चुनावों से पाहिले सीटों के बटवारे को ले कर दबाव बना रही हैं मायावती


अखिलेश यादव की बेसब्री कांग्रेस को लेकर नहीं बल्कि अपनी बुआ मायावती को लेकर है जिन्हें साथ लेकर वो ‘कैराना’ और ‘नूरपुर’ को 2019 में दोहराना चाहते हैं. लेकिन, उनकी यही बेसब्री लगता है उनपर भारी पड़ रही है


बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने 11 सितंबर को पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को लेकर बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस को भी निशाने पर लिया था. यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों के बहाने मायावती का कांग्रेस पर हमले के सियासी मायने निकाले जा रहे थे. कहा गया कि मायावती लोकसभा चुनाव और पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन में अपनी हिस्सेदारी को लेकर दबाव बनाने की तैयारी कर रही हैं.

अब पांच दिन बाद ही मायावती ने एक बार फिर हमला बोला है. लेकिन, इस बार उनके निशाने पर महागठबंधन के सभी संभावित सहयोगी हैं. इस बयान को भी दबाव की कोशिश माना जा रहा है.

मायावती की दबाव बनाने की कोशिश !

बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कहा है ‘कुछ लोग राजनीतिक लाभ लेने के लिए अपना नाम मुझसे जोड़ते हैं. मुझे बुआ कहते हैं.’ भीम आर्मी के संस्थापक और सहारनपुर जातीय हिंसा मामले में आरोपी चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ ने भी जेल से बाहर आने के बाद मायावती को बुआ कहा था. मायावती कहती हैं ‘इन लोगों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है. ये सब बीजेपी का गेम प्लान है.’

मायावती ने ‘बुआ-बबुआ’ के संबंधों को सिरे से खारिज कर दिया है लेकिन, उनके बयान का सियासी मतलब इससे कहीं बड़ा माना जा रहा है. क्योंकि चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ से पहले तो यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उन्हें बुआ कहते रहे हैं.

कई मौकों पर ‘बुआ-बबुआ’ के बीच लड़ाई होती रही है. लेकिन, अब दोनों के मिलकर चुनाव लड़ने को लेकर तैयारी की बात कही जा रही है. ऐसे वक्त में ‘बुआ-बबुआ’ के रिश्ते को खारिज करने के मायावती के बयान ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है.

चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ से क्यों दूर रहना चाहती हैं मायावती?

चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ के साथ मायावती के रिश्ते की बात करें तो उन्हें लगता है कि ‘रावण’ के जेल से बाहर निकलने से उनके वोट बैंक पर असर पड़ेगा. सहारनपुर समेत पश्चिमी यूपी में दलित तबके में भीम आर्मी का असर धीरे-धीरे बढ़ रहा है. चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ अगर एक अलग ताकत के तौर पर अपने-आप को चुनावी राजनीति के केंद्र में लाते हैं या फिर चुनाव मैदान में उतरते हैं तो पूरे इलाके की दलित राजनीति पूरी तरह बदल जाएगी.

‘रावण’ के अलग ताकत के तौर पर चुनाव में आने के बाद इसका सीधा असर मायावती पर पड़ेगा. लेकिन, मायावती नहीं चाहती हैं कि कोई दूसरी ताकत दलित सियासत में उभर कर सामने आए. अपने बुरे दौर में भी मायावती को दलित समाज के एक बड़े तबके का समर्थन मिला हुआ है. ऐसे में किसी नए युवा दलित चेहरे को अगर दलित राजनीति में कोई स्पेस मिल जाता है तो शायद मायावती का वो एकाधिकार खत्म हो जाएगा.

यही वजह है कि बुआ का रिश्ता जोड़ने के बावजूद मायावती ने चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ से दूरी बनाने का फैसला किया है. मायावती नहीं चाहती हैं कि उनके साथ मिलकर या अलग रहकर भी भीम आर्मी इतनी ताकतवर हो जाए जो आगे चलकर बीएसपी को ही चुनौती देने लगे.

मायावती के रुख से अखिलेश की बढ़ी मुश्किलें !

लेकिन, मायावती को सबसे पहले बुआ कहने वाले बबुआ यानी अखिलेश यादव के लिए इस रिश्ते का खारिज होना ज्यादा परेशान करने वाला है. क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद से ही अखिलेश यादव केंद्र की बीजेपी सरकार को हटाने के लिए हर कुर्बानी देने की बात कह रहे हैं. यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव की तरफ से मायावती के साथ गठबंधन करने की मंशा और उसके लिए कुछ कदम पीछे हटने का संकेत पहले ही दिया जा चुका है.

यह अलग बात है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर राहुल के साथ गलबहियां करना अखिलेश यादव को भारी पड़ा था. अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ गठबंधन की गलती को दोहराने के मूड में कतई नहीं दिख रहे. अगर कांग्रेस गठबंधन में शामिल होती भी है तो उसे बेहद कम सीटों पर ही संतोष करना होगा. हो सकता है कि उसे यूपी की 80 सीटों में से दहाई का आंकड़ा भी सीट बंटवारे में नहीं मिले.

ऐसे में अखिलेश यादव की बेसब्री कांग्रेस को लेकर नहीं बल्कि अपनी बुआ  मायावती को लेकर है जिन्हें साथ लेकर वो ‘कैराना’ और ‘नूरपुर’ को 2019 में दोहराना चाहते हैं. लेकिन, उनकी यही बेसब्री लगता है उनपर भारी पड़ रही है.

अखिलेश की अपरिपक्वता पड़ सकती है भारी

वक्त से पहले उनकी तरफ से कदम पीछे खींचने का संकेत उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता का संकेत दे रही है. बीजेपी को हराने के लिए लचीला रुख अपनाने के नाम पर अखिलेश यादव कुछ ज्यादा ही झुक गए हैं. उनके इसी लचीलेपन का फायदा मायावती भी उठाना चाह रही हैं. मायावती की तरफ से गठबंधन को लेकर अभी भी अपने पत्ते नहीं खोले जा रहे हैं.

मायावती ने एक बार फिर से कहा है कि उन्हें अगर सम्मानजनक सीटें नहीं मिलती हैं तो फिर गठबंधन नहीं होगा. मायावती की कोशिश मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस पर दबाव बनाने की है. उनकी तरफ से सम्मानजनक समझौते की बात करना यूपी में लोकसभा चुनाव के वक्त सीटों के बंटवारे से पहले इन तीन राज्यों में भी सीट बंटवारे को लेकर है, जहां कांग्रेस के खाते से बीएसपी कुछ सीटें झटकना चाहती हैं.

मायावती सियासी तौर पर कितनी परिपक्व हैं उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपी में पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी का खाता भी नहीं खुला था. विधानसभा चुनाव में एसपी से भी काफी कम सीटें मिली और उनकी पार्टी महज 19 सीटों पर सिमट गई थी. फिर भी, ऐन वक्त तक सौदेबाजी करने और दबाव बनाकर रखने की उनकी रणनीति अब अखिलेश को बैकफुट पर ला सकती है.

लगता है अखिलेश यादव भी अपनी गलतियों से नहीं सीख रहे हैं. अखिलेश ने विधानसभा चुनाव 2017 में जनाधार विहीन कांग्रेस के साथ समझौता कर अपने खाते की जो सीटें कांग्रेस को दीं, उससे उनकी ही पार्टी का नुकसान हुआ. अब मायावती के आगे सौदेबाजी करने के बजाए पहले से ही घुटने टेकने की उनकी कोशिश एक बार फिर उनकी पार्टी कैडर्स पर नकारात्मक असर ही डालेगी.

मुलायम सिंह यादव की विरासत को आगे बढ़ाने और उस पर अपना हक जताने वाले अखिलेश यादव भले ही परिवार के भीतर उठापटक में बाजी मार गए हों, लेकिन, अपने पिता से शायद वो सियासी दांव अब तक नहीं सीख पाए हैं, जिसमें तुरुप का पत्ता आखिरी वक्त तक संभाल कर रखा जाता है. वक्त से पहले मुठ्ठी खोलना अखिलेश की उस बेसब्री को दिखा रहा है जो उन्हें बैकफुट पर धकेल सकती है

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