“हठी हम्मीर” आज बलिदान दिवस

सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार,
तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै ना दूजी बार ।।

अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है. सज्जन लोग बात को एक ही बार कहते हैं । केला एक ही बार फलता है. स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है अर्थात उसका विवाह एक ही बार होता है. ऐसे ही राव हमीर का हठ है. वह जो ठानते हैं, उस पर दोबारा विचार नहीं करते।

ये वो मेवाड़ी शासक है जिन्होंने अल्लाउद्दीन खिलजी को तीन बार हराया था ,और अपनी कैद में भी रखा था । इनके नाम के आगे आज भी हठी जोड़ा जाता है , आइये जानते है इस मेवाड़ी शासक के बारे में और उसके हठ, तथा ऐतिहासिक युद्धो के बारे में ।

राव हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर “रणतभँवर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहाण के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्रसिंह था। ये इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि॰सं॰ १३३९ (ई.स. १२८२) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है।हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहाण वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

राव हमीर का जन्म सात जुलाई, 1272 को चौहानवंशी राव जैत्रसिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वतमालाओं के मध्य बने रणथम्भौर दुर्ग में हुआ था। बालक हमीर इतना वीर था कि तलवार के एक ही वार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था. उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था। इस वीरता से प्रभावित होकर राजा जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में ही 16 दिसम्बर, 1282 को उनका राज्याभिषेक कर दिया। राव हमीर ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से चौहान वंश की रणथम्भौर तक सिमटी सीमाओं को कोटा, बूंदी, मालवा तथा ढूंढाढ तक विस्तृत किया। हमीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध लड़े, जिसमें से 16 में उन्हें सफलता मिली। 17वां युद्ध उनके विजय अभियान का अंग नहीं था।

मेवाड़ राज्य उसकी उत्तपत्ति से ही शौर्य और वीरता का प्रतीक रहा है। मेवाड़ की शौर्य धरा पर अनेक वीर हुए। इसी क्रम में मेवाड़ के राजा विक्रमसिंह के बाद उसका पुत्र रणसिंह(कर्ण सिंह) राजा हुआ। जिसके बाद दो शाखाएँ हुई एक रावल शाखा तथा दूसरी राणा शाखा । जिसमे से रावल शाखा वाले मेवाड़ के स्वामी बने और राणा शाखा वाले सिसोदे के जागीरदार रहे। राणा शाखा वाले सिसोदे ग्राम में रहने के कारण सिसोदिया कहलाये।

रावल शाखा में कर्णसिंह के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र क्षेमसिंह मेवाड़ के राजा हुआ। जिसके बाद इस वंश का रावल रतनसिंह तक मेवाड़ पर राज्य रहा। रावल वंश की समाप्ति अल्लाउद्दीन खिलजी के विस्. 1360 (ई.स. 1303) में रावल रतनसिंह सिंह से चित्तौड़ छीनने पर हुई। राणा शाखा के राहप के वंशज ओर सिसोदा के राणा हम्मीर ने चित्तौड़ के प्रथम शाके में रावल रतनसिंह के मारे जाने के कुछ वर्षों पश्चात चित्तौड़ अपना अधिकार जमाया और मेवाड़ के स्वामी हुआ। राणा हम्मीर ने मेवाड़ पर सिसोदिया की राणा शाखा का राज्य विस्. 1383 (ईस. 1326) के आसपास स्थापित कर महाराणा का पद धारण किया। इस प्रकार सिसोदे कि राणा शाखा में माहप ओर राहप से राणा अजयसिंह तक के सब वंशज सिसोदे के सामन्त रहे। चित्तौड़ का गया हुआ राज्य अजयसिंह के भतीजे (अरिसिंह का पुत्र) राणा हम्मीर ने छुड़ा लिया था और मेवाड़ पर सिसोदियों की राणा शाखा का राज्य स्थिर किया। तब से लेकर भारत के स्वतंत्रता के पश्चात मेवाड़ राज्य के भारतीय संघ में विलय होने तक मेवाड़ पर सोसोदियो की राणा शाखा का राज्य चला आता है।

हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं देखना चाहता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था।

अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुगलों ने अधिकार कर लिया है, यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुगल सैनिकों को परास्त कर दिया। मुगल सेना पराजित होकर भाग गई, चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिए। वि॰सं॰ १३५८ (ई.स. १३०१) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन विशाल मुगल सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया।

तत्पश्चात् मुगल सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हमीर देव के पास सूचना भिजवायी, कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापिस दिल्ली लौट जाएगी। लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। मुगल सेना का घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।

अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा की हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी। हम्मीर हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था। बहुत दिनों तक मुगल सेना का घेरा चलता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भीर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करने वाला) व कुछ सेना नायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की तरफ हो गए।

दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्येति युद्धादि सामग्री एवं रसद थी। अंत में राजपूतों की सेना वजयी रही।

बादशाह खिलजी को राणा ने हराने के बाद तीन माह तक जेल में बंद रखा । तीन माह पश्चात उससे अजमेर रणथम्भौर, नागौर शुआ और शिवपुर को मुक्त कराके उन्हें अपने लिए प्राप्त कर और एक सौ हाथी व पचास लाख रूपये लेकर जेल से छोड़ दिया।

राणा ने अपने जीवन काल में मारवाड़ जयपुर, बूंदी, ग्वालियर, चंदेरी  रायसीन, सीकरी, कालपी तथा आबू के राजाओं को भी अपने अधीन कर पुन: एक शक्तिशाली मेवाड़ की स्थापना की।

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