इमरान की बातों से अधिक उसके काम पर हो पैनी नज़र


पाकिस्तान के साथ आसानी से शांति की कल्पना ने पहले ही बहुत जानें ले ली हैं. इसलिए अब पाकिस्तान के अंग्रेज़ दां, नए प्रधानमंत्री की बातों में आने का वक्त नहीं है


विदेश मामलों के विशेषज्ञों का, अब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खासा दबाव रहेगा कि वे पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ भारत-पाक रिश्तों पर बातचीत के लिए पहल करें. वो बातचीत फिर से शुरू करें, जो कभी रुक गई थी. तर्क दिए जाएंगे कि क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के भारत में कई लोगों के साथ बहुत गर्माहट भरे रिश्ते हैं. साथ ही इमरान को पाक जनरलों का वरदहस्त भी प्राप्त है.

भारत के वे आशावादी, जिन्हें इमरान खान के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद, पाक से बड़ी उम्मीदें हैं, नहीं समझ पा रहे हैं कि दरअसल इन चुनावी नतीजों के मायने भारत के लिए क्या हैं. दरअसल कुछ नया नहीं होने जा रहा. प्रधानमंत्री इमरान खान के कुर्सी संभालने पर, कश्मीर को लेकर वही छोटी-मोटी लड़ाइयां जारी रहेंगी, जो अब तक होती रही हैं. दशकों से भारत-पाक रिश्तों में यही होता आया है. इन सबके अलावा राजनैतिक अस्थिरता भी बढ़ेगी, जो पाकिस्तान में धार्मिक रूप से कट्टर लोगों की ताकत और बढ़ाएगी. लिहाज़ा हमारे प्रधानमंत्री को चाहिए कि भारत की सीमाएं खोलने के बजाय, सरहदों पर सुरक्षा और मजबूत करें.

इमरान के कहने को तो अच्छी बातें लेकिन…

ये सच है कि इमरान खान के पास भारतीयों के बारे में कहने के लिए कुछ ‘अच्छी’ बातें हैं. हालांकि भारत के प्रति नवाज शरीफ की नीति पर अपने चुनाव प्रचार के वक्त वे जमकर बरसते रहे हैं. लेकिन सीएनएन-आईबीएन को 2011 में दिए एक इंटरव्यू में इमरान खान ने कहा था, ‘मैं हिंदुस्तान के प्रति नफरत लिए हुए पला-बढ़ा हूं. लेकिन जैसे-जैसे मैं भारत में और घूमा, मुझे लोगों का इतना प्यार मिला कि मैं वो सब भूल गया.’ अपने चुनाव प्रचार के बीच में भी उन्होंने कहा, ‘हमें भारत के साथ अमन और चैन रखना होगा क्योंकि कश्मीर के मुद्दे पर पूरा उपमहाद्वीप बंधक बना पड़ा है.’

आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर इमरान खान मुहावरों के मुलम्मे में लिपटी भाषा में भारत के प्रति कुछ न कुछ अच्छी बात ज़रूर कहेंगे. ज़ाहिर है उसके बाद लोग प्रधानमंत्री मोदी से भी मांग करने लगेंगे कि वे इमरान की बात के जवाब में दोस्ती का हाथ बढ़ाएं.

ये भी सच है कि इमरान खान जो भी कहेंगे, वह पूरी तरह बेतुकी बात ही होगी. पाकिस्तान में, विदेशी मामलों की जानकार आयेशा सिद्दीका कहती हैं, ‘लोकतांत्रिक शासन का मतलब ये नहीं है कि सुरक्षा और कूटनीति पर से पाक फौज अपना नियंत्रण छोड़ देगी. अफगानिस्तान, काफी हद तक ईरान भी, भारत, चीन और अमरीका पहले से ही रावलपिंडी में आर्मी जनरल हेडक्वार्टर्स के हितों को लेकर कड़ी आलोचना करते रहे हैं. अब ये मामले तो ऐसे हैं कि इन पर कोई समझौता नहीं हो सकता.’

नवाज शरीफ और जरदारी का उदाहरण ले लीजिए

2013 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नवाज़ शरीफ ने सीएनएन-आईबीएन को दिए एक इंटरव्यू में वादा किया था कि वे हर वह काम करेंगे जो एक भारतीय उनसे उम्मीद करता है. उन्होंने कश्मीर मुद्दे का शांतिपूर्ण हल निकालने की बात कही और वादा किया कि वो पूरी कोशिश करेंगे कि भारत के खिलाफ आतंक फैलाने की किसी भी कोशिश को वे पाक धरती पर फलने-फूलने नहीं देंगे. उन्होंने दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने की बात भी कही थी. उन्होंने ये भी वादा किया था कि वे मुंबई के 26/11 हमले में आईएसआई का हाथ होने के आरोपों की भी जांच करवाएंगे. वादा ये भी था कि करगिल युद्ध के सभी रहस्यों पर से वे पर्दा भी उठाएंगे.

शरीफ को ये श्रेय तो देना होगा कि उन्होंने जो भी कहा, उसे करने की भी पूरी कोशिश की. 2014-15 में कश्मीर में भारतीय सेना पर जिहादी हमलों में कमी आई. इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकी गुटों की लगाम उन्होंने खींच कर रखी. उन्होंने खुलकर कहा कि पठानकोट पर हुए हमले का ज़िम्मेदार जैश-ए-मोहम्मद है.

लेकिन आखिर में हुआ क्या, सबको पता है. पाक फौज ने शरीफ पर उलट वार किया, पद से हटाए गए नवाज शरीफ के खिलाफ मैच फिक्स किया और जैसा कि पाकिस्तान के कानून विशेषज्ञ बब्बर सत्तार कहते हैं, ‘शरीफ की निष्ठा के बारे में कोई कुछ भी कहे, उनके खिलाफ जो मुकदमा चला, वह कानूनी तौर पर बहुत लचर और कमज़ोर मामला था.’

लेकिन नवाज़ शरीफ का तख्ता पलट कोई नई बात नहीं. याद करें, 2008 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने ऐलान किया था, ‘भारत कभी भी पाकिस्तान के लिए ख़तरा नहीं रहा.’ उन्होंने कश्मीर के इस्लामी घुसपैठियों को आतंकवादी बताया और कहा कि उम्मीद की कि भविष्य में पाकिस्तान की सीमेंट फैक्ट्रियां भारत की बढ़ी ज़रूरतों की पूर्ति करेंगी. पाकिस्तानी बंदरगाहों की वजह से भारत के भरे पड़े बंदरगाहों की मदद भी हुई. ज़रदारी ने ये भी ऐलान कर दिया था कि उनकी योजना जल्दी ही कुख्यात आईएसआई पर से फौज का नियंत्रण हटाने की है.

जांच से पता चलता है कि ये वही वक्त था जब अजमल कसाब और लश्कर-ए-तैयबा के उसके 9 साथी 26/11 हमले की तैयारी कर रहे थे. और ये हमला आईएसआई की ओर से संदेश था कि पाकिस्तान को वही चलाते हैं, कोई और नहीं.

इससे पहले फरवरी, 1999 में नवाज़ शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर घोषणापत्र पर दस्तखत किए थे, जिसके मुताबिक दोनों देशों ने वादा किया था कि शिमला समझौते को शब्दश: लागू किया जाएगा. हम सब जानते हैं कि तब क्या हुआ. इधर लाहौर घोषणापत्र पर दस्तखत हो रहे थे और उधर पाकिस्तानी फौजें लाइन ऑफ कंट्रोल को पार करने की तैयारी कर रही थीं.

पाकिस्तानी फौज के अस्तित्व का संकट है भारत

पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की तरह ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी शुरुआती नीति यही थी कि बातचीत और व्यापार और आर्थिक संबंधों के बढ़ने पर संबंधों में नरमी आएगी. इस बात पर किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि मोदी की ये खुशफहमी, पठानकोट हमले और लाइन ऑफ कंट्रोल के पार हुए हमलों के बाद ग़लतफहमी में बदल गई. ये सोच कि बातचीत जारी रहने से संकट से बचा जा सकता है, बस दिखने में हसीन है, असलियत में एकदम निराधार. इतिहास गवाह है कि 1914 की शुरुआत में यूरोप आर्थिक और कूटनीतिक रूप से जितना एकीकृत था, उतना पहले कभी नहीं. यहां भी मामला मामला वही है.

सेना की जानकार सी क्रिस्टाइन फेयर ने कहा था कि फौज एक ऐसा समुदाय है जिसके पास बहुत ज्ञान होता है और उनका फैसला लेने का तरीका अपने पूर्ववर्तियों से सीखा हुआ होता है. भारत से पाकिस्तान के रिश्ते अगर सामान्य हुए तो ये पाकिस्तानी फौज के लिए अस्तित्व का संकट ले आएगा. पाकिस्तानी फौज की नींव ही इस मिथक पर रखी गई है कि अपने से बड़े और ताकतवर पड़ोसी के खिलाफ युद्ध ही पाकिस्तानी फौज के अस्तित्व की वजह है. इससे पाक फौज, हिंदू भारत के खिलाफ इस्लामिक पाकिस्तान के रक्षक की भूमिका में दिखता है. और आसान तरीके से कहें तो, भारत-पाक के बाच शांति कराकर पाकिस्तानी सेना खुद को खत्म नहीं करना चाहती.

सच्ची बात तो ये है कि भारत के पास कोई विकल्प नहीं है. भारत-पाकिस्तान की बात करें तो भारत को सबसे बड़े फायदे युद्ध से ही हुए हैं, बातचीत से नहीं. नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम हो या 2003 के बाद कश्मीर में हिंसा में आई कमी की बात, ये सब 1999 के करगिल युद्ध के बाद ही मुमकिन हो पाया. 2001-02 में भी दोनों देश युद्ध के करीब आ गए थे. लड़ाई आसन्न थी और ये एक ऐसा संकट था जिसे झेलना भारत के लिए तो मुश्किल होता, लेकिन पाकिस्तान तो टूट ही गया होता.

लेकिन ये रास्ते भारत के हितों के मुताबिक नहीं हैं. जो संभावित खतरे हैं, वे बहुत ज़्यादा बड़े हैं. ‘राष्ट्रवादियों के गर्व’ की बात परे रखें तो ये सच है कि 2016 में भारतीय सेना के सीमा पार कर सर्जिकल स्ट्राइक करने के बाद, कश्मीर में हिंसा की वारदातें बढ़ी हैं. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद के हफ्तों में पाकिस्तान की ओर से जिहादी हमले और तेज़ हुए और तब से लेकर अब तक वारदातें रुकी नहीं हैं. 2001-02 में आई युद्ध की स्थिति का विश्लेषण करें तो ये कहा जा सकता है कि पाकिस्तान को अपनी फौजें पीछे हटाने के लिए बाध्य किया जा सकता है. लेकिन भारत के कूटनीतिक प्रतिष्ठान मानते हैं कि इसके लिए हमारे देश को जो कीमत चुकानी पड़ेगी, वो बहुत ज़्यादा है.

किसी खुशफहमी में न रहें पीएम मोदी

ज़िंदगी की तरह ही राजनीति में भी इससे ज़्यादा बढ़िया सलाह नहीं हो सकती कि अगर कोई चीज़ इतनी अच्छी लगे कि वो सच से परे है, तो ये मान लेना चाहिए कि वो झूठी है. इंग्लैंड में पढ़ा, खूबसूरत क्रिकेट स्टार, जो अब पाकिस्तान पर राज करेगा, पाकिस्तान को नॉर्थ यूरोपियन वेलफेयर स्टेट की तरह एक इस्लामिक मुलम्मे में लिपटा वेलफेयर स्टेट बनाना चाहता है. भारत में भी ऐसे एलीट लोग हैं जो चाहते हैं कि हमारे यहां भी कोई ऐसा ही नेता कुर्सी पर बैठे. बहरहाल, इमरान खान भारत-पाक दोस्ती के हरकारे या शांतिदूत नहीं हैं.

भारत के पास अब भी वही पुराना विकल्प सबसे अच्छा है. बगैर युद्ध की स्थिति लाए, आतंकविरोधी क्षमता को बढ़ाने पर ध्यान देना, कश्मीर में राजनैतिक संकट का हल निकालना क्योंकि सूबे में हिंसा वहीं से पनप रही है, पाकिस्तान समर्थित आतंक से निपटने के लिए दूसरे सैन्य तरीकों का विकास, ये ही वे तरीके हैं जिन पर भारत को ध्यान देना होगा.

इन सब कामों के लिए वक्त और मेहनत दोनों चाहिए. वे काम, राजनेताओं के काम और वादों की तरह लुभावने नहीं हैं कि अपने वोटर्स को हर बार नया खिलौना देकर बहला लिया जाए. पाकिस्तान के साथ आसानी से शांति की कल्पना ने पहले ही बहुत जानें ले ली हैं. इसलिए अब पाकिस्तान के अंग्रेज़ दां, नए प्रधानमंत्री की बातों में आने का वक्त नहीं है.

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