित होता है कि यादवों का वोट भी सपा को नहीं मिला.

मायावती ने अखिलेश यादव को कहा कि यदि वह राजनीतिक कार्यों के साथ साथ अपने कार्यकर्ताओं को बीएसपी की तरह मिशनरी मोड पर लाते हुए एकजुट करते हैं तो हम आगे उनके साथ हो सकते हैं.  ॉ

LIVE अपडेट

– जब से सपा के साथ बीएसपी का गठबंधन हुआ तब से अखिलेश जी ने मुझे बड़ा सम्मान दिया है. हमारे साथ उनके रिश्ते लंबे समय तक बने रहेंगे 
– समाजवादी पार्टी के साथ यादव समाज नहीं टिका रह सका, यादव बाहुल्य सीटों पर भी सपा के मजबूत उम्मीदवार हार गए है. सपा को उनका बेस वोट नहीं मिला
– बदायूं, कन्नोज और फिरोजाबाद सीट पर सपा प्रत्याशियों का हार जाना हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है.
– चुनाव परिणाम में ईवीएम की भूमिका खराब रही है. सपा बसपा का बेस वोट जुड़ने पर हमें नहीं हारना चाहिए था. 
– ऐसी स्थिति में यह आंकलन किया जा सकता है कि जब सपा का बेस वोट खुद सपा को नहीं मिला , तो बीएसपी को कैसे मिला होगा.
– इसी संदर्भ में कल 3 जून को दिल्ली केंद्रीय कार्यालय में चुनाव परिणामों की समीक्षा की गई थी.
 यदि मुझे लगेगा कि सपा प्रमुख अपने राजनीतिक कार्यों के साथ साथ अपने लोगों को मिशनरी बनाकर जोड़े रखेंगे तो हम फिर साथ आएंगे 
– फिलहाल आने वाले उपचुनावों में हमारे लिए अकेले चुनाव लड़ना ही ठीक रहेगा.
– मीडिया में गलत तरीके से हमारी बात को रखा गया, जबकि हमारी पार्टी की तरफ से या मेरी तरफ से कोई रिपोर्ट मीडियो को नहीं दी गई. 
– इसीलिए मैंने अपनी बात आज मीडिया के सामने रख दी है.

सोमवार को बीएसपी की अध्यक्ष मायावती ने लोकसभा चुनाव में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन पर क्षेाभ व्यक्त करते हुये पार्टी के पदाधिकारियों से ‘गठबंधनों’ पर निर्भर रहने के बजाय अपना संगठन मजबूत करने का निर्देश दिया था. मायावती ने आगामी उपचुनाव भी बसपा द्वारा अपने बलबूते लड़ने की बात कह कर भविष्य में गठबंधन नहीं करने का संकेत दिया थे.

मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने अपने ट्विटर अकाउंट से मंगलवार को जानकारी दी कि बीएसपी प्रमुख मायावती प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगी. आकाश ने अपने एक अन्य ट्वीट के जरिए यह भी बताया कि सपा-बसपा गठबंधन टूट नहीं रहा है केवल उपचुनाव अकेले लड़ने की बात है. 

बता दें कि लोकसभा चुनाव के परिणाम की समीक्षा के लिये मायावती ने सोमवार को उत्तर प्रदेश के पार्टी पदाधिकारियों और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की बैठक में कहा था कि बसपा को जिन सीटों पर कामयाबी मिली उसमें सिर्फ पार्टी के परंपरागत वोटबैंक का ही योगदान रहा. सूत्रों के अनुसार बसपा अध्यक्ष ने लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बावजूद बसपा के पक्ष में यादव वोट स्थानांतरित नहीं होने की भी बात कही है

लद्दाख, जम्मू और कश्मीर का परिसीमन कब और क्यों?

Map of Ladakh, J&K

दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार का सबसे ज़्यादा Focus देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा पर है. नए गृहमंत्री अमित शाह पिछले 4 दिनों में जम्मू और कश्मीर पर तीन बैठकें कर चुके हैं. आज भी अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर एक बैठक की और सूत्रों से हमें ये जानकारी मिल रही है कि सरकार, जम्मू और कश्मीर में परिसीमन किए जाने पर विचार कर रही है.

