कर्ज में फंसे हैं बटाईदार और माफी पा रहे जमींदार

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां की जाती हैं

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां की जाती हैं, लेकिन भारत में अमूमन चार तरह के किसान होते हैं.एक बड़े जोत का किसान जिसके पास बारह-पंद्रह बीघा या इससे भी अधिक जमीन है. दूसरा मध्यम जोत का काश्तकार जिसके पास पांच-छह बीघा जमीन है. तीसरा लघु किसान जिसके पास तीन बीघा से भी कम जमीन है. चौथा भूमिहीन बटाईदार किसान जिसके पास अपनी कोई जमीन नहीं होती और वे दूसरों की जमीन पर बटाई करते हैं.

कर्ज माफी या कृषि संबंधी अन्य लाभकारी योजनाओं का ज्यादातर लाभ बड़े किसानों को ही मिलता है. जबकि किसानों के बीच एक बड़ा तबका भूमिहीन बटाईदार किसानों का भी है, जिसे कर्ज माफी से कभी कोई राहत नहीं मिली है.

कर्ज माफी बना चुनावी कामयाबी का जरिया

हालिया कुछ वर्षों में कृषि कर्ज माफी के वादे अधिक होने लगे हैं. सियासी पार्टियां चुनावी रैलियों में किसानों से कर्ज माफी का यकीन दिलाने के साथ-साथ कर्ज माफी की मियाद भी तय करने लगी हैं. पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने कर्ज माफी की घोषणा की थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने उसे पूरा करने का दावा भी किया.

यह दीगर बात है कि इसे लेकर अब भी कई सवाल मौजूद हैं. इस परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नव नियुक्त मुख्यमंत्रियों क्रमशः कमलनाथ और भूपेश बघेल ने अपने शपथ-ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही कृषि कर्ज माफी का ऐलान किया. दो दिन बाद ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कर्ज माफी की घोषणा कर दी.

अगले साल अप्रैल-मई में संसदीय चुनाव होने हैं. मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता गंवाने के बाद बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व चिंतित है. 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा. लिहाजा पार्टी को यकीन है कि बरास्ते कर्ज माफी वह चुनावी कामयाबी हासिल कर सकती है. 2008 में कांग्रेस यह नुस्खा बखूबी आजमा चुकी है. जब यूपीए (प्रथम) सरकार अपने आखिरी साल में ‘कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना’ (ए.डी.डब्ल्यू.डी.आर.एस) के तहत 52,259.86 करोड़ रुपये की कर्ज माफी की थी.

देश भर में 3.73 करोड़ किसानों को इसका फायदा मिला. वित्तीय अनियमितताओं की वजह से यह योजना भी सवालों के घेरे में रही लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इसका जबरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला और डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में पुनः यूपीए की सरकार बनी. पिछले कई उपचुनाव और उत्तर भारत के तीन अहम राज्यों की सत्ता खोने के बाद संभवतः भाजपा नीत केंद्र सरकार भी कर्ज़ माफ़ी के इस प्रचलित विकल्प पर विचार कर सकती है.

वैसे भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत अर्थ-वित्त मामलों के कई जानकारों का मानना है कि कर्ज माफी कृषि क्षेत्र एवं किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है. वे आगाह कर चुके हैं कि कृषि कर्ज माफी के बढ़ते चलन से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता है. सियासी पार्टियों को भी कमोबेश इसका इल्म है, लेकिन सत्ता जाने का खौफ शायद अर्थव्यवस्था के नुकसान पर भारी है.दस साल पहले यूपीए की सरकार में हुए कर्ज माफी पर जानकारों की अलग-अलग राय हो सकती है. लेकिन उस फैसले से वास्तविक किसानों को कोई फायदा नहीं मिला. इसके बरअक्स देश की अर्थव्यवस्था पर एक अतिरिक्त और अनावश्यक दबाव झेलना पड़ा. देशव्यापी कृषि कर्ज माफी का सकारात्मक असर तो दिखना चाहिए.

बावजूद इसके बीते दस वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में तो कोई कमी नहीं आई. लेकिन किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में इजाफा जरूर हुआ. साल 2008 में जो कृषि कर्जे माफ हुए उससे लाभान्वितों होने में एक बड़ी संख्या उन भू-स्वामियों की थी जिन्हें किसान नहीं कहा जा सकता. सरल शब्दों में कहें तो वे ऐसे भू-स्वामी थे जो अपनी जमीनें बटाई पर देकर परिवार सहित शहरों में रहते हैं.

