-
जब कांग्रेस के नेतृत्व में मोदी सरकार का विरोध करने में राजनीतिक दल इतना हिचकिचा रहे हैं तो फिर साथ मिलकर चुनाव लड़ने के दावे कहीं कोरी कल्पना न साबित हो जाएं.
-
भारत बंद में शामिल दलों ने जहाँ राहुल गाँधी के नेतृत्व पर मोहर लगा दी वहीँ ममता माया और अखिलेश कि अनुपस्थिति कोई और ही कहानी बयान करती है.
-
पेट्रोल के 80 का आंकड़ा छूने पर भारत बंद कि नाकाम कोशिश करनेवाले यह भूल गए कि मनमोहन के राज में भी पेट्रोल 84पार जा चुका है.
पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में लगी आग से सियासत सुलगी और भारत बंद का एलान कर दिया गया. कांग्रेस की अगुवाई में भारत-बंद बुलाया गया. ये दावा किया गया कि बंद को 21 विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है. ये भारत बंद न सिर्फ केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन था बल्कि शक्ति प्रदर्शन का भी मौका था. इसके जरिये विपक्षी एकता की भी ताल ठोंकी गई. सरकार और जनता को ये संदेश भेजा गया कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के खिलाफ आवाज उठाने का वक्त आ चुका है. लेकिन विपक्षी एकता के ‘लिटमस टेस्ट’ के मौके पर एक बार फिर महागठबंधन को ऐसा ग्रहण लगा कि तेल के मुद्दे पर विपक्ष फिसलता ही दिखा.
महंगाई के खिलाफ कांग्रेस के आह्वान पर 21 विपक्षी दलों के साथ आने का दावा किया गया. रामलीला मैदान में सियासत के मंच पर यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी, पूर्व पीएम मनमोहन सिंह, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार जैसे चेहरे दिखाई दिये. लेकिन मंच पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नुमाइंदे नहीं दिखे. यहां तक कि आम आदमी पार्टी ने भी ‘कभी हां-कभी ना’ के बाद विरोध की मशाल थामना बेहतर समझा. इसके बावजूद समाजवादी पार्टी की तरफ से अखिलेश यादव और बीएसपी की तरफ से मायावती का कोई भी प्रतिनिधि मंच पर नहीं आया.
लोकसभा चुनाव से पहले रामलीला मैदान एक खास पड़ाव बन सकता था जहां से विपक्षी दल न सिर्फ मोदी सरकार के खिलाफ जनता को सामूहिक संदेश देते बल्कि अपनी एकता का भी जोरदार प्रचार करते. लेकिन पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती कीमतों को जनता के बीच मुद्दा बनाने से एसपी और बीएसपी चूक गए. मंच पर उनकी गैरमौजूदगी से दूसरा संदेश गया. जहां कांग्रेस विपक्षी एकता का दावा कर रही थी तो एसपी-बीएसपी की गैरमौजूदगी से संदेश गया कि महागठबंधन के संभावित सहयोगियों के लिये तेल की कीमतों से ज्यादा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर तनाव है.
दरअसल, साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एसपी और बीएसपी यूपी की ‘सीट-साधना’ में जुटे हुए हैं. ऐसे में एसपी-बीएसपी की कांग्रेस से दूरी को दरअसल यूपी में सीटों के बंटवारे को लेकर इशारा समझा जा सकता है.
यूपी की कुल 80 में से 40 सीटों पर मायावती दावा कर रही हैं. वहीं अखिलेश यादव भी अपनी पार्टी के लिये 40 सीटों की मांग करने का इरादा रखते हैं. ऐसे में फिर कांग्रेस के लिये यूपी में बचेगा क्या? वैसे भी कांग्रेस के लिये न तो जमीन बची है और न ही जनाधार. ऐसे में यूपी में सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस-एसपी-बीएसपी में बात कैसे बनेगी?
दरअसल, यूपी में हाल ही में हुए उपचुनावों के वक्त एसपी-बीएसपी के गठबंधन से बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस को भी नुकसान हुआ है. एसपी-बीएसपी के गठबंधन से कांग्रेस यूपी में सौदेबाजी की रेस से बाहर हो गई है. जबकि यूपी में उपचुनावों में मिली जीत के बाद एसपी-बीएसपी के हौसले बुलंद हैं. बुआ-भतीजे को लगता है कि उन्हें मोदी सरकार को हराने के लिये गठबंधन की कुंजी मिल गई है और कांग्रेस की अब जरूरत नहीं है.
महागठबंधन बनने के पहले ही विपक्षी पार्टियों में ये संदेश भी फैल चुका है कि पीएम उसी पार्टी का बनेगा जिसकी सबसे ज्यादा सीटें होंगी.ऐसे में हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की जी तोड़ कोशिश करेगा. साथ ही ये भी चाहेगा कि गठबंधन की सूरत में उसे सीट बंटवारे में भी ज्यादा से ज्यादा सीटें मिली. यही वजह है कि इस समय एसपी-बीएसपी का जोर खुद की सेहत पर ज्यादा और कांग्रेस की कमजोरियों पर कम है. तभी एसपी-बीएसपी ने कांग्रेस के बुलाए भारत-बंद में शामिल न हो कर ये संदेश भी दे दिया कि उन्हें राहुल की लीडरशिप में कोई दिलचस्पी नहीं है.
रामलीला के मैदान में मंच पर आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह की मौजूदगी एक नए समीकरण का प्रतीक है. दरअसल आम आदमी पार्टी ने एक दिन पहले तक भारत बंद को समर्थन देने से इनकार कर दिया था. आम आदमी पार्टी का आरोप था कि बीजेपी और कांग्रेस की सरकार में फर्क कुछ भी नहीं है और कांग्रेस ने जो महंगाई साल 2014 तक बढ़ाने का काम किया था वही अब बीजेपी कर रही है.
आम आदमी पार्टी ने हालांकि ये कहा था कि वो सैद्धांतिक रूप से पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी का विरोध करती है लेकिन भारत बंद में शामिल होने का उसका कोई इरादा नहीं है. लेकिन बाद में आम आदमी पार्टी ने भारत बंद को सहयोग देने का एलान कर दिया. खुद आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह रामलीला मैदान में मंच पर मौजूद थे.
कांग्रेस विरोध में जन्मी आम आदमी पार्टी अब बीजेपी विरोध के चलते कांग्रेस के साथ खड़ी है. राजनीति की यही विडंबना है. कभी कांग्रेस आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने के लिये समर्थन देती है तो कभी राज्यसभा में उपसभापति के चुनाव के वक्त आम आदमी पार्टी से समर्थन तक नहीं मांगती है. लेकिन अब कांग्रेस साल 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर किसी भी पार्टी को छोटा या अछूत नहीं मानना चाहती है. वो सारे वैचारिक मतभेदों को दूर कर सिर्फ बीजेपी के वोट काटने के एक सूत्री कार्यक्रम पर फोकस कर रही है. यही वजह है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त की तर्ज पर कांग्रेस ने दिल्ली में बीजेपी को टक्कर देने के लिये आम आदमी पार्टी से हाथ मिला लिया है.
लेकिन इतने खास मौके पर एसपी-बीएसपी का तेल की तरह फिसलना महागठबंधन के भविष्य और संभावनाओं पर बड़ा सवाल है. साफ है कि इस वक्त एसपी-बीएसपी साल 2019 के चुनाव के तेल की धार देख रहे हैं और उन्हें कांग्रेस को लेकर कोई कन्फ्यूज़न नहीं है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि विपक्षी एकता के नाम पर कांग्रेस कहीं किसी मुगालते में तो नहीं जी रही? क्या कांग्रेस की कमजोर रणनीति की ही वजह से बीजेपी अब ताल ठोंक कर कहने लगी है कि अगले 50 साल तक उसे हराने वाला कोई नहीं?
कांग्रेस ने तेल की कीमतों को ताड़ बनाने का दरअसल मौका गंवा दिया. भले ही इस मुद्दे पर वो देर से ही सही मैदान में उतरी लेकिन बिना किसी तैयारी के उतर कर उसने मोदी सरकार पर हल्ला बोल की जगह सेल्फ गोल करने का ही काम किया. एक तरफ बीजेपी जहां खुल कर ये कह रही है कि उसका तेल की कीमतों पर नियंत्रण नहीं है तो दूसरी तरफ वो कांग्रेस पर भारत बंद के दौरान हुई हिंसा का आरोप लगा रही है. भारत बंद से हुई असुविधा की वजह से आम जनता तेल की कीमतों को भूल गया. कांग्रेस की विरोध की कोशिश से जनता ही परेशान हुई और जनता में ये संदेश गया कि विपक्ष सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति के चलते तोड़फोड़ कर आम लोगों का नुकसान कर रहा है. बहरहाल, कैलाश मानसरोवर से लौटे राहुल गांधी का ये सियासी वार भी खाली गया क्योंकि उनके संभावित महागठबंधन के सहयोगियों ने ही आग लगी तेल की कीमतों पर ठंडा पानी डालने का काम किया है.