परिसीमन क्या होता है? ये हम आपको आगे विस्तार से बताएंगे. लेकिन आसान भाषा में आप ये समझ लीजिए कि अगर जम्मू-कश्मीर में परिसीमन हुआ तो राज्य के तीन क्षेत्रों… जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में विधानसभा सीटों की संख्या में बदलाव होगा. अगर परिसीमन हुआ तो जम्मू और कश्मीर के विधानसभा क्षेत्रों का नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा. जम्मू और कश्मीर की राजनीति में आज तक कश्मीर का ही पलड़ा भारी रहा है, क्योंकि विधानसभा में कश्मीर की विधानसभा सीटें, जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं. अगर परिसीमन होता है और जम्मू की विधानसभा सीटें बढ़ती है, तो अलगाववादी मानसिकता के नेताओँ की स्थिति कमज़ोर होगी और राष्ट्रवादी शक्तियां मजबूत होंगी.

Political Map of Jamnmu

आज हम कश्मीर पर मोदी सरकार की इस नई योजना का DNA टेस्ट करेंगे. हम कश्मीर पर इस नए Action Plan के सामने आने वाली चुनौतियों और रुकावटों का भी विश्लेषण करेंगे. परिसीमन का मतलब होता है… किसी राज्य के निर्वाचन क्षेत्र की सीमा का निर्धारण करने की प्रक्रिया. संविधान में हर 10 वर्ष में परिसीमन करने का प्रावधान है. लेकिन सरकारें ज़रूरत के हिसाब से परिसीमन करती हैं. जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में कुल 87 सीटों पर चुनाव होता है. 87 सीटों में से कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं. परिसीमन में सीटों में बदलाव में आबादी और वोटरों की संख्या का भी ध्यान रखा जाता है.

ऐसा माना जा रहा है कि अगर परिसीमन किया जाता है तो जम्मू की सीटें बढ़ जाएंगी और कश्मीर की सीटें कम हो जाएंगी, क्योंकि 2002 के विधानसभा चुनाव में जम्मू के मतदाताओं की संख्या कश्मीर के मतदाताओं की संख्या से करीब 2 लाख ज्यादा थी. जम्मू 31 लाख रजिस्टर्ड वोटर थे. कश्मीर और लद्दाख को मिलाकर सिर्फ 29 लाख वोटर थे.

कश्मीर के हिस्से में ज्यादा विधानसभा सीटें क्यों हैं? ये समझने के लिए आपको जम्मू और कश्मीर के इतिहास को समझना होगा. वर्ष 1947 में जम्मू और कश्मीर की रियासत का भारत में विलय हुआ. तब जम्मू और कश्मीर में महाराज हरि सिंह का शासन था. वर्ष 1947 तक शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के सार्वमान्य नेता के तौर पर लोकप्रिय हो चुके थे.

जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, शेख अब्दुल्ला को पसंद नहीं करते थे. लेकिन शेख अब्दुल्ला को पंडित नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त था. पंडित नेहरू की सलाह पर ही महाराजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. वर्ष 1948 में शेख अब्दुल्ला के प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद महाराजा हरि सिंह की शक्तियां तकरीबन खत्म हो गई थीं.

इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी मनमानी शुरू कर दी. वर्ष 1951 में जब जम्मू कश्मीर के विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई. तब शेख अब्दुल्ला ने जम्मू को 30 विधानसभा सीटें, कश्मीर को 43 विधानसभा सीटें और लद्दाख को 2 विधानसभा सीटें आवंटित कर दीं.

वर्ष 1995 तक जम्मू और कश्मीर में यही स्थिति रही. वर्ष 1993 में जम्मू और कश्मीर में परिसीमन के लिए एक आयोग बनाया गया था. 1995 में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया. पहले जम्मू कश्मीर की विधानसभा में कुल 75 सीटें थीं. लेकिन परिसीमन के बाद जम्मू कश्मीर की विधानसभा में 12 सीटें बढ़ा दी गईं. अब विधानसभा में कुल 87 सीटें थीं. इनमें से कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं. इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जम्मू और लद्दाख से हुए इस अन्याय को ख़त्म करने की कोशिश नहीं हुई.

यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में हमेशा नेशनल कॉन्फ्रेंस और PDP जैसी कश्मीर केंद्रित पार्टियों का वर्चस्व रहता है. ये पार्टियां, संविधान के अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 A को हटाने का विरोध करती हैं. यही वजह है कि कश्मीर से अलगाववादी मानसिकता खत्म नहीं हो रही है.

जम्मू कश्मीर की विधानसभा का राजनीतिक गणित इस तरह का है कि हर परिस्थिति में कश्मीर केंद्रित पार्टियों का ही वर्चस्व रहता है. अगर जम्मू और लद्दाख की 37 और 4 सीटों को जोड़ दिया जाए, तब भी सिर्फ 41 सीटें होती हैं. ये कश्मीर की 46 विधानसभा सीटों से 5 कम है. यही वजह है कि जम्मू कश्मीर की राजनीति में हमेशा मुख्यमंत्री कश्मीर से ही चुनकर आता है.

जम्मू कश्मीर में बहुमत की सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को 44 सीटों की ज़रूरत होती है. कश्मीर में मुसलमानों की आबादी करीब 98 प्रतिशत है. सांप्रदायिक राजनीति करने में माहिर जम्मू और कश्मीर के क्षेत्रीय दल बहुत आसानी से कश्मीर की 46 सीटों को जीत कर बहुमत के आंकड़े को हासिल कर लेते हैं.

बीते 30 वर्षों से जम्मू और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस या PDP के बग़ैर किसी भी दल की सरकार नहीं बन पायी. इन दोनों पार्टियों में कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. नेशनल कॉन्फ्रेंस पर अब्दुल्ला परिवार का राज है और PDP मुफ्ती परिवार की सियासी संपत्ति की तरह हैं. ये दोनों ही परिवार कश्मीर से आते हैं. आज से कुछ साल पहले जम्मू कश्मीर की राजनीतिक स्थिति ये थी कि वहां या तो मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बनते थे या फिर फारुख अब्दुल्ला और मौजूदा राजनीतिक स्थिति ये है कि जम्मू कश्मीर में या तो महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनेंगी या फिर उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनेंगे.

इन राजनीतिक परिस्थितियों में सबसे ज़्यादा अन्याय जम्मू और लद्दाख के साथ हो रहा है. कश्मीर केंद्रित पार्टियों की सरकार में जम्मू और लद्दाख के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा है. मोदी सरकार ने इस समस्या को जड़ से ख़त्म करने का फ़ैसला किया है. लेकिन ये इतना आसान नहीं है, क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस और PDP इसका विरोधी करेंगी. महबूबा मुफ्ती ने एक Tweet करके इसका विरोध किया है. उन्होंने लिखा है कि  भारत सरकार की परिसीमन की योजना के बारे में सुनकर वो परेशान हैं. ज़बरदस्ती परिसीमन सांप्रदायिक आधार पर राज्य के भावनात्मक बंटवारे की कोशिश है.

फारुक अब्दुल्ला ने भी हमेशा परिसीमन को टालने की कोशिश की है. नए सिरे से परिसीमन में सबसे बड़ी रूकावट उन्होंने ही पैदा की थी. वर्ष 2002 में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने परिसीमन को 2026 तक रोक दिया था. इसके लिए अब्दुल्ला सरकार ने Jammu and Kashmir Representation of the People Act 1957 और जम्मू कश्मीर के संविधान के Section 47(3) में बदलाव किया था.