कर्ज माफी का वह साल ऐसे भू-स्वामियों के लिए एक बड़ा तोहफा साबित हुआ. जिस पर उनके अधिकारों का कोई मतलब नहीं था. हममें से ज्यादातर पत्रकारों-लेखकों का ताल्लुक किसी न किसी गांव-कस्बों से रहा है. शायद आपने भी देखा और सुना होगा कि जिन भू-स्वामियों ने बैंकों से कृषि कर्ज लेकर उससे वाहन, भवन आदि का सुख प्राप्त किया. वैसे भू-स्वामियों के कृषि कर्ज जब माफ हुए तो, उन लोगों को पछतावा हुआ जिन्होंने कृषि कर्ज नहीं लिए थे. वहीं दूसरी तरफ साहूकारों के कर्ज के बोझ से दबे लाखों भूमिहीन बटाईदार किसानों को सरकारों द्वारा कर्ज माफी का एक पैसा भी नहीं मिलता.

यह एक भ्रामक तथ्य है कि किसान तो आखिर किसान हैं क्या भू-स्वामी, क्या बटाईदार! भारत में वास्तविक किसानों यानी बटाईदारों की संख्या कितनी है क्या ऐसा कोई आंकड़ा केंद्र व राज्य सरकारों के पास है? सरकारें इससे किनारा नहीं कर सकतीं क्योंकि आजादी के तुरंत बाद ही देश में किसानों के कई मुद्दे मसलन-जमींदारी प्रथा का विरोध, भूमिहीनों को भू-अधिकार और लगान निर्धारण, नहर सिंचाई दर जैसे सवालों पर कई आंदोलन हुए. बिहार जैसे राज्य में तो बटाईदारी कानून बनाने की भी मांग उठी.

यह अलग बात है कि इसे अमल में लाना तो दूर कोई भी दल इस पर बहस करने की जहमत नहीं उठाना चाहता. वह उस राज्य में जहां पिछले तीन दशकों से समाजवादी पृष्ठभमि की सरकारें शासन में हैं. सिर्फ भू-स्वामी होने मात्र से किसी को किसान मान लेना सही नहीं है. ऐसे में उन लाखों भूमिहीन किसानों का क्या, जो दूसरों की खेतों में बटाईदारी करते हैं.

यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि देश में किसानों से जुड़ी नीतियां बनाने वाले महकमों (कृषि मंत्रालय से लेकर नीति आयोग तक) को इस बात की ख़बर ही नहीं है कि मुल्क के करोड़ों किसानों में बटाईदार किसानों की संख्या कितनी है? और वैसे भू-स्वामी कितने हैं जो स्वयं खेती नहीं करते. अगर आजादी के सात दशक बाद भी देश में बटाईदार किसानों को चिन्हित नहीं किया गया है तो यह सरकारों द्वारा किया गया एक अपराध है.

बटाईदार किसानों के परिजनों नहीं मिलता मुआवजा

किसानों की त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती! दरअसल, किसानों के बीच फर्क न कर पाने से वास्तविक किसानों को कई और खामियाजे भुगतने पड़ते हैं. सरकारी अभिलेख में बटाईदारों का उल्लेख नहीं होने एवं भू-स्वामित्व संबंधी दस्तावेज के अभाव में उन्हें सूचीबद्ध किसान नहीं माना जाता. किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में मौत और मुआवजे का यही विचित्र दृश्य देखने को मिलता है. आत्महत्या करने वाला अगर कोई बटाईदार किसान है तो, शोक-संतप्त उसके परिजनों को सरकारी मुआवजा और मदद नहीं मिलती. वजह मृतक किसान के परिवार में भू-स्वामित्व के दस्तावेज न होना.

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1990 के बाद देश भर में फसलों की नाकामी व कृषि घाटे के कारण तकरीबन 3,96,000 किसानों ने आत्महत्या की. गैर सरकारी आंकड़े इससे भी अधिक संख्या बताते हैं. इस आलेख के लेखक कुछ साल पहले मराठवाड़ा और तेलंगाना के गांवों में आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिजनों से मिले थे. पीड़ित परिवारों ने बताया कि बटाईदार होने की वजह से उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला. संबंधित जिला कलेक्टरों से जब इसकी सच्चाई पूछी तो, उन्होंने कहा कि कृषि व राजस्व विभाग के मुताबिक आत्महत्या करने वाले उन्हीं किसानों के परिजनों को सरकार द्वारा घोषित मुआवजे की रकम मिलती है जिनके पास भू-स्वामित्व से जुड़े प्रमाण-पत्र व दस्तावेज होंगे.

