तालिबानी दौर में प्रवेश कर चुकी है नक्सली विचारधारा, अपने गढ़ में सड़कों को दुश्मन मानते हैं नक्सली
दूरदर्शन कैमरापर्सन अच्युतानंद साहू की हत्या ने यहां पत्रकारों के लिए मौत का डर बहुत करीब ला दिया है- खासकर उन लोगों के लिए जो छत्तीसगढ़ राज्य के बाहर से असाइनमेंट पर माओवादी युद्धक्षेत्र में जाते हैं
छत्तीसगढ़ में एक पत्रकार की हत्या नक्सलवाद और भारत सरकार के बीच चल रही लड़ाई में नया मोड़ है. कश्मीरी आतंकवादियों और उत्तर-पूर्व के विद्रोहियों के उलट छत्तीसगढ़ के माओवादियों ने कभी पत्रकारों को सीधे निशाना नहीं बनाया है- अतीत में दो उदाहरणों को छोड़कर. लेकिन मंगलवार सुबह दूरदर्शन कैमरापर्सन अच्युतानंद साहू की हत्या ने यहां पत्रकारों के लिए मौत का डर बहुत करीब ला दिया है- खासकर उन लोगों के लिए जो छत्तीसगढ़ राज्य के बाहर से असाइनमेंट पर माओवादी युद्धक्षेत्र में जाते हैं. साहू के अलावा, दो पुलिसकर्मी- सब इंस्पेक्टर रूद्र प्रताप और असिस्टेंट कांस्टेबल मंगलू की मौत हो गई.
कभी वह वामपंथी चरमपंथियों (एलडब्ल्यूई) की विचारधारा ही थी, जो उन्हें दूसरे आतंकवादी गुटों से अलग करती थी, क्योंकि मीडिया में उनके खिलाफ आलोचनाओं के बावजूद अतीत में कभी भी पत्रकारों पर हमला नहीं किया गया था. नक्सल आज भी खुद को बौद्धिक रूप से सर्वश्रेष्ठ और अपनी ‘क्रांतिकारी’ विचारधारा के लिए कठोरता से प्रतिबद्ध मानते हैं.
लेकिन ऐसा लगता है कि विचारधारा का अंत हो गया है. संघर्ष क्षेत्र बस्तर पर करीबी नजर डालने पर- यह हमें दो स्थानीय पत्रकारों- नेमिचंद जैन और साई रेड्डी की याद दिलाता है, जिन्हें 2013 में माओवादियों ने बेरहमी से मार डाला था. स्थानीय हिंदी दैनिक समाचार पत्रों के लिए काम करने वाले संवाददाता जैन की फरवरी में सुकमा जिले के तोंगपाल में, जबकि हिंदी पत्रकार रेड्डी की दिसंबर में बीजापुर जिले के बसगुडा में हत्या की गई थी.
माओवादियों ने दावा किया था कि पत्रकारों की इसलिए हत्या की गई क्योंकि क्योंकि वे ‘पुलिस के खबरी’ थे- यह एक ऐसी सफाई है जो हमेशा एलडब्ल्यूई कैडर द्वारा दी जाती है, जब वो हमला कर किसी निर्दोष नागरिक या आदिवासी ग्रामीण की हत्या करते हैं या जन अदालत के नाम से मशहूर अपनी ‘कानून की अदालत’ में मुकदमा चलाते हैं.
साई रेड्डी के मामले में, सीपीआई (माओवादी) की दक्षिण क्षेत्रीय समिति ने दिसंबर 2013 में एक बयान जारी किया था और 51 वर्षीय वरिष्ठ पत्रकार की हत्या को न्यायसंगत ठहराते हुए आरोप लगाया था कि वह दक्षिण बस्तर से सीपीआई (माओवादी) का खात्मा करने के लिए पुलिस के साथ मिलकर काम कर रहे थे. 27 सितंबर 2017 को बीजापुर प्रेस क्लब में तीस सेकेंड की एक ऑडियो क्लिप जारी की गई थी, जिसमें एक कथित बातचीत में एक पुरुष आवाज जंगल में माओवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग करने जाने वाले पत्रकारों को मार डालने की धमकी दे रही है. हालांकि, इस ऑडियो क्लिप की प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं की जा सकी.
दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक अभिषेक पल्लव और दूरदर्शन के कैमरा असिस्टेंट मोर मुकुट शर्मा के अनुसार जब अच्युतानंद साहू अपने दल के साथ निलवाया जंगल में सड़क से आगे बढ़ रहे थे और अपने असाइनमेंट के सिलसिले में शूटिंग कर रहे थे, तो माओवादियों ने उन पर गोलीबारी शुरू कर दी.
माओवादियों और तालिबानियों में कोई फर्क नहीं है
एलडब्ल्यूई पर काम कर रहे विशेषज्ञ अब माओवादियों को तालिबान आतंकवादियों जैसा ही मानते हैं. आतंकवाद विरोधी विश्लेषक अनिल कांबोज ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, “माओवादियों ने अपनी विचारधारा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. वे तालिबान आतंकवादियों से अलग नहीं हैं और उन्हीं के रास्ते पर चल रहे हैं. असल में माओवादी विकास विरोधी हैं. वे चाहते हैं कि स्थानीय लोग शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, विकास और आधुनिक सुविधाओं से वंचित रहें जिससे कि वे उन पर शासन कर सकें.” वह कहते हैं, “अब माओवादी पत्रकारों को निशाना बना रहे हैं क्योंकि वे उनके खिलाफ और उनके असली मकसद के बारे में लिख रहे हैं. नक्सलियों पर सवाल उठाने वाला कोई भी शख्स उनका दुश्मन है.
सरेंडर कर चुके 28 वर्षीय माओवादी ने फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक खास बातचीत में कहा था, ‘मुझे लगता है कि लोग धीरे-धीरे क्रांति की माओवादी विचारधारा के पीछे के झूठ को समझने लगे हैं. यह सिर्फ निर्दोषों का विनाश और हत्या है. हमारी आदिवासी आबादी नक्सली आंदोलन से कुछ हासिल नहीं कर रही है क्योंकि हम उनके द्वारा उनके छिपे मकसद के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं. अब माओवादी नेता लुटेरे बन चुके हैं.‘
हताशा में उठाया कदम
विशेषज्ञों के अलावा, छत्तीसगढ़ सरकार भी गहराई से महसूस करती है कि माओवादियों ने दूरदर्शन टीम पर हताशा में हमला किया है, क्योंकि वे दंतेवाड़ा जिले के पलनार गांव से 19 किमी दूर निलवाया वन क्षेत्र में सड़क निर्माण स्थल को सुरक्षा दे रहे थे. अशांत क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण की रक्षा सुरक्षा बलों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है.
छत्तीसगढ़ पुलिस के विशेष महानिदेशक (नक्सल विरोधी अभियान) डीएम अवस्थी कहते हैं, ‘सरकार के विकास एजेंडे को ध्यान में रखते हुए, पिछले तीन वर्षों में बस्तर में तेजी से सड़कों का निर्माण हुआ है. सुरक्षा बलों के दबाव के साथ इस फैक्टर ने माओवादियों को रक्षात्मक स्थिति में धकेल दिया है. आज का हमला हताशा की कार्रवाई है क्योंकि माओवादी सामली से निलवाया तक सड़क के निर्माण का विरोध कर रहे हैं. हमें घटनास्थल से एक पोस्टर मिला है कि जिसमें चेतावनी दी गई है कि उन लोगों को मौत की सजा दी जाती है, जो जनविरोधी काम करते हैं. उन्होंने मौके पर घेराबंदी की और पत्रकार को गोली मार दी.’
दंतेवाड़ा से जगरगुंडा (सुकमा में) की सड़क का विस्तार मौत का फंदा साबित हुआ है. यहां 2017 में भी माओवादियों ने भेज्जी और बुरकापाल में सड़क निर्माण की सुरक्षा में तैनात सुरक्षा बलों पर हमला किया गया था. जाहिर है कि पुलिस और सुरक्षा बलों के बाद, नक्सली गढ़ों में बनाई गई सड़कें माओवादियों के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में उभरी हैं. छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में एलडब्ल्यूई कैडर ने सड़क निर्माण की रक्षा के लिए तैनात सीआरपीएफ जवानों को मार डाला है या आईईडी धमाकों से सड़कों को बर्बाद कर दिया है.
एलडब्लूई सुरक्षा बलों, उनके वाहन, सड़क निर्माण में लगे कर्मचारियों को निशाना बनाने और बस्तर डिवीजन में अशांत क्षेत्रों में निर्मित सड़कों को नुकसान पहुंचाने के लिए आईईडी का इस्तेमाल कर रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में, सीआरपीएफ कर्मियों के हताहत होने की अधिकांश घटनाएं सड़क निर्माण सुरक्षा के दौरान हुई हैं.
इंजेरम-भेज्जी रोड, डोर्नपाल-जागरगुंडा रोड, बीजापुर-बसगुडा रोड इत्यादि जैसी कुछ सड़कों को ‘खूनी सड़क’ कहा जाता है क्योंकि इन सड़कों के निर्माण के दौरान बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों और मजदूरों की हत्या हुई थी. सुकमा जिले में डोर्नपाल-जागरगुंडा रोड पर सबसे अधिक मौतें हुई हैं.
‘केंद्रीय सुरक्षा बलों और पुलिस के कई जवान इंजेरम-भेज्जी रोड के 20 किलोमीटर के विस्तार में शहीद हो चुके हैं. छत्तीसगढ़ पुलिस में बस्तर रेंज के महानिरीक्षक विवेकानंद कहते हैं, “सुकमा से कोंटा तक 76 किलोमीटर लंबे सीमेंट-कंक्रीट रोड का निर्माण एक दशक से अधिक समय तक लटका रहा है, जो अब पूरा हो रहा है.’
यह चुनाव ना होने देने की कोशिश भी हो सकती है
डीएम अवस्थी का कहना है, ‘आज के हमले का छत्तीसगढ़ में आगामी विधानसभा चुनाव के साथ कुछ लेना-देना नहीं है. हमले का मकसद चुनाव रोकना नहीं था, बल्कि सड़क निर्माण का विरोध करना था.’ लेकिन, बस्तर में स्थानीय लोग पुलिस के दावे को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. एक पखवाड़ा पहले ही माओवादियों ने बस्तर में मतदान का बहिष्कार करने की चेतावनी जारी की थी. 27 अक्टूबर को, माओवादियों ने बीजापुर में सीआरपीएफ के माइन प्रोटेक्शन वाहन (एमपीवी) को धमाके से उड़ा दिया था, जिसमें चार सुरक्षाकर्मी मारे गए.
बस्तर में काम करने वाले एक पत्रकार नाम न छापने की शर्त के साथ कहते हैं, ‘सड़क निर्माण हमेशा एक गंभीर मुद्दा रहा है क्योंकि माओवादी पुरजोर तरीके से विकास का विरोध करते हैं और नहीं चाहते कि दूरदराज के गांवों को जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण हो. इसके अलावा, माओवादी छत्तीसगढ़ में चुनाव में गड़बड़ी करना चाहते हैं. उन्होंने पहले से ही चेतावनियां जारी कर दी हैं और ग्रामीणों से 12 नवंबर के मतदान का बहिष्कार करने या नतीजे भुगतने के लिए कहा है. ऐसा पहले भी हुआ है.’
यहां तक कि 2013 में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले इंटेसिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने चेतावनी दी थी कि छत्तीसगढ़ के माओवादियों ने एलटीटीई से मानव बम बनाने के लिए प्रशिक्षण लिया है और इसका इस्तेमाल चुनाव रैलियों के दौरान राजनीतिक नेताओं को निशाना बनाने के लिए किया जा सकता है.
अतीत में बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ अभियान का नेतृत्व करने वाले अनिल कांबोज कहते हैं, ‘चुनावों से पहले, माओवादियों ने इस तरह आईईडी विस्फोटों के माध्यम से आतंक पैदा करने और सुरक्षा बलों पर हमला कर मीडिया का ध्यान खींचने व अपनी ताकत दिखाने के लिए हमला किया है.’
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