Section 47(3) में हुए बदलाव के मुताबिक वर्ष 2026 के बाद जब तक जनसंख्या के सही आंकड़े सामने नहीं आते हैं तब तक विधानसभा की सीटों में बदलाव करना ज़रूरी नहीं है. वर्ष 2026 के बाद जनगणना के आंकड़े वर्ष 2031 में आएंगे. इसलिए अगर देखा जाए तो अब जम्मू कश्मीर में परिसीमन 2031 तक टल चुका है. फारुख अब्दुल्ला सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका दायर की गई थी. लेकिन 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था. यानी सरकार के सामने राजनीतिक चुनौती के साथ साथ कानूनी चुनौती भी है.

अगर देखा जाए तो परिसीमन की सबसे बड़ी रुकावट फारुख अब्दुल्ला की सरकार का फैसला है. उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने आज फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर अपने पिता के फैसले का बचाव किया है. उमर अब्दुल्ला ने लिखा है कि वर्ष 2001 में भारत के संविधान के आर्टिकल 82 और 170 में संशोधन किया गया था. जिसके मुताबिक लोकसभा और विधानसभा की सीटों पर परिसीमन को 2026 के बाद पहली जनगणना तक टाल दिया गया.

उमर अब्दुल्ला ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि इसी संविधान संधोशन के आधार पर जम्मू और कश्मीर में भी परिसीमन को 2026 के बाद तक टाल दिया गया. उमर अब्दुल्ला, भारतीय संविधान के मुताबिक फैसले लेने का दावा कर रहे हैं. लेकिन, असलियत ये है कि कश्मीर समस्या की एक बड़ी वजह अब्दुल्ला परिवार की राजनीति है. ये परिवार राज्य में अपनी मनमानी करता रहा और उस समय की केंद्र की सरकारों ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की. आज हमने इस पर एक रिपोर्ट बनाई है. ये रिपोर्ट कश्मीर समस्या के बारे में आपकी जानकारी को बढ़ाएगी.

Separatist leaders of Kashmir (neither Jammu nor Ladakh)

अलगाववाद और आतंकवाद के ख़िलाफ़ मोदी सरकार की नीति Zero Tolerance की है. इसीलिए एक तरफ़ तो सरकार ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आक्रामक रवैया अपनाया है और दूसरी तरफ National Investigation Agency भी लगातार अलगाववादी नेताओं पर शिकंजा कस रही है. Terror Funding Case में आरोपी अलगाववादी नेता.. आसिया आंद्राबी, शब्बीर शाह और मसरत आलम को आज दिल्ली की एक स्पेशल कोर्ट में पेश किया गया था. अदालत ने इन अलगाववादी नेताओं को 10 दिन के लिए NIA की हिरासत में भेज दिया है.

NIA ने 2018 में आतंकवादी हाफिज सईद, सैयद सलाउद्दीन और कई कश्मीरी अलगाववादियों पर फंड मुहैया कराने के मामले में FIR दर्ज की थी. जम्मू-कश्मीर को नक़्शे को देखा जाये तो यहां का 61 प्रतिशत भूभाग लद्दाख़ है. जहां आतंकवाद का कोई असर नहीं है. वहीं 22 प्रतिशत जम्मू में आतंकवाद ख़त्म हुए लंबा वक़्त बीत चुका है. लेकिन कश्मीर घाटी…जो राज्य का क़रीब 17 प्रतिशत हिस्सा है…वहीं पर अलगाववादी और आतंकवादी सक्रिय हैं. कश्मीर घाटी में 10 ज़िले हैं…जहां आतंकवादी घटनाएं होती हैं। इनमें से भी दक्षिण कश्मीर के 4 ज़िले शोपियां, पुलवामा, कुलगाम और अनंतनाग ही आतंकवाद के गढ़ माने जाते हैं.

Curtsy ‘DNA’ Sudhir Choudhry

विखे पाटिल ने हाथ छोड़ कमल थामा

कांग्रेस से इस्‍तीफा देने वाले अब्‍दुल सत्‍तार के दावों पर यकीन करें तो पार्टी की मुश्‍किलें महाराष्‍ट्र और भी बढ़ने वाली हैं. उनका दावा है कि कांग्रेस के 8-10 विधायक बीजेपी के संपर्क में हैं, जो कभी भी पार्टी छोड़ सकते हैं.