बटाईदारों को नहीं मिलता ‘किसान क्रेडिट कार्ड’

हर साल रबी और खरीफ फसल के सीजन में नई अनाज खरीद नीति की लेकर भी जिज्ञासाएं बनी रहती हैं क्योंकि इसके तहत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिलता है. लेकिन बटाईदार किसानों को इसका भी लाभ नहीं मिलता. कारण भू-स्वामित्व के प्रमाण-पत्र संबंधी वही पुराना मामला. नतीजतन बटाईदार किसान औने-पौने दाम पर साहूकारों को अपनी उपज बेच देते हैं. या फिर अपनी उपज को भू-स्वामी की उपज बताकर सरकारी अनाज खरीद केंद्रों पर बेचते हैं. किसानों के बीच ‘केसीसी’ यानी ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ काफी लोकप्रिय है.

इसकी शुरुआत वर्ष 1998 में हुई थी. वैसे तो इसके कई लाभ हैं लेकिन इसका फायदा किसे मिल रहा है, यह एक बड़ा सवाल है. दरअसल जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिल पाता. अपनी जमीनें बटाई देकर शहरों में रहने वाले भू-स्वामियों को जब किसान क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है, तब वे ब्लॉक-सबडिवीजन आते हैं. राजस्व कर्मचारी से ‘मालगुजारी’ की रसीद और ‘लैंड पजेशन सर्टिफिकेट’ (एलपीसी) प्राप्त कर बैंक से कृषि कर्ज उठा लेते हैं.

जबकि निर्धारित भू-संबंधी प्रमाण-पत्र न होने से भूमिहीन बटाईदार किसानों को यह कर्ज नहीं मिल पाता. ओलावृष्टि, अतिवृष्टि-अनावृष्टि और बेमौसम बारिश होने पर खेतों में खड़ी फसलें जब तबाह हो जाती हैं तो राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को सरकारी मदद मिलती है. लेकिन इसका भी फायदा उन्हीं किसानों को मिलता है जिनकी अपनी जमीनें हैं. यहां भी बटाईदार किसानों को निराश होना पड़ता है. वहीं खुद से खेती नहीं करने वाले ढेरों भू-स्वामी इसका भी लाभ उठा लेते हैं. सरकार और उसकी व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्म की स्थिति और क्या हो सकती है?

क्रॉप पैटर्न में बदलाव से होगा किसानों का भला

किसानों की आत्महत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है. भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों इस बाबत ईमानदार प्रयास का अभाव दिखता है. किसानों को उपज का वाजिब दाम नहीं मिलना और फसलों का खराब होना इसकी प्रमुख वजह हो सकती है. लेकिन इसके कुछ कारण और भी हैं जिसकी चर्चाएं नहीं होती. ‘किसान आत्महत्या’ प्रभावित राज्यों की अध्ययन यात्राओं से कुछ अहम बातें समझ में आईं. मसलन नब्बे के दशक में ‘कैश क्रॉप’ और ‘हाइब्रिड सीड्स’ ने यहां के खेतों में अपनी जड़ें जमा लीं.

नतीजतन मराठवाड़ा, विदर्भ और तेलंगाना के किसान अपने परंपरागत खेती से दूर हो गए. बीजों का भंडारण और उसका पुनर्पयोग ‘संकर बीजों’ की मेहरबानी से समाप्त हो गया. बाकी कसर उन ‘कीटनाशकों’ ने पूरी कर दीं जिनके छिड़काव फसलों के लिए लाभदायक कीट-पतंगे भी नष्ट हो गए. हालत यह होते चली गए कि किसानों के महीने भर के राशन के खर्च के बराबर या उससे ज्यादा भाव में हाइब्रिड बीज और कीटनाशक मिलने लगे हैं. इन राज्यों के किसान पहले ऐसी फसलें उगाते थे जिससे पशुओं को भी चारा मिल जाता था.

लेकिन कपास की खेती शुरू होने के बाद दुधारू पशु गायब होने लगे. नकदी फसल के मोह में पशुपालन जो कृषि का ही रूप है, उससे किसान वंचित हो गए. यानी गाय-भैंस के दूध से जो आमदनी किसानों की होती वह बंद हो गई. किसानों के कर्जें माफ हों इसके लिए देश भर से किसान ‘दिल्ली कूच’ करते हैं लेकिन किसानों से हमदर्दी जताने वाले नेताओं और एनजीओ द्वारा कर्ज माफी के अलावा अन्य सार्थक विकल्पों जैसे, क्रॉप पैटर्न में बदलाव और कृषि और पशुपालन के संबंधों को मजबूत बनाने पर बल नहीं दिया जाता.

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