कम ख़राब से अधिक ख़राब का चुनाव है इमरान खान
ईशनिंदा को लेकर बने कठोर पाकिस्तानी कानून का समर्थक होना, या फिर औरतों को लेकर पोंगापंथी वाले विचार जाहिर करना, इमरान खान को बहुत पीछे ले गया है.
यकीन जानिए यही वहाँ की ज़रूरत भी है।
इमरान खान ने बहुत पहले वादा किया था कि वे पाकिस्तान को बदल देंगे. लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें बदल दिया. देश का नेतृत्व करने का सपना पूरा करने में, उन्हें खुद को बदलने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ी, उतनी मेहनत शायद उन्हें ताज़ा चुनावों में खुद को प्रधानमंत्री पद के लिए सही उम्मीदवार साबित करने में नहीं हुई.
ऑक्सफर्ड से पढ़ाई कर, ब्रिटिश लहज़े वाली अंग्रेज़ी बोलने वाले एलीट, और ब्रिटिश अरबपति की बेटी से शादी करने वाले इमरान खान से लेकर उस इमरान खान तक, जो पाकिस्तान की राजनीति में उतरने के बाद कट्टर इस्लामिक विचारधारा का हो जाता है, उन्होंने खुद को काफी बदल लिया है. ईशनिंदा को लेकर बने कठोर पाकिस्तानी कानून का समर्थक होना, या फिर औरतों को लेकर पोंगापंथी वाले विचार जाहिर करना, इमरान खान को बहुत पीछे ले गया है.
2011 में आई उनकी ऑटोबायग्रफी, ‘पाकिस्तान: अ पर्सनल हिस्ट्री’ में वे एक जगह पाकिस्तानी सांसद सलमान तासीर की हत्या के लिए मुल्क के मौलानाओं को ज़िम्मेदार मानते दिखाई देते हैं. वे कहते हैं कि ईशनिंदा का कट्टर कानून ही उस हत्या की वजह है. 4 जनवरी 2011 को सलामन तासीर को उनके 26 साल के बॉडीगार्ड मलिक मुमताज़ हुसैन कादरी ने गोलियों से भून दिया था. वो पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर थे.
वजह, उनका बॉडीगार्ड ईशनिंदा कानून पर उनके कथित विरोध से नाराज़ था. पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून एक ज्वलंत मुद्दा है. सलमान तासीर को 26 गोलियां मारने वाले इस हत्यारे को साल 2016 में नवाज़ शरीफ सरकार ने फांसी की सज़ा दे दी. लेकिन सलमान तासीर को मारने के बाद मीडिया के सामने इस गार्ड ने कहा था, ‘ सलमान तासीर ईशनिंदक हैं, अल्लाह की बुराई करने वाले हैं और ऐसे शख्स को यही सज़ा मिलनी चाहिए थी.’
कादरी फांसी पर झूल गया लेकिन पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरवादियों के लिए शहीद और आदर्श बन गया. उसकी मौत से पूरे पाकिस्तान में कट्टर मुसलमानों में रोष फैल गया. और इस गुस्से ने एक राजनातिक दल को जन्म दिया ‘ तहरीक-ए-लबाएक पाकिस्तान ’, जिसने वहां के लोगों में फिलहाल अच्छी पकड़ बना ली है और ताज़ा चुनावों में उससे अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद भी की जा रही है. अपने प्रचार में इस पार्टी के समर्थक कादरी की तस्वीर वाला झंडा लहराते हैं और ‘ ईशनिंदा करने वालों को मौत दो ’ के नारे भी लगाते हैं.
2011 में इमरान खान ने कादरी की जम कर निंदा की और मुल्लाओं के खिलाफ कार्रवाई न कर पाने के लिए सरकार को आड़े हाथों लिया था. उस वक़्त इमरान ने ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘उग्रवादी और अतिवादी सोच हमारे समाज के भीतर तक पैठ बना चुकी है और हमारा युवा उसका नुकसान उठा रहा है. कादरी जैसे लोग उस सोच के तहत चलते हैं जिसके मुताबिक इस्लाम खतरे में है और उसे उस खतरे से बचाने के लिए वे खुद फैसले करने लगते हैं. कादरी ने जो किया, उससे हमारे समाज में एक डर बैठ गया है. उसके साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए, जैसा किसी भी दूसरे हत्यारे के साथ वाजिब हो.’
2013 के चुनावों में इमरान की बड़ी शर्मनाक हार हुई और उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर आई. इमरान को उस चुनाव में एक ‘ताजा उम्मीद’ के तौर पर देखा जाने लगा था. उनकी रैलियों में भीड़ भी खूब आती थी, लेकिन वे उस भीड़ को वोटों में तब्दील कर पाने में नाकाम रहे. 2013 की करारी हार ने इमरान खान को भीतर से बदल दिया. उन्होंने महसूस किया कि अगर सत्ता पाकिस्तान की फौज के इशारे पर चलने से पाई जा सकती है, तो कट्टर इस्लामी सोच रख कर भी कुर्सी तक पहुंचा जा सकता है.
नतीजतन, उनकी पार्टी का मेलजोल अब धार्मिक उन्मादियों के साथ ज़बरदस्त तरीके से चल रहा है और इमरान खान समाज को पीछे ले जाने वाली हर लंपट सोच का साथ देते दिखाई दे रहे हैं. नवाज शरीफ की पार्टी ‘पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज’ के खिलाफ अपनी लड़ाई में, इमरान की पार्टी ‘तहरीक-ए-इंसाफ’ के नेता लोगों से साफ कहते हैं कि कादरी को अपने चुनावी बैनर पर रख कर चलने वालों और उसे मौत देने वालों में से किसी एक को उन्हें चुनना है. इमरान खान इस संदेश को तब और मजबूत करते दिखाई देते हैं, जब रैली में आने वाली भीड़ को वे खुद बताते हैं, ‘कोई मुसलमान खुद को तब तक मुसलमान नहीं कह सकता, जब तक वो ये न मान ले कि हजरत मोहम्मद के बाद कोई पैगंबर हुआ ही नहीं.’
इमरान के इस बयान के बाद पाकिस्तान के अल्पसंख्यक अहमदी संप्रदाय में डर और घबराहट फैल गई है, जो ये मानते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद के बाद भी कोई और पैगंबर था. लिहाजा पूरी चुनावी प्रक्रिया से अहमदियों को बाहर रखा गया और इससे वे खुद को बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.
अपनी एक रैली में इमरान खान ने भीड़ से साफ कहा, ‘हम संविधान की धारा 295 C के हक में हैं और उसको बनाए रखने के लिए कुछ भी करेंगे.’ आपको बता दें कि इस कानून के तहत पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ कोई गलत बात कहने वाले को सीधे मौत की सजा का प्रावधान है.
पाकिस्तान की सेना भी प्रधानमंत्री पद के लिए इमरान के रास्ते आसान करती जा रही है. क्योंकि सेना को लगता है कि शरीफ और भुट्टो की वंशवाद की राजनीति से इमरान खान की राजनीति बेहतर है. फौज, इमरान खान को कम खतरनाक भी मानती है. लेकिन ये पूरी तस्वीर नहीं है. पाकिस्तान में भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे राजनेताओं की वजह से भी इमरान खान की लोकप्रियता बढ़ी है.
एवनफील्ड अपार्टमेंट्स घोटाले में नवाज़ शरीफ और उनकी बेटी जेल में हैं, जबकि भ्रष्टाचार के आरोपों में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आसिफ ज़रदारी जेल जा चुके हैं. इसके ठीक उलट इमरान की छवि है. भ्रष्टाचार को लेकर उनका दामन साफ तो है ही, अपने प्रचार से उन्होंने ये छवि बना ली है कि इस चुनाव में दरअसल उनकी लड़ाई मुल्क के माफियाओं के साथ है.
इस तरह ये देख पाना बहुत आसान है कि पाकिस्तान में युवा वर्ग, इमरान की ‘सत्ता के मुखालिफ’ वाली छवि यानी ‘एंटी- इस्टैबलिशमेंट’ वाले रुख से क्यों उम्मीदें लगाए बैठा है. साफ है, उसे लगता है कि सिर्फ इमरान खान पाकिस्तान से गंदगी हटा सकते हैं और बड़े सामाजिक-आर्थिक संकट में गहरे डूबे मुल्क को बाहर निकाल सकते हैं.
लंदन के फाइनेंशियल टाइम्स ने कराची यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर हुमा बकाई का ये बयान छापा- ‘निराशा भरे इस माहौल में वही उम्मीद की एक किरण हैं. उनके पास पहले से कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है. उन्होंने भयंकर ग़लतियां भी की हैं. लेकिन ये भी सच है कि हमने पाकिस्तान की दोनों बड़ी पार्टियों को आज़मा कर देख लिया है और वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं.’
बावजूद इसके कि पाकिस्तानी वोटरों के सामने घटिया विकल्प हैं, इमरान भी कोई अच्छा विकल्प नहीं दे पाए हैं और इसकी कई सारी वजहें हैं. जैसे- वे कई सालों से राजनीति में हैं. लेकिन अब तक सरकार में नहीं रहे, उनके पास बहुत कम प्रशासनिक अनुभव है और भ्रष्टाचार को खत्म करने के अलावा उनके पास कोई एजेंडा नहीं है.
2013 में उनके हाथों में केपीके यानी खैबर पख्तूनवा की हुकूमत आई, लेकिन वे वहां अपना कोई भी वादा पूरा करने में नाकाम रहे हैं. उन्होंने 2013 में कहा था कि खैबर पख्तूनवा को एक आदर्श राज्य बनाया जाएगा. लेकिन ज़मीनी रिपोर्ट बताती है कि उनके वादों और ज़मीनी सच्चाई में जमीन-आसमान का फर्क है.
इस्लामाबाद में रहने वाले लेखक और एक्टिविस्ट अरशद महमूद ने जर्मनी की पत्रिका डाएचे वेले को बताया, ‘तस्वीर यहां वैसी ही है, जैसी पहले थी. कोई तब्दीली नहीं आई है. क्योंकि पीटीआई के कार्यकर्ता खुद को कानून से ऊपर समझते हैं और कभी भी प्रशासन के साथ सहयोग नहीं करते.’ कुछ लोगों का ये कहना भी है कि इमरान की पार्टी ‘तहरीक-ए-इंसाफ’ में अंदरूनी झगड़े भी बहुत हैं. केपीके के कई विधायकों ने अपने ही चीफ मिनिस्टर और इमरान खान के खिलाफ झंडा बुलंद कर रखा है.
इमरान का दावा है कि उन्हें सत्ता मिली तो वे पाकिस्तान को एक इस्लामिक वेलफेयर स्टेट में बदल देंगे. अब इस तरह के वादे उस मुल्क के लिए तो त्रासदी लाने के नुस्खे की तरह ही होंगे, जहां बैलेंस ऑफ पेमेंट यानी भुगतान संतुलन बहुत कमज़ोर अवस्था में है, मुद्रा की कीमत गिरती जा रही है, तेल की कीमतें बढ़ती जा रही हैं, बिजली और पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है, नवजातों की मौत का अनुपात दुनिया में सबसे ज़्यादा है और ह्यूमन डेवलेपमेंट इंडेक्स पर पाकिस्तान बहुत नीचे है.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में मुल्क 119 देशों में 106वें नंबर पर है. इस तरह इमरान खान के लिए वादे पूरा करना लगभग असंभव तो है ही, पीटीआई के मुखिया नीतियों और विचारों के स्तर पर भी काफी सतही मालूम होते हैं.
लंदन के संडे टाइम्स के एक इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि पाकिस्तान में चीन का मॉडल वे कैसे लागू करेंगे, तो इमरान कुछ बता ही नहीं पाए, जबकि उनके प्रचार में इसका वादा किया गया है. इमरान ने कहा, ‘हमें इस बात से सीखना है कि चीन ने अपने मुल्क में उद्योगों के साथ क्या किया.’ जब सवाल पूछा गया कि उनके पास कुल मिला कर योजना क्या है, तो उनका जवाब था, ‘हमारी प्राथमिकता सार्वभौमिक विदेश नीति की है, उसके बाद इस्लामिक वेलफेयर स्टेट और तीसरे नंबर पर चीन का मॉडल पाकिस्तान में लागू करना, ये हमारी प्राथमिकताएं हैं.’
जब उनसे पूछा गया कि क्या वे विस्तार से इसे बता सकते हैं, उनकी आंखें भावशून्य हो गईं, जैसे उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा हो कि क्या जवाब दें. यहां तक कि उनके करीब के साथी भी मानते हैं कि उनके बॉस इस मामले में थोड़े कमज़ोर हैं. पार्टी के उपाध्यक्ष असद उमर का कहना है, ‘इसे कुछ इस तरह कहें तो बेहतर होगा कि वे रणनीति के धुरंधर नहीं हैं. वे कभी किसी संस्था का हिस्सा नहीं रहे हैं और किसी संस्था के दायरे में बंध कर काम करना नहीं जानते.’
लेकिन सत्ता की खोज में इमरान खान का इस्लामवाद की ओर झुकाव खतरनाक है, खास तौर पर तालिबान की तरफ उनका नरम रुख. इसीलिए उन्हें ‘तालिबान खान’ कह कर भी बुलाया जाने लगा है. खैर, उत्तरी केपीके में सत्ता में बैठी उनकी पार्टी की तब काफी बदनामी हुई थी , जब 2017 में उसने हक्कानिया मदरसों के लिए 30 लाख डॉलर अनुदान के तौर पर दे दिए थे.
ये मदरसे तालिबानी आतंकियों के स्कूल माने जाते रहे हैं. इमरान ने ये तक मांग कर डाली थी कि तालिबान को पाकिस्तानी शहरों में दफ्तर खोलने की इजाज़त दी जाए. उन्होंने ये भी मांग की थी कि अमेरिका तालिबानियों पर ड्रोन से हमल करना बंद करे. बदले में तालिबान चाहता है कि सरकार से बातचीत में इमरान ही तालिबानियों का प्रतिनिधित्व करें.
खतरे की घंटी भारत के लिए भी है. अगर इमरान का पार्टी इन चुनावों में बहुमत से पीछे रह जाती है, तो हाफिज़ सईद के चुनावी फ्रंट अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक, शरीफ को कुर्सी की दौड़ से बाहर करने के लिए, इमरान को सरकार बनाने के लिए मदद कर सकती है. हाफिज़ सईद यानी मुंबई हमलों की साजिश रचने वाला आरोपी. जाहिर है, खतरा भारत को भी है.
उधर पूरे पाकिस्तान में किए गए ओपिनियन पोल इशारा करते हैं कि हालांकि इमरान की पार्टी पीटीआई शरीफ और भुट्टो की पार्टियों से बढ़त पा जाएगी, किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिल पाएगा. जानकारों का मानना है कि उस हालत में इमरान, नवाज़ और शाहबाज़ शरीफ को बाहर रखने के लिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी से हाथ मिला लेंगे.
डॉन में अपने एक लेख में इरफान हुसैन लिखते हैं, ‘पीपीपी के लिए ये सौदा बुरा नहीं होगा. धूर्त ज़रदारी आला-दर्ज़े का मोलभाव करेंगे क्योंकि उन्हें मालूम है कि इमरान देश के प्रधानमंत्री बनने को बेताब हैं.’ इसका मतलब ये हुआ कि अनुभवहीन इमरान उन लोगों के हाथों से इस्तेमाल होंगे, जो राजनीतिक अनुभव में उनसे बेहतर हैं. जाहिर है नया पाकिस्तान बनाने के जो वादे उन्होंने कर रखे हैं, वे पूरे नहीं होने हैं.
इमरान के खिलाफ सबसे घातक तर्क पाकिस्तानी फौज को लेकर दिया जा रहा है. रावलपिंडी के जनरलों ने इमरान को इस जगह तक किसी रणनीति के तहत ही पहुंचाया है. जाहिर है मौका आने पर बदले में वह अपना हिस्सा मांगने में पीछे नहीं रहेगी. इमरान खान के पक्ष में पलड़ा झुकाने के लिए फौज की ओर से कितनी कोशिशें हुई हैं. ये समझने के लिए एक उदाहरण काफी होगा.
डेली टाइम्स के संपादक रज़ा रूमी ने ब्रिटेन के ‘द टाइम्स’ की क्रिस्टीना लैंब को बताया, ‘इन चुनावों के दौरान कवरेज के लिए मीडिया को धमकाया गया है, कि वे अपनी हदों में रहें. चेतावनी दी गई है कि नवाज शरीफ को लेकर पॉज़िटिव खबरें न लिखें , उनकी पार्टी की रैलियों की कवरेज न हो, फौज की ओर से की गई हत्याओं के खिलाफ पख्तूनों का विरोध प्रदर्शन न कवर किया जाए, अदालतों और जजों की आलोचना से बचा जाए और इमरान की पूर्व पत्नी रेहाम खान की उस किताब का बिलकुल ज़िक्र न किया जाए, जिसमें उन्होंने इमरान के बारे में कई विवादास्पद बातें कही हैं.’
मतलब ये कि अगर इमरान जीते भी, तो उनकी सरकार पर ‘लोकप्रियता’ की मोहर नहीं लग पाएगी. जाहिर है बाद में सिविल-मिलिट्री तनाव बढ़ सकता है. हालांकि फौज उनको स्थापित करने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन इमरान की विश्वसनीयता में कमी से बाद में सेना को नुकसान हो सकता है, क्योंकि जैसा कि हुसैन हक्कानी ने लिखा है कि पाक फौज सत्ता की आदी तो है, लेकिन बिना किसी ज़िम्मेदारी के.
अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हक्कानी ने अपनी किताब में लिखा था, ‘पाकिस्तान संवैधानिक तौर पर लोकतंत्र है, वहां तानाशाही नहीं है. लेकिन अगर कठपुतलियों की डोर दिखने लगे, तो नतीजा जो भी हो, ज़िम्मेदारी कठपुतलियों को नचाने वालों की ही होती है. तो फौज दोनों हाथ में लड्डू रखना चाहती है. यानी सत्ता तो चाहिए, लेकिन बिना ज़िम्मेदारी के.’
खैर, पाकिस्तानी मतदाताओं को एक खराब स्क्रिप्ट पक़ड़ा दी गई है. अब उन्हें ‘सबसे कम खराब’ को चुनना है. और इस तरह पाकिस्तानियों के लिए इमरान ही एकमात्र विकल्प बचते हैं.
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