मुंबई:

लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार से हिचकोले खा रही महाराष्ट्र कांग्रेस को झटके पर झटके लग रहे हैं. महाराष्ट्र कांग्रेस के दिग्गज नेता और विधानसभा में नेता प्रति‍पक्ष राधाकृष्ण पाटिल ने इस्तीफा दे दिया है. उनके साथ ही पूर्व मंत्री अब्दुल सत्तार ने भी विधायक पद से इस्तीफा दे दिया है. अब्‍दुल सत्‍तार के दावों पर यकीन करें तो कांग्रेस की मुश्‍किलें यहां और भी बढ़ने वाली हैं. उनका दावा है कि कांग्रेस के 8-10 विधायक बीजेपी के संपर्क में हैं, जो कभी भी पार्टी छोड़ सकते हैं.

राधाकृष्ण पाटिल ने बेटे को अहमदनगर सीट से लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं मिलने के बाद ही पार्टी छोड़ने के बारे में संकेत दे दिए थे. उन्होंने 25 अप्रैल को ही विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद छोड़ दिया था. लोकसभा चुनाव प्रचार में भी राधाकृष्ण विखे पाटिल ने हिस्सा नहीं लिया. उनके बेटे सुजोय पाटिल पहले ही कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए हैं, क्योंकि उन्हें अहमदनगर से कांग्रेस का टिकट नहीं मिला था.

दरअसल अहमदनगर की सीट एनसीपी के कोटे में जा रही थी और एनसीपी किसी कीमत पर ये सीट छोड़ने को तैयार नहीं हुई. इससे  मायूस होकर सुजोय विखे पाटिल ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिलने के बाद बीजेपी ज्वाइन कर ली थी. बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में सुजोय को अहमदनगर से अपना उम्मीदवार बनाया और उन्हें जीत भी मिली. तभी से ये कयास लगाए जा रहे थे कि राधाकृष्ण विखे पाटिल कभी भी कांग्रेस का हाथ झटक सकते हैं. आखिरकार मंगलवार को राधाकृष्ण विखे पाटिल ने अपना इस्तीफा विधासनभा के स्पीकर को सौंप दिया.

हालांकि राधाकृष्ण विखे पाटील ने अपने अगले कदम के बारे में बताया नहीं है, लेकिन जिस तरह इस्तीफा देने के बाद वह मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिले उससे साफ है कि उनके इरादे क्या हैं. सूत्रों की मानें तो राधाकृष्ण विखे पाटिल ना सिर्फ बीजेपी ज्वाइन करेंगे बल्कि महाराष्ट्र मंत्रिमंडल के विस्तार में भी उन्हें जगह मिल सकती है.

इधर महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चव्हाण इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं. हालांकि उनके इस्तीफे पर कांग्रेस हाईकमान ने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है. महाराष्ट्र में कुछ महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होने हैं. कुछ ही महीने पहले दिग्गज नेताओं के छोड़ने से पार्टी की मुश्किलें और बढ़ने वाली है. इसका सीधा असर विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा.

आज का पांचांग

पंचांग 05 जून 2019

विक्रमी संवत्ः 2076, 

शक संवत्ः 1941, 

मासः ज्येष्ठ़, 

पक्षःशुक्ल पक्ष, 

तिथिः द्वितीया दोपहर 12.04 तक, 

वारः बुधवार, 

नक्षत्रः आद्र्रा रात्रि 09.54 तक है, 

योगः अतिगण्ड रात्रिः 2.14 तक, 

करणः कौलव, 

सूर्य राशिः वृष, 

द्र राशिः मिथुन, 

राहु कालः दोपहर 12.00 बजे से 1.30 बजे तक, 

सूर्योदयः 05.27, 

सूर्यास्तः 07.12 बजे।

नोटः आज रम्भा तृतीया व्रत है।

विशेषः आज उत्तर दिशा की यात्रा न करें। अति आवश्यक होने पर बुधवार को राई का दान, लाल सरसों का दान देकर यात्रा करें।