Sunday, December 22


विवाहिता अमृता को जरा भी झिझक नहीं होती है अपने इश्क का इजहार करने में. वो साहिर के नजरिए से भी इस दास्तान को बयान करती हैं


पुरनूर, कोरल:

प्यार करना, उसका इजहार करना और फिर सुनने वालों से उसके लिए इज्जत पाना. जाहिर सी बात है कि ऐसे हादसे, खूबसूरत हादसे कहलाते हैं और शोहरत की पतंग बनकर मिसाल की डोर से बांध जाते हैं. आवागमन के इस मंच पर कुछ लोग प्रेम की मूरत बनकर आते हैं और हीर, लैला, मीरा या अमृता कहलाते हैं. ये प्रेम दीवाने अपने मन को दर्पण बनाते हैं और दुनिया के तमाम भले-बुरे कर्मों को देखते-दिखाते हैं.

आइए, अमृता प्रीतम के जन्मदिन पर बात शुरू करने के लिए उनकी एक याद को केंद्र में रखकर उस शख्सियत को समझने की कोशिश करते हैं जो कीचड़ में कमल की तरह हैं. वो कमल जिसे ‘विश्व का गर्भ’ कहा जाता है क्योंकि यह मन की पवित्रता, इंसानी स्वभाव और आध्यात्मिक रोशनी का प्रतीक है.

दोनों लंबी खामोशी में डूबे थे

‘अमृता-इमरोज़–ए लव स्टोरी’ इसकी लेखिका हैं उमा त्रिलोक, जो अमृता और इमरोज़ की दोस्त भी हैं. उमा लिखती हैं कि अमृता ने गुफ्तुगू के दौरान बताया कि एक दिन अचानक साहिर लुधियानवी ने अमृता से कहा ‘ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम दोनों जाकर चीन में रहने लगें?’ मुझे साहिर की इस अचानक राय ने उलझा दिया. मैंने भी अचानक सवाल पर सवाल कर दिया, ‘हम वहां चीन जाकर क्या करेंगे?’ ‘हम वहां शायरी करेंगे.’ साहिर ने जवाब दिया. हैरत में डूबी अमृता के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘शायरी तो हम यहां भी कर सकते हैं, चीन जाए बगैर.’ ‘हां बेशक हम कर सकते हैं लेकिन अगर हम चीन चले जाएं तो यहां लौटकर नहीं आयेंगे.’ साहिर ने जवाब दिया.

अमृता बता रही थीं कि इस तरह एक दोस्त ने, एक दोस्त के आगे जीवन-साथी बन जाने की पेशकश की, दोस्त ने पेशकश का सार समझा, उसे ठुकराया नहीं, बल्कि ये कह दिया कि ‘शायरी तो हम यहां भी कर सकते हैं, चीन जाए बगैर’.

साहिर की अधजली सिगरेटों ने पकड़ाई लत

इसके बाद आदतों ने पूरे दृश्य को संभाल लिया. लम्बी खामोशी में दोनों डूब गए. साहिर ने कुछ और सिगरेटें फूंकीं और चले गए. अमृता ने आदतन उन अधजली सिगरेटों को उठाया और अलमारी में उसी जगह रख दिया जहां ऐसी कई और सिगरेटें रखी थीं.

अपनी आत्मकथा ‘रसीदी-टिकट’ में अमृता लिखती हैं, ‘जब साहिर लाहौर में हमसे मिलने आते थे तो ऐसा लगता था जैसे मेरी खामोशी का ही एक हिस्सा मेरी बगल वाली कुर्सी पर पसर गया है और फिर अचानक उठकर चला गया…

‘वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता. जबतक वो विदा लेता, कमरा ऐसी सिगरेटों से भर जाता. मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती. और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती. मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं. मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती. ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी.’

विवाहिता अमृता को जरा भी झिझक नहीं होती है अपने इश्क का इजहार करने में. वो साहिर के नजरिए से भी इस दास्तान को बयान करती हैं. ‘साहिर ने बहुत बाद में, जीवन का काफी अरसा गुजर जाने के बाद एक दिन बताया था कि ‘उन दिनों लाहौर में मैं अक्सर तुम्हारे मकान के पास नुक्कड़ की दुकान से पान या सिगरेट के बहाने, कभी-कभी सोडे की बोतल पकडे घंटों गुजार देता और तुम्हारे घर की उस खिड़की पर टकटकी लगाए रखता जो उस तरफ खुलती थी.’

मुशायरे ने दो शायरों को मिलाया

अमृता और साहिर की पहली मुलाकात 1944 के आस-पास ‘प्रीत नगर’ में होती है, जो लाहौर और अमृतसर के बीच में पड़ता था. देखिये पहली मुलाकात की जगह भी अद्भुत है, प्रीतनगर. 25 साल की अमृता प्रीतनगर एक मुशायरे में शिरकत के लिए आई हैं. विवाहित हैं और पति का नाम है प्रीतम सिंह. वो प्रीतम जो देर तक जीवनसाथी नहीं रह सका लेकिन अमृता ने उसे अपने नाम का हिस्सा बना लिया.

इस मुशायरे में पंजाबी और उर्दू शायरों का जमावड़ा है. साहिर उठते हैं और मुशायरे में अपनी शायरी के जलवे बिखेरते हैं.

‘मुझे नहीं पता कि ये उसके शब्दों का जादू था या उसकी खामोश नजरों की जंजीर, में पूरी तरह से खुद को जकड़ा हुआ पा रही थी. मुशायरा आधी रात तक चला. उस रात बारिश भी झूम-झूम के हुई. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो ऐसा लगता है जैसे उस रात, नसीब ने प्यार का एक बीज बोया, जिसे बारिश ने पाला.’

ये वो जमाना था जब मुशायरा और कवि सम्मलेन, समाज की सांस्कृतिक चेतना का केंद्र हुआ करते थे. अगले दो-तीन वर्ष अमृता-साहिर का ऐसे आयोजनों में बार-बार मिलना एक आपसी अनुराग में बदल गया. लेकिन इसी बीच विभाजन की त्रासदी ने नफरतों का वो तांडव किया कि एक प्रेम दीवानी को सोए हुए वारिस शाह को आवाज देनी पड़ी.

अज्ज आखां वारिस शाह नूं कित्थों कबरां बोल

ते अज्ज किताब-ए-इश्क दा कोई अगला वरका खोल

इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन

अज्ज लक्खां धीयां रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नू कैन

उठ दर्दमदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब

अज्ज बेले लाशां बिछियां ते लहू दी भरी चिनाब

(आज मैं वारिस शाह से कहती हूं, अपनी कब्र से बोल/ और इश्क की किताब का कोई नया पन्ना खोल/ पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर तूने पूरी गाथा लिख डाली थी/ देख, आज पंजाब की लाखों रोती बेटियां तुझे बुला रही हैं/ उठ! दर्दमंदों को आवाज देने वाले! और अपना पंजाब देख/ खेतों में लाशें बिछी हुई हैं और चेनाब लहू से भरी बहती है.)

एक संगमरमरा का टुकड़ा थीं अमृता

अमृता एक बेहद खूबसूरत औरत थीं. फिल्म लेखक सी. एल. काविश इस खूबसूरती के बखान में उतने ही खूबसूरत शब्द तलाशते हुए कहते हैं, ‘अमृता एक संगमरमर का टुकड़ा थीं. अगर किसी संगतराश की आंखें उनपर पड़ गई होतीं तो वो एक ऐसी मूरत गढ़ता जो राधा की हू-ब-हू होती और आज मंदिरों में पूजी जा रही होती.’

अमृता पर जी-जान से न्योछावर उनके आशिक ‘इमरोज़’ अपने और अमृता के इश्क में साहिर की हिस्सेदारी को लेकर विलेन नहीं बनते बल्कि इस जज्बे की पूजा करते नजर आते हैं. किसी जगह, शायद उमा त्रिलोकी की ही किताब में, इमरोज़ खुद ही अमृता के इस इश्क का बयान करते हैं. वो कहते हैं कि अमृता की हमेशा से एक आदत थी कि वो हर वक़्त कुछ न कुछ लिखती रहती थीं. उनकी उंगलियाँ बिना पेन के भी चलती रहती थीं. इमरोज़ ऐसे मौकों को याद करते हैं जब वो स्कूटर से अमृता को ले जा रहे हैं और अमृता, इमरोज़ की पीठ पर आदतन उँगलियों से कुछ लिख रही है. इमरोज़ बताते हैं कि कई बार उन्होंने महसूस किया जैसे अमृता ने उनकी पीठ पर लिखा ‘साहिर’.

प्रीतम सिंह, साहिर, इमरोज़ और अमृता. ये मुहब्बत की कहानी के वो किरदार हैं जो प्यार को प्यार की हद तक जानते हैं. यहां खोने की कल्पना ही नहीं है.

‘गीता’ में कृष्ण कहते हैं ‘पाने का अर्थ है खोने की चिंता से मुक्त हो जाना.’ यहां किसी को खोने की चिंता ही नहीं है. किसी को किसी से इर्ष्या नहीं है. कोई किसी के रस्ते की दीवार ही नहीं है. इस तस्वीर को अमृता अपने शब्दों से ऐसे रंगती हैं –

कई बरसों के बाद अचानक एक मुलाकात

हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह कांपे

सामने एक पूरी रात थी

पर आधी नज्म एक कोने में सिमटी रही

और आधी नज्म एक कोने में बैठी रही

फिर सुबह हुई

हम कागज के फटे हुए टुकड़ों की तरह मिले

मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया

उसने अपनी बांह में मेरी बांह डाली

और हम दोनों एक सेंसर की तरह हंसे

और कागज को एक ठंडी मेज पर रखकर

उस सारी नज्म लकीर फेर